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________________ स्तुतिविद्या तभी दोनों वृत्तियोंका यह सारा विषय स्पष्ट हो सकेगा। ___ यह टीका यद्यपि साधारण प्रायः पदोंके अर्थबोधके रूपमें है-किसी विषयके विशेष व्याख्यानको साथमें लिये हुए नहीं है-फिर भी मूल ग्रन्थमें प्रवेश पाने के इच्छुको एवं विद्यार्थियोंके लिये बड़ी ही कामकी चीज है । इसके सहारे ग्रन्थ पदोंके सामान्यार्थ तक गति होकर उसके भीतर ( अन्तरंगमें ) संनि. हित विशेषार्थको जानने की प्रवृत्ति हो सकती है और वह प्रयत्न करनेपर जाना तथा अनुभवमें लाया जा सकता है। ग्रन्थका सामान्यार्थ भी उतना ही नहीं है जितना कि वृत्तिमें दिया हुआ है बल्कि कहीं कहीं उससे अधिक भी होना संभव है, जैसा कि अनुवादकके उन टिप्पणोंसे भी जाना जाता है जिन्हें पद्य नं० ५३ और ८७ के सम्बन्धमें दिया है। होसकता है कि इस प्रन्थ. पर कवि नरसिंहकी कोई बृहत् टोका रही हो और अजितसेनाचार्यने अपने अलंकारचिन्तामणि ग्रन्थमें, ५३वें पद्यको उद्धृत करते हुए उसके विषयका स्पष्टीकरण करनेवाले जिन तीन पद्योंको साथमें दिया है और जिन्हें अनुवादकने टिप्पण (पृ०६४ ) में उद्धृत किया है वे उक्त टीकाके ही अंश हो । यदि ऐसा हो तो उस टीकाको पद्यात्मक अथवा गद्य-पद्यात्मक सम. झना चाहिये। इस ग्रन्थका प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद साहित्याचार्य पं. पन्नालालजी 'वसन्त' ने किया है, जो कि 'गणेश-दिगम्बर जैनविद्या. लय' सागर में साहित्य तथा व्याकरण-विषयके अध्यापक हैं और अनुवाद-कार्य में अच्छी दिलचस्पी रखते हैं । यह . अलकारचिन्तामणि ग्रन्थ इस समय मेरे सामने नहीं है, देहलीमें खोजनेपर भी उसकी कोई प्रति नहीं मिल सकी, इसीसे इस विषयको कोई विशेष विचार यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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