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प्रस्तावना
१६
विद्याकी वृत्ति कर रहा है । और इससे अगले पद्यमें श्राश्रयका महत्व ख्यापित किया गया है।
ऐसी स्थिति में यही कहना पड़ता है कि यह वृत्ति ( टोका ) वसुनन्दीकी कृति है— नरसिंहकी नहीं । नरसिंहकी वृत्ति वसुनन्दीके सामने भी मालूम नहीं होती, इसी लिये प्रस्तुत वृत्ति में उसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। जान पड़ता है वह उस समय तक नष्ट हो चुकी थी और उसकी 'किंवदन्ती' मात्र रह गई थी । अस्तु इस वृत्तिके कर्ता वसुनन्दी संभवतः वे ही वसुनन्दी आचार्य जान पड़ते हैं जो देवागमवृत्ति के कर्त्ता हैं; क्योंकि वहाँ भी 'वसुनन्दिना जडमतिना जैसे शब्दोंद्वारा वसुनन्दीने अपनेको 'जड़मति' सूचित किया है और समन्तभद्रका स्मरणभी वृत्ति के प्रारंभ में किया गया है। साथ ही, दोनों वृत्तियों का ढंग भी समान हैं- दोनोंमें पद्योंके पदक्रमसे अर्थ दिया गया है और 'किमुक्त' भवति', 'एतदुक्त' भवति' - जैसे वाक्योंके साथ अर्थका समुच्चय अथवा सारसंग्रह भी यथारुचि किया गया है। हाँ, प्रस्तुत वृत्ति के अन्त में समाप्ति-सूचक वैसे कोई गद्यात्मक या पद्यात्मक वाक्य नहीं हैं जैसे कि देवागमवृत्तिके अन्तमें पाये जाते है । यदि वे होते तो एककी वृत्तिको दूसरे की वृत्ति समझ लेने जैसी गड़बड़ ही न हो पाती। बहुत संभव है कि वृति के अन्त में कोई प्रशस्ति-पद्य हो और वह किसी कारणवश प्रति लेखकों से छूट गया हो, जैसा कि अन्य अनेक ग्रन्थों की प्रतियोंमें हुआ है और खोजसे जाना गया है। उसके छूट जाने श्रथवा खण्डित हो जानेके कारण ही किसीने उस पुष्पिकाकी कल्पना की हो जो आधुनिक ( १०० वर्षके भीतर की ) कुछ प्रतियों में पाई जाती हैं। इस प्रन्थकी अभी तक कोई प्राचीन प्रति सामने नहीं आई । अतः प्राचीन प्रतियोंकी खोज होनी चाहिये,
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