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स्तुतिविद्या कत होनेसे उसमें छठे पद्यकी ही नहीं किन्तु चौथे पद्यको भी स्थिति ठीक नहीं बैठती। ये दोनों पद्य अपने मध्यवर्ती पद्य सहित निम्न प्रकार है:
तस्याः प्रबोधकः कश्चिन्नास्तीति विदुषां मतिः । यावत्तावबभूवैको नरसिंहो विभाकरः ॥ ४ ॥ दुर्गमं दुर्गमं काव्यं श्रयते महतां वचः। नरसिंह पुनः प्राप्तं सुगमं सुगमं भवेत् ॥ ५ ॥ स्तुतिविद्यां समाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः । तवृत्तिं येन जाड्ये तु कुरुते वसुनन्द्यपि ॥ ६ ॥
यहाँ ४थे पद्य में यह बतलाया है कि 'जबतक एक नरसिंह नामका सूर्य उस भूतकाल में उदित नहीं हुआ था जो अपने लिये परोच है, तब तक विद्वानोंका यह मत था कि समन्तभद्रकी 'स्तुतिविद्या' नामकी सुपद्मिनीका कोई प्रबोधक-उसके अर्थको खोलने-खिलाने वाला नहीं है।' इस वाक्यका, जो परोक्षभूतके क्रियापद 'बभूव को साथमें लिये हुए है, उस नरसिंहके द्वारा कहा जाना नहीं बनता जो स्वयं टीकाकार हो। पाँचवें पद्यमें यह प्रकट किया गया है कि 'महान पुरुषों का ऐसा वचन सुना जाता है कि नरसिंहको प्राप्त हुआ दुर्गमसे दुर्गम काव्य भी सुगमसे सुगम हो जाता है। इसमें कुछ बड़ोंकी नरसिंहके विषयमें काव्यमर्मज्ञ होने विषयक सम्मतिका उल्लेखमात्र है और इसलिये यह पद्य नरसिंहके समयका स्वयं उसके द्वारा उक्त तथा उसके बादका भी हो सकता है। शेष छठे पद्य में स्पष्ट लिखा ही है कि स्तुतिविद्याको समाश्रित करके किसकी बुद्धि नहीं चलती ? -जरूर चलती और प्रगति करती है। यही वजह है कि जडमति होते हुए वसुनन्दी भी उस स्तुति.
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