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प्रस्तावना श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थके ३२ वें प्रकरणमें इस चर्चाको उठाया है
और टीकाके प्रारम्भमे दिये हुए सात पद्योंकी स्थिति और अर्थपर विचार करते हुए अपना जो मत व्यक्त किया है उसका सार इस प्रकार है- (१) इस टीकाके कर्ता 'नरसिंह'नहीं किन्तु 'वसुनन्दि' जान पड़ते हैं अन्यथा ६ठे पद्यमें प्रयुक्त 'कुरुते वसुनन्यपि' वाक्य की संगति नहीं बैठती।
(२) एक तो नरसिंहकी सहायतासे और दूसरे स्वयं स्तुतिविद्या के प्रभावसे वसुनन्दि इस टीकाको बनाने में समर्थ हुए।
(३) पद्योंका ठीक अभिप्राय समझमें न आनेके कारण ही भाषाकार पं० लालाराम ) ने इस वृत्तिको अपनी कल्पनासे 'भव्योत्तमनरसिंहभट्टकत' छपा दिया।
इस मतकी तीसरी बातमें तो कुछ तथ्य मालूम नहीं होता, क्योंकि हस्तलिखित प्रतियोंमें टीकाको भव्योत्तम नरसिंहकत लिखा ही है और इसलिये 'भट्ट विशेषणको छोड़कर वह भाषाकार की कोई निजी कल्पना नहीं है। दूसरी बातका यह अंश ठीक नहीं जचता कि वसुनन्दिने नरसिंहकी सहायतासे टीका बनाई; क्योंकि नरसिंहके लिये परोक्षभूतकी क्रिया 'बभूव' का प्रयोग किया गया है, जिससे मालूम होता है कि वसुनन्दिके समय में उसका अस्तित्व नहीं था। अब रही पहली बाव, वह प्रायः ठीक जान पड़ती है। क्योंकि टीकाके नरसिंह
२ बाबा दुलोचन्दजी जयपुरके भंडारकी मूल ग्रन्थकी दो प्रतियों नं० ११५, ४५४ में भी ये सातों पद्य दिये हुए हैं, जो कि लेखकोंकी असावधानी और नासमझोका परिणाम है क्योंकि मूल कृतिके ये पथ कोई जंग नहीं हैं।
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