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________________ स्तुतिविद्या भावनासे भारतके दक्षिण-उत्तर प्रदेशोंकी बहुत बड़ी सफल यात्रा की थी और अपने आत्मबल, युक्तिबल तथा चरित्रबलके आधारपर असंख्य प्राणियोंको सन्मार्गपर लगाया था। बादको अपनी कृतियों द्वारा वे सभी प्राचार्योंके पथ-प्रदर्शक रहे हैं और रहे चले जाते हैं। आपका अस्तित्व-काल विक्रमकी दूसरीतीसरी शताब्दी है। टीकाकारादि-परिचय इस प्रन्थ के संस्कृत टीकाकारका विषय कुछ जटिल हो रहा है। आम तौरपर इस टीकाके कर्ता नरसिंह नामके कोई महाकवि समझे जाते हैं, जिनका विशेष परिचय अज्ञात है, और उसका कारण प्रायः यही जान पड़ता है कि अनेक हस्तलिखित प्रतियों के अन्तमें इस टोकाको 'श्रीनरसिंहमहाकविभव्योत्तमविरचिता' लिखा है। । स्व. पं. पन्नालालजी बाकलीवालने इस ग्रन्थका 'जिनशतक' नामसे जो पहला संस्करण सन १६१२ में जयपुरकी एक ही प्रतिके आधारपर प्रकट किया था उसके टाइटिल पेजपर नरसिंहके साथ 'भट्ट' शब्द और जोड़कर इसे 'नरसिंहभट्टकृतव्याख्या'बना दिया था और तब से यह टीका नर. सिंहभट्टकत समझी जाने लगी है। परन्तु 'भट्ट' विशेषणकी जय. पुरकी किसी प्रतिमें तथा देहली धर्मपुराके नया मन्दिरकी प्रतिमें भी उपलब्धि नहीं हुई और इसलिये नरसिंहका यह भट्ट' विशेपण तो व्यर्थ ही जान पड़ता है। अब देखना यह है कि इस टीकाके कर्ता वास्तवमें नरसिंह ही हैं या कोई दूसरे विद्वान् । १ बाबा दुलीचन्द जी जयपुरके शास्त्रमण्डारको प्रति नं० २१६ और २६६ के अन्तमें लिखा है-"इति कधिगमकवादिवाग्मि. स्वगुडालंकृतस्य श्रोसमन्तभद्रस्य कृतिरियं जिनशतालंकार नाम समाहा। टीका श्रीनरसिंहमहाकर्षिभन्योत्तमविरचिता समामा || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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