________________
|
११६
समन्तभद्र-भारती
रोगः व्याधिः धानमामनं तत् श्रमति रुजति मनतोति 'कर्मश्वर मानमामनामः त्वमिति सम्बन्धः । नु वितकें । अम्योपि नु वित्तकें मा लक्ष्मीः तथा ऊना: रहिता: मोना: मोनानां श्रामः रोग: मोना तं नामयतीति मोनामनमनः त्वमिति सम्बन्धः । श्रम गच्छ । मे इल ध्याहार्यः । मनः चित्तम् । श्रमन कान्त कमनीय । एददुक्त भवतिमानमामनामो नु त्वं यस्मात् मोनामनमनो नु यस्मात् त्वं तस्मात् ममे श्रमन मे मनः श्रम गच्छ यस्मात् मे मम माननं नास्ति आमेन विशिष्टेन मानमा पुनरपि श्रननमा ॥ ६४ ॥
|
अर्थ - प्रभो ! जो आपको भक्ति-पूर्वक नमस्कार करता है उसके सब रोग नष्ट कर देते हैं तथा जो ज्ञानादिलक्ष्मीसे रहि हैं - वस्तुत: निर्धन हैं - उनके भी समस्त सांसारिक रोगों को नष्ट देते हैं । इसके सिवाय आप अत्यन्त सुन्दर हैं । हे नमिजिन ! ज्ञा गुणको घातनेवाले तथा जीवके शुद्ध स्वरूपको नष्ट करनेव इन कर्मरूपी रोगोंने मेरा समस्त प्रभुत्व अथवा स्वातन्त्र हर लिया है अतः आप मेरे हृदय मन्दिर में प्रवेश कीजिये जिससे कि मेरी स्वतन्त्रता मुझे प्राप्त हो सके ।
भावार्थ-यहां श्राचार्य समन्तभद्रने भगवान् नमिनाथकी स्तु करते हुए कहा है कि आप भक्तपुरुषोंके समस्त रोग-दुःख कर देते है तथा दरिद्र मनुष्योंके भी आप अत्यन्त हितैषी हैंउनके भी दारिद्रयजनित समस्त रोग-दुःख नष्ट कर देते हैं । प्रभो ! मेरे पीछे भी यह दुःखदायी संसाररूपी रोग पड़ा हुआ इसने मेरी सर्व स्वतन्त्रताको हर लिया है । मेरी केवलज्ञाना सम्पत्ति भी इसके द्वारा हरली गई है अतः मैं एक तरह दरिद्र तथा असमर्थ हो रहा हूं अतः आप मेरे हृदय में प्रवेशक मेरे सब रोगोंको दूर कर दीजिये। जिसमें रोग दूर करने सामर्थ्य होती है उसीसे तो प्रार्थना की जाती है। श्लोकका स आशय यह है कि आपका ध्यान करनेसे जीवोंके समस्त सांस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org