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. स्तुतिविद्या
है और आपका मुख भी अत्यन्त प्रशंसनीय है । हे पूज्य ! हम लोग सांसारिक दुःखोंसे पीड़ित हैं,अनेक व्याधियोंसे घिरे हुए हैं
और आपके चरणों में विनत हैं। आप हम लोगोंको वह केवलज्ञानरूप महाविद्या प्रदान कीजिये जो कि जन्ममरणको नष्ट करनेवाली है। इसके सिवाय हे प्रभो ! हमारे इन नये बँधनेवाले पापोंको भी नष्ट कर दीजिये अर्थात् संवर और निर्जराकी पूर्ण कला सिखलाकर हमें शीघ्र बन्धन-मुक्त कीजिये ॥१०॥
(चक्रवृत्तम् ) वंदारुप्रबलाजवंजवभयप्रध्वंसिगोप्राभव वर्धिष्णो विलसद्ग णार्णव जगन्निर्वाणहेतो शिव । वंदीभूतसमस्तदेव वरद प्राज्ञ कदक्षस्तव वंदे त्वावनतो वरं भवभिदं वर्षेकवंद्याभव ॥११॥ ५ 'षडरं चक्रमालिख्यारमध्ये स्थापयेत्कविः । त्रीपादान्नेमिमध्ये तु चतुर्थं चक्रवृत्त के ।'
. -त्रालंकारचिन्तामशिः। छह अरोंवाला एक चक्र बनाकर अरों के बीचमें प्रात्मके तीन पाद लिखने चाहिये, अवशिष्ट चौथापाद नेमि-चक्रधारा--अन्तिमपरिधिमें लिखना चाहिये । इसी प्रकार अन्यत्र पाये हुए चक्रोंकी रचना समझना चाहिये । इस अलंकारमें कभी-कभी अपना इष्टतम-मनचहा-पाद गूढ भी हो जाता है अर्थात् उस पादके समस्त अक्षर शेषके तीन पादोंमें समाविष्ट हो जाते हैं; जैसा कि इस ग्रन्थके 11 और ११२ नं० के श्लोकों में हुआ है। कभी-कभी कविका नाम भी श्लोकके किसी वलयमें माजाता है; जैसा कि ११६ ० के श्लोकके बाहरसे भीतरकी अोर सातवें वलयमें 'शान्तिवर्मकृतं' श्रागया है । शान्तिवर्मा समन्तभाका दूसरा जन्मनाम है और जो उनके पत्रिय कुलोत्पन्न होनेका घोतक है।
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