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स्तुतिविद्या
( मुरजबन्धः) यतः श्रितोपि कान्ताभिदृष्टा' गुरुतया स्ववान् । वीतचेतोविकाराभिः स्रष्टा चारुधियां भवान् ॥७॥ यतः श्रितः इति । यतः यस्मात् श्रितोपि आश्रितोपि सेधितोपि कान्ताभिः स्त्रोभिः वानन्यन्तरादिरमणीभिः । तथापि दृष्टा प्रेषिता गुरुतया गुरुत्वेन गुरोर्भावः गुरुता तया । स्ववान् अात्मवान ज्ञानवानि. त्यर्थः । किं विशिष्टाभिः स्त्रीभिः वीतचेतोविकाराभि: वीतः विनष्टः चेतसः चित्तस्य विकारः कामाभिलाषः यासां ताः वीतचेतोविकाराः ताभिः वीतचेतोविकाराभिः । स्वष्टा विधाता। चाय॑श्च ताः धियश्च चारुधियः अतस्तासां चारुधियां शोभनबुदीनां । भवान् भट्टारकः । किमुक्त भवति--समवसृतिस्थस्त्रीजनसेवितोपि गुरुत्वेन ईक्षितासि यतस्ततः शोभनबुद्धीनां सृष्टा कर्ता भवानेव एतदुक्तं भवति ॥ ७ ॥ ___ अर्थ-हे प्रभो! यद्यपि आप समवसरणमें अनेक निर्विकार-कामेच्छासे रहित-सुन्दर देवियोंके द्वारा सेवित होते हैंबहुत देवियां आपकी उपासना करती हैं-तथापि आत्मवान्-जितेन्द्रिय होने के कारण आप महान्-पूज्य ही माने जाते हैं; अतः निर्मल बुद्धिके उत्पन्न करनेवाले विधाता आप ही हो।
'दृष्टा' यहां पर कर्तृवाच्य में 'तृच' प्रत्यय हुआ है और 'गुरुस्तु गोष्पती श्रेष्ठे गुरौ पितरि दुर्भरे इस कोश-वाक्यसे गुरु शब्दका पिता अर्थ भी स्पष्ट है। यदि श्लोक में 'ताः' इस कर्म पदका ऊपरसे सम्बन्ध कर लिया जावे तो श्लोकका एक अर्थ यह भी हो सकता है-'हे प्रभो! श्राप अनेक सुन्दर स्त्रियों के द्वारा सेवित होनेपर भी उन्हें पितृभावसे देखते हैं अर्थात् जिस प्रकार पुत्रीके प्रति पिताकी दृष्टि विकार-रहित होती है उसी तरह उनके प्रति भी आपकी दृष्टि विकार-रहित होती है; क्योंकि आप स्ववान् हैं - जितेन्द्रिय अथवा ज्ञानवान् है । और इसलिये उत्तम बुखिके उत्पादक भाप ही माने जा सकते हैं।' ...
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