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स्तुतिविद्या
पूर्वक उसके शरीरमें कोई काम नहीं किया। हाँ, उसके निमित्तसे शरीर में रोगनाशक तथा आरोग्यवर्धक कार्य जरूर हुआ है और इसलिये वह उसका कार्य कहा जाता है।
(३) एक मनुष्य छत्री लिये जा रहा था और दूसरा मनुष्य विना छत्रीके सामनेसे आ रहा था। सामने वाले मनुष्यकी दृष्टि जब छत्रीपर पड़ी तो उसे अपनी छत्रीको याद आगई और यह स्मरण हो आया कि 'मैं अपनी छत्री अमुक दुकानपर भूलआया हूँ; चुनाँचे वह तुरन्त ही वहाँ गया और अपनी छत्री ले आया और आकर कहने लगा-'तुम्हारी इस छत्रीका मैं बहुत आभारी हूँ, इसने मुझे मेरी भूली हुई छत्रीकी याद दिलाई है। यहाँ छत्री एक जड़वस्तु है, उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं, वह कुछ बोली भी नहीं और न उसने बुद्धिपूर्वक छत्री भूलनेको वह. बात ही सुझाई है। फिर भी चूंकि उसके निमित्तसे भूली हुई छत्रीकी स्मृतिश्रादिरूप यह सब कार्य हुआ है इसीसे अलंकृत भाषामें उसका आभार माना गया है।
(४) एक मनुष्य किसी रूपवती स्त्रीको देखते ही उसपर आसक्त होगया, तरह-तरह की कल्पनाएँ करके दीवाना बन गया
और कहने लगा-'उस स्त्रीने मेरा मन हलिया, मेरा चित्त चुरा लिया,मेरे ऊपर जादू कर दिया ! मुझे पागल बना दिया! अब मैं बेकार हूँ और मुझसे उसके बिना कुछ भी करते-धरते नहीं बनता।' परन्तु उस बेचारी स्त्रीको इसकी कोई खबर नहीं-किसी बातका पता तक नहीं और न उसने उस पुरुषके प्रति बुद्धिपूर्वक कोई कार्य ही किया है-उस पुरुषने ही कहीं जाते हुए उसे देख लिया है। फिर भी उस रत्रीक निमित्तको पाकर उस मनुष्य के आत्म. दोषोंको उत्तेजना मिली और उसकी यह सब दुर्दशा हुई । इसीसे वह उसका सारा दोष उस स्त्रीके मत्ये मढ़ रहा है। जब कि वह
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