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प्रस्तावना
१३ उसमें अज्ञातभावसे एक छोटासा निमित्त कारण बनी है, बड़ा कारण तो उस मनुष्य का ही आत्मदोष था।
(५) एक दुःखित और पीड़ित गरीब मनुष्य एक सन्तके आश्रयमें चला गया और बड़े भक्तिभावके साथ उस सन्तकी सेवा-शुश्रूषा करने लगा। वह सन्त संसार-देह भोगोंसे विरक्त है-वैराग्य सम्पन्न है-किसीसे कुछ बोलता या कहता नहीं - सदा मौनसे रहता है। उस मनुष्यकी अपूर्व भक्तिको देखकर पिछले भक्त लोग सब दंग रह गये ! अपनी भक्तिको उसकी भक्तिके आगे नगण्य गिनने लगे और बड़े आदर सत्कारके साथ उस नवागन्तुक भक्तहृदय मनुष्यको अपने अपने घर भोजन कराने लगे और उसकी दूसरी भी अनेक आवश्यकताओंको पूर्ति बड़े प्रेमके साथ करने लगे, जिससे वह सुखसे अपना जीवन व्यतीत करने लगा और उसका भक्तिभाव और भी दिन-पर-दिन बढ़ने लगा। कभी-कभी वह भक्तिमें विह्वल होकर सन्तके चरणों में गिर पड़ता और बड़े ही कम्पित स्वरमें गिडगिड़ाता हुआ कहने लगता-'हे नाथ ! आप ही मुझ दीन-हीनके रक्षक हैं, आप ही मेरे अन्नदाता हैं, आपने मुझे वह भोजन दिया है जिससे मेरी जन्म-जन्मान्तरकी भूख मिट गई है।
आपके चरण-शरणमें आनेसे ही मैं सुखी बन गया हूँ, आपने मेरे सारे दुःख मिटा दिये हैं और मुझे वह दृष्टि प्रदान की है जिससे मैं अपनेको और जगतको भले प्रकार देख सकता हूँ। अब दया कर इतना अनुग्रह और कीजिये कि मैं जल्दी ही इस संसारके पार हो जाऊँ ।' यहाँ भक्तद्वारा सन्तके विषय में जो कुछ कहा गया है वैसा उस सन्तने स्वेच्छासे कुछ भी नहीं किया। उसने तोभक्तके भोजनादिकी व्यवस्थाके लिये किसीसे संकेत तक भी नहीं किया और न अपने भोजनमें से कभी कोई प्रास ही उठा कर उसे दिया है। फिर भी उसके भोजनादिकी सब व्यवस्था हो गई
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