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समन्तभद्र- भारती
नायक हे पुष्पदन्त जिनेन्द्र ! आपके विषय में की गई मन वच कायकी छोटी-छोटी चेष्टाओं से आपके चिन्तवन स्तवन तथ नमस्कार से प्राणियों को जिस श्रेष्ठ पुण्यका बन्ध होता है क मात्र अनुमान से संभावित होनेपर भी स्तुति के योग्य ठहरता है। हे प्रभो ! आप मुझे भी वह मोक्षसुख दीजिये जिससे फिर कभ वह सुख दुःख-बद्ध न हो - दुखको प्राप्त न हो ।
भावार्थ- आपके स्तवनादि से प्राणियोंको जो पुण्य-बन्ध होते हैं वह यद्यपि छद्मस्थ जीवोंके स्वानुभवगम्य नहीं होता उसका प्रत्यक्ष नहीं होता तथापि उस पुण्यबन्धसे जो कुछ सामग्री प्राप्त होती है उससे उसका अनुमान किया जा सकता है। यद्यि इस अनुमान प्रणाली से पूर्ण पुण्यबन्धका बोध नहीं हो पा तथापि जितने पुण्यबन्धका बोध होता है विचार करने वह भी प्रशंसनीय ठहरता है। क्योंकि उससे भी अनेक ऐहि तथा पारलौकिक फलोंकी प्राप्ति हो जाती है। हे भगवन्! आप विषय में की गई मन-वचन-कायकी साधारण प्रवृत्तिसे ज जीवका इतना उपकार होता है तब मन-वचन-काय की पूर्ण शक्ति लगाकर आपकी उपासना करनेसे जीवका कितना बड़ा उपकार न होगा ॥ ३७ ॥ ३८ ॥
( मुरजः )
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शोकक्षय कृदव्याधे पुष्पदन्त स्ववत्पते । लोकत्रयमिद बोधे गोपदं तव वर्त्तते ॥ ३९ ॥ शोकेति - शोकक्षयकृत् शोकस्य क्षयः शोकचयः तं करोतीरि शोकचयकृत् । श्रन्वाधे न विद्यते व्याधिर्यस्यासावव्याधिः तस्य सम्बो धनं हे श्रन्याधे । पुष्पदन्त नवमतीर्थकर । स्वबत्पते श्रात्मवतां पते लोकानां त्रयम् । इदं प्रत्यक्षवचनम् । बोधे केवलज्ञाने । गोपदं गोष्पद अत्र सुपो लुब् भवति । तव ते वर्त्तते प्रवर्तते । ज्ञानस्य माहात्म्यं प्रद
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