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समन्तभद्र-भारती करते हैं । विश्वको कोई भी शाक्ति आपको नहीं जीत सकती
आप अजेय हैं. इन्द्र नरेन्द्र आदि असंख्यात जीव आपको नमस्कार करते हैं। हे प्रभो ! मेरे जन्ममरणके दुःखोंको दूत कीजिये ॥६शा
(अनुलोमप्रतिलोम-गतप्रत्यागतश्लोक. ) हतभीः स्वय मेध्याशु' शं ते दातः श्रिया तनु ।
नुतया श्रित दान्तेश शुद्धयामेय स्वभीत ह ॥१६॥ ... हतेति-गतप्रत्यागतैकश्लोक इत्यर्थः । हतभीः विनष्टभयः स्वं स्वयः शोभनः अयो यस्यासौ स्वयः तस्य सम्बोधनं स्वय । मेध्य पूत । श्राशु शीघ्रम् । शं सुखन् । ते तव । दात: दानशीलः । श्रिया लचम्या। तनु कुरु देहि वितर विस्तारय इति पर्यायाः । नुतया पूजितथा । श्रिय सेव्ये । दान्तेश मुनीश । शुद्धया केवलज्ञानेन । अमेय अपरिमेय | सुष्टु अभीतः स्वभीत: तस्य सम्बोधनं स्वभीत अनन्तवीर्य ह मिसंज्ञक समुदायार्थः - हे नमे यतः त्वं हतभी: वप मेध्य दातः श्रिया नुतयां श्रित दान्तेश शुद्धयामेय स्वमीत ते तव यत् शं सुखं तत् तनु कुर देहि ह स्फुटम् ||६||
अथेहे नमिनाथ ! आप भयरहित हो, महापुण्यवानहो तीर्थ करनामकर्म जैसी पुण्यप्रकृतिके उदयसे युक्त हो, पवित्रहों, दानशोलहो,अत्यन्तउत्कृष्ट अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मोसे सेवित हो, मुनियों के स्वामी हो,केवलज्ञानरूपी शुद्धिसे अमेय हो-आपका केवलज्ञान मानरहित है-अनन्त है। और आप अनन्तवीर्य से सहित हैं यह बात अत्यन्त स्पष्ट है । हे प्रभो! आपमें जो अनन्त आत्मीय सुख है वह मुझे भी शीघ्र दीजिये ॥६॥
.. मेभ्य+ पाय इति सन्धिारह इत्यम्वयं स्फुटार्यकम् ।
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