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समरभद्र-भारती हरती है, पुण्यकी रक्षा करती है और अनेक कल्याण प्राप्त कराती है, अतः श्राप हो जगत्के सर्वश्रेष्ठ नायक हैं ॥४॥
(अद्धभ्रमः) अविवेको न वा जातु विभूषापन्मनोरुजा । वेषा मायाज वैनो वा कोपयागश्च जन्म न ॥४४॥
अविवेकेति-स्वयि श्रेयसि इत्यनुवर्तते । अविवेकः अनालो. चनम् । न प्रतिषेधवचनम् । वा समुच्चये। जातु कदाचित् । विभूषा शरीरालंकारः । आपत् विपत्. महासंक्लेशः । मनोरुजा चित्तपोढ़ा बेषा शरीरविन्यासः । माया वंचना । हे अज सर्वज्ञ । वा समुच्चये एनो वा पाप वा । कोपः क्रोधः हिंसापरिणामः । श्रागश्च अपराधश्च | जन्म उत्पत्तिः। न प्रत्येकम भिसम्बन्धनीयः । किमुक्तं भवतिश्रेयन् अस्मिन् स्वयि अविवेको न कदाचिदभूत, विभूषा वा न, आपद्वा न, मनोरुजा वा न, वेषां चा न, माया वा न, हे अंज एनो वा न, कोपः आगश्च जन्म च न, यतः यतः ततो भवानेव नेतेति सम्बन्धः । अविवेक नास्तीति वचनेन सांख्य-सौगत-योगानां निराकरणं कृतम् । अन्यैर्वि शेषणैरन्ये निराकृताः ॥ ४ ॥
अर्थ-हे सर्वज्ञ ! ( सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त होनेपर ) आप. में कभी अज्ञान नहीं था, आपके शरीरपर कभी आभूषण न थे तथा आपत्ति-शारीरिक व्यथा, मानसिक व्यथा, तरह तरह के वेष, छलकपट, पाप, क्रोध, अपराध तथा जन्म आदि कभी नहीं थे इस कारण आप हो सबके नायक हैं।
. भावार्थ-सांख्य, बौद्ध तथा नैयायिक ईश्वरको ज्ञानस्वरूप नहीं मानते किन्तु ज्ञानगुणकाआधार मानते हैं अतः उनका निरा. करण करनेके लिये कहा गया है कि आपमें अविवेक कभी नहीं था--आप हमेशा ज्ञानस्वरूप रहते हैं। कितने ही मताव. लम्बी अपने देव-देवताओंको वरह तरहके आभूषण, वेषविन्यास,
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