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समन्तभद्र-भारती
यो लोके इति-यः कधित् । लोके भुवने । त्वा युष्मदः इ म्तस्य रूपम् । नतः प्रणतः । सः तदः पान्तस्य रूपम् । प्रतिहीनो प्रतिनिकृष्टोपि । अतिगुरुः महाप्रभुः भवति इत्यध्याहार्यम् । पर्व यस्मात् । बालोपि अज्ञान्यपि मूर्कोपि । त्वा कुन्थुभट्टारकं । श्रितं | माश्रयणीयम् । नौति स्तौति । को नो को न । नीतिपुरु: नीत्या बुद्ध पुरुः महान् । कुतः कस्मात् । संक्षेपार्थः-हे कुन्थुभट्टारक स्वाचितमि लोके योतिहीनोपि नतः सोतिगुरुर्यतः ततः बालोपि त्वा को न नौर नोतिपुरुः पुनः कुतो न नौति किन्तु नौत्येव ॥२॥
अर्थ-हे भगवन् ! आप सब जीवोंको आश्रय देने में समर्थ हैं। इस लोकमें जो पुरुष आपको नमस्कार करता है-स प्रकारसे आपका आश्रय ले लेता है-वह अत्यन्त हीन-निक अथवा नीच होनेपर भी अतिगुरु अतीव श्रेष्ठ अथवा उच्चहो जाता है । जब यह बात है तब हे प्रभो ! ऐसा कौन मूख अथवा नीतिज्ञ (बुद्धिमान ) मनुष्य होगा जो आपको नमस्कार कर आपके आश्रय अथवा शरणमें आना न चाहेगा ? प्रायो कोई भी ऐसा नहीं हो सकता जो आपका यथार्थ परिचय पाकर भी आपकी शरणमें न आये।
भावार्थ-जिस कार्यका लाभ प्रत्यक्ष दीखता हो बुद्धिमान मनुष्य उसे अवश्य ही करते हैं । यहां 'जो अतिहीन अथवा अतिनीच है वह अति महान् अथवा अत्यन्त उच्च कैसे हो सकता है ?' इस तरह विरोध प्रकट होता है । परन्तु महापुरुषों के आश्रयसे विरुद्ध दिखाई देनेवाली बात भी अंनुकूल होजाती है अतः उस विरोधका परिहार हो जाता है। यह विरोधाभास अलंकार है ॥२॥
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