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प्रस्तावना
जब भले प्रकार सम्पन्न हुए स्तुति-वन्दनादि पाये इष्ट फलको देनेवाले हैं और वीतरागदेवमें कर्तृत्व विषयका आरोप सर्वथा असंगत तथा व्यर्थ नहीं है बल्कि ऊपरके निर्देशानुसार संगत और सुघटित है-वे स्वेच्छा-बुद्धि-प्रयत्नादिकी दृष्टिसे कर्ता न होते हुए भी निमित्तादिकी दृष्टिसे कर्ता जरूर हैं और इसलिये उनके विषयमें अकर्तापनका सर्वथा एकान्तपक्ष घटित नहीं होता; तब उनसे तद्विषयक अथवा ऐसी प्रार्थनाओंका किया जाना भी असंगत नहीं कहा जा सकता जो उनके सम्पर्क तथा शरणमें आनेसे स्वयं सफल होजाती है अथवा उपासना एवं भक्तिके द्वारा सहज-साध्य होती हैं। वास्तव में परमवीत. रागदेवसे प्रार्थना एक प्रकारकी भावना है अथवा यो कहिये कि अलंकारकी भाषामें देवके समक्ष अपनी मन: कामनाको व्यक्त करके यह प्रकट करना है कि 'मैं आपके चरण-शरणमें रहकर और उससे पदार्थपाठ लेकर आत्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुआ अपनी उस इच्छा को पूरा करने में समर्थ होना चाहता हूं ।' उसका यह आशय कदापि नहीं होता कि, 'हे वीतराग देव ! आप अपने हाथ पैर हिलाकर मेरा अमुक काम करदो, अपनी जबान चलाकर या अपनी इच्छाशक्तिको काममें लाकर मेरे कार्यके लिये किसीको प्रेरणा कर दो, आदेश दे दो अथवा सफारिश कर दो; मेरा अज्ञान दूर करनेके लिये अपना ज्ञान या उसका एक टुकड़ा तोड़कर मुझे दे दो, मैं दुखी हूँ, मेरा दुख आप ले लो और मुझे अपना सुख दे दो, मैं पापी हूँ, मेरा पाप आप अपने सिर पर उठालो-स्वयं उसके जिम्मेदार बन जाओ--और मुझे निष्पाप बना दो। ऐसा श्राशय असंभाव्यको सम्भाव्य बनाने जैसा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता ब्यक्त करता है।
प्रन्थकारमहोदय देवरूपके पूर्णपरीक्षक और बहुविज्ञ थे।
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