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म्तुतिविद्या
उन्होंने अपने स्तुत्यदेवके लिये जिन विशेषणपदों तथा सम्बो. धनपदोंका प्रयोग किया है और अपने तथा दूसरों के लिये जैसी कुछ प्रार्थनाएँ की है उनमें असंभाव्य-जैसी कोई बात नहीं है--वे सब जंचे तुले शब्दोंमें देवगुणोंके अनुरूप, स्वाभाविक, सुसंभाव्य, युक्तिसंगत और सुसंघटित हैं। उनसे देवके गुणोंका बहुत बड़ा परिचय मिलता है और देवकी साकार मूर्ति सामने श्रा जाती है । ऐसी ही मूर्तिको अपने हृदय-पटलपर अकित करके ग्रन्थकारमहोदय उसका ध्यान, भजन तथा आराधन किया करते थे; जैसा कि उनके स्वचित्तपटयालिख्य जिनं चारु भजत्ययम्। (१०१) इस वाक्यसे जाना जाता है। मैं चाहता था कि उन विशेषणादिपदों तथा प्रार्थनाओंका दिग्दर्शन कराते हुए यहां उनपर कुछ विशेष प्रकाश डालू और इसले लिये मैंन उनकी एक सूची भी तय्यार की थी; परन्तु प्रस्तावना धारणासे अधिक लम्बी होती चली जाती है अतः उस विचारको यहां छोड़ना ही इष्ट जान पड़ता है। मैं समझता हूँ ऊपर इस विषय में जो कुछ लिखा गया है उसपरसे सहृदय पाठक स्वयं ही उन सबका सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ होसकेंगे। हिन्दी अनुवादमें कहीं-कहीं कुछ बातोंका स्पष्टीकरण किया गया है, जहां नहीं किया गया और सामान्यतः पदोंका अनुवाद मात्र दे दिया गया है वहां भी अन्यत्र कथनके अनुरूप उसका प्राशय समझना चाहिये। ग्रन्थकार-परिचय
इस प्रन्थके निर्माता आचार्यप्रवर स्वामी समन्तभद्र हैं, जिन्हें हस्तलिखित प्रतियोंमें, प्रस्तुत कृतिका कर्ता बतलाते हुए, 'कविगमक-वादि-वाग्मित्व-गुणालंकृतस्य' विशेषणके द्वारा कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके उन चार महान गुणोंसे अलंकृत बतलाया है जो कि स्वामी समन्तभद्रमें असाधारण
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