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स्तुतिविद्या
शुभकार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे शुभकर्म अथवा पुण्यप्रकृति और अशुभकार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे अशुभकर्म अथवा पापप्रकृति कहते हैं। शुभाशुभ भावोंकी तरतमता और कषायादि परिणामों की तीव्रता मन्दतादिके कारण इन कर्मप्रकृतियों में बराबर परिवर्तन, (उलटफेर ) अथवा संक्रमण हुआ करता है। जिस समय जिस प्रकार की कर्मप्रवृतियोंके उदयका प्राबल्य होता है उस समय कार्य प्रायः उन्हीं के अनुरूप निष्पन्न होता है । वीतरागदेवकी उपासना के समय उनके पुण्य गुणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण एवं चिन्तन करने और उनमें अनुराग बढ़ाने से शुभ भावों ( कुशलपरिणामों) की उत्पत्ति होती है, जिससे इस मनुष्य की पापपरिणति छूटती और पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है। नतीजा इसका यह होता है कि हमारी पापप्रकृतियों का रस ( अनुभाग ) सूखता और पुण्य प्रकृतियों का रस बढ़ता है। पापप्रकृत्तियों का रस सूखने और पुण्यप्रकयियों में रस बढ़ने से 'अन्तराय कर्म' नामकी प्रकृति, जो कि एक मल पापप्रकृति है और हमारे दान लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ( शक्ति-बल) में विघ्नरूप रहा करती है— उन्हें होने नहीं देती-वह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्ट कार्यको बाधा पहुँचाने में समर्थ नहीं रहती । तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं, बिगड़े हुए काम भी सुधर जाते हैं और उन सबका - श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है। इसी से स्तुति-वन्दनादिको इष्टफलको दाता कहा है; जैसा कि तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकादि में उद्धृत एक श्राचार्य महोदय के निम्न वाक्यसे प्रकट हैनेष्ट' विहन्तु शुभभाव - भग्न-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणनुरागान्नुत्यादि रिष्टार्थक दाऽर्हदादेः ॥
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