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________________ प्रस्तावना १५ • स्तवन और अराधनसे जब पापक्रमोंका नाश होता है, पुण्य की वृद्धि और आत्माकी विशुद्धि होती है - जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है-तत्र फिर कौन कार्य है जो अटका रह जाय ' ? सभी कार्य सिद्धिको प्राप्त होते हैं, भक्त जनों की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, और इसलिये उन्हें यही कहना पड़ता है कि 'हे भगवन् आपके प्रसाद से मेरा यह कार्य सिद्ध होगया, जैसे कि रसायन के प्रसाद से आरोग्यका प्राप्त होना कहा जाता है । रसायन औषधि जिस प्रकार अपना सेवन करनेवाले पर प्रसन्न नहीं होती और न इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य ही सिद्ध करती है उसी तरह वीतराग भगवान् भी अपने सेबक पर प्रसन्न नहीं होते और न प्रसन्नताके फलस्वरूप इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न ही करते हैं । प्रसन्नतापूर्वक सेवनआराधन के कारण ही दोनोंमें— रसायन और वीतरागदेवमेंप्रसन्नता का आरोप किया जाता है और यह अलंकृत भाषाका कथन हैं । अन्यथा दोनों का कार्य वस्तुस्वभाव के वशव, संयोगोंको अनुकूलताको लिये हुए, स्वतः होता है-उसमें किसीकी इच्छा अथवा प्रसन्नतादिकी कोई बात नहीं हैं। यहाँ पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि, संसारी जीव मनसे वचनसे या कायसे जो क्रिया करता है उससे आत्मामें कम्पन ( हलन चलन) होकर द्रव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का श्रात्म-प्रवेश 'होता है, जिसे 'स्व' कहते हैं । मन-वचन-काबकी यह क्रिया यदि शुभ होती है तो उससे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभ कर्म का स्रव होता है । तदनुसार ही बन्ध होता है । इस तरह कर्म शुभ-अशुभके भेद से दो भागों में बँटा रहता है। - १ " पुण्यप्रभावात् किं किं न भवति' - 'पुण्यके प्रभाव से क्या क्या नहीं होता' ऐसी लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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