________________
प्रकाशकीय वक्तव्य
सन् १९४० में स्वामी समन्तभद्रके सभी उपलब्ध ग्रन्थोंका एक बहुत बढ़िया संस्करण : .'समन्तभद्रभारती' के नामसे, विशिष्ट हिन्दी अनुवादादिके साथ, वीर-सेवा-मन्दिरसे निकालनेका विचार मेरे मनमें उत्पन्न हुआ था, जिसे अनेक विद्वानोंने बहुत पसन्द किया था। इस ग्रन्थराजका कार्य सुचारु रूपसे शीघ्र सम्पन्न होनेके लिये जब विद्वानोंके सामने सहयोगकी योजना रखी गई तो कई विद्वानोंने बिल्कुल सेवा. भावसे स्वामी समन्तभद्रके ऋणसे कुछ उऋण होनेके खया. लसे-एक-एक ग्रन्थके अनुवाद कार्यको बाँट लिया। चुनाँचे अक्तबर सन् १९४० के 'अनेकान्त' की कि ण १२ में जब वीर सेवामन्दिरकी विज्ञप्ति-द्वारा 'समन्तभद्रभारतीकी प्रकाशनयोजना' प्रकट की गई और उसकी सारी रूप-रेखा स्पष्ट की गई तब उसमें बड़ी प्रसन्नताके साथ यह घोषणा की गई थी कि:___ "पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्यने 'बृहत् स्वयम्भूस्तोत्र' का, पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीने 'युक्त्यनुशासन' का, पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने 'जिनशतक' नामकी स्तुतिविद्याका और न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने 'देवागम' नामक प्राप्तमीमांसाका अनुवाद करना सहर्ष स्वीकार किया है-कई विद्वानोंने अपना अनुवादकार्य प्रारम्भ भी कर दिया है। अबशिष्ट 'रत्नकरण्डक' नामक उपासकाध्ययनका अनुवाद मेरे हिस्से में रहा हैं, प्रस्तावना तथा जीवन-चरित्र लिखनेका भार भी मेरे ही भर रहेगा, जिसमें मेरे लिये अनुवादकों तथा दूसरे विद्वानोंका सहयोग भी वांछनीय होगा।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org