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स्तुतिविद्या पं० वंशीधरजीने अनुवाद-कार्य प्रारम्भ जरूर किया था। और उसका कुछ नमूना मुझे देखने आदिके लिये भेजा भी था। पं० फूलचन्द्रजी और पं० महेन्द्रकुमारजीने अपना-अपना अनुवादकार्य प्रारम्भ किया या कि नहीं, यह मुझे कुछ मालुम नहीं हो सका, परन्तु ये तीनों ही विद्वान अपनी-अपनी कुछ परिस्थितियोंके वश नियत अनुवादको प्रस्तुत करके देने में समर्थ नहीं हो सके, जिसका मुझे बड़ा अफसास रहा। और इस लिये 'रत्नकरण्डक' का अनुवाद समाप्त करने के कुछ अर्से बाद मैंने स्वयम्भूस्तोत्र के अनुवाद को स्वयं अपने हाथमें लिया
और प्रतिज्ञाबद्ध होकर नियमसे उसका कुछ-न-कुछ कार्य प्रतिदिन करता ही रहा। साथ ही उसे अनेकान्तमें 'समन्तभद्रभारतीके कुछ नमूने' शीर्षकके नीचे प्रकाशित करना भी प्रारम्भ करदिया, जिससे कहीं कुछ भूल हो तो वह सुधरजाय । उसकी समाप्तिके बाद 'युक्त्यनुशासन' के अनुवाद को भी हाथमें लिया गया । यह अनुवाद अभी एक तिहाईके करीब ही हो पाया था कि कानपुरमें दि० जैनपरिषद्के अधिवेशनपर अपने बाक्सके चोरी चले जानेपर वह भी साथमें चला गया ! उसके इस प्रकार चोरी चले जानेपर चिचको बहुत श्राघात पहुँचा और फिर अर्से तक उस अनुवाद कार्य में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकी। आखिर अपनी एक वर्षगांठके अवसर पर उस अनुवाद की भी प्रतिज्ञा लोगई और तबसे वह नियमित रूपसे बराबर होता रहा तथा समाप्त हो गया । उसे भी अनेकान्तमें प्रकाशित किया जाता रहा है। इस तरह मेरे द्वारा तीन ग्रन्थोंका अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। 'देवागम' का अनुवाद भी अब मुझे ही करना है; क्योंकि इस बीचमें एक दूसरे विद्वानको भी उसका अनुवाद दिया गया था परन्तु कई वर्ष हो जाने पर भी वे उसे करके नहीं दे सके; तब उसका भी अनुवाद स्वयं ही करनेका
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