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समन्तभन्द्र-मारती
प्रमस्य भास्वत: प्रकाशयतः गोव्रात: वचनकदम्बक: नापि कस्यचित्तम न ताप्यति तापि व्यतिरेकः । काल: समयः मुहूर्तादिः । अविकलग अप्रतिहतः । अन्यत्र विकलगः प्रतिहतः । अघातः प्रतिपक्षरूपैर्धा नास्ति । अन्यत्र मेघादिभिरस्त्येव । समयोऽपि दर्शनमपि । अस्य भट्टी कस्य भास्वतः सन् । एवंभूत एव अघात: अविकलगः नान्यत्र । एवं दुक्तं भवति-भास्वतः गोत्रातः एवंभूतः कालः समयश्च नादित्यस्य अतस्त्वं चन्द्रप्रभः अभूः कुमण्ले इति सम्बन्धः ॥३४॥
अर्थ हे भगवन् ! सूर्यकी किरणोंका समूह दु। उलूकके लिये अन्धकार रूप परिणत होता है तथा सबक सन्ताप करने वाला होता है परन्तु हमेशा प्रकाशमान रहने वाला आपकी किरणों अथवा वचनोंका समूह । तो किसीको अन्धकाररूप होता है और न किसीको सन्ता देनेवाला होता है-आपके वचनोंसे सबका अज्ञान अथव मोहरूप अन्धकार नष्ट हो जाता और सबको आनम होता है। सूर्यका काल रात्रिसे व्यवहित है परन्तु आपका कार अव्यवहित है-आप दिन-रात हर समय-प्रकाशमान रहते हैं। सूर्यके समयका मेघ आदि प्रतिपक्षी पदार्थोंसे घाम हो जाता है. मेघ वृक्ष आदि पदार्थ सूर्य तथा उसके प्रकाशक ढक लेते हैं परन्तु आपके समयका सिद्धान्त ( दर्शन ) का घार संसारके अन्य किन्हीं भी प्रतिवादियोंद्वारा नहीं हो सकता
आपका स्याद्वाद सिद्धान्त अजेय है। सूर्य दिनमें भास्वत्प्रकाशमान रहता है परन्तु आप सदा प्रकाशमान रहते हैं अतएव हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! आप सूर्य से भी अधिक शोभाय मान हैं। ___ यहां व्यतिरेका लंकार है। 'गो' और 'समय' शब्दक श्लेष उसकी शोभा बढ़ा रहा है ॥३४॥
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