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________________ स्तुतिविद्या ( मुरजः ) लोकत्रय महामेय कमलाकर भास्वते । एक प्रियसहायाय नम एकस्वभाव ते ||३५|| लोकत्रयेति - लोकत्रयमेव महामेयं वस्तु लोकत्रयमहामेयम्, कमलानां पद्मानां श्राकरः कमलाकरः नलिनीवनम् | 'लोकत्रयमहामेयमेव कमलाकरः लोकत्रयमहामेयकमलाकरः तस्य भास्वान् रविः लोकश्रयमहामेयकमलाकर भास्वान् तस्मै लोकत्रयमहामेयकमलाकर भास्वते । एक: प्रधानः । प्रियः इष्टः । सहायः बन्धुः । प्रियश्चासौ सहायश्च प्रियसहायः एकश्चासौ प्रियसहायश्च एकप्रियसहायः तस्मै एकप्रियस हावाय । नमः श्रव्युत्पन्नो कि संज्ञकः पूजावचनः अस्य योगे अप् । एकस्वभाव एकस्वरूप । ते तुभ्यम् । किमुक्त भवति – चन्द्रप्रभ इत्यनुवर्त्तते हे चन्द्रप्रभ एकस्वभाव. तुभ्यं नमः एवं विशिष्टाय ॥३५॥ - --- अर्थ- सदा एक रूप रहनेवाले हे चन्द्रप्रम जिनेन्द्र ! आप ऊर्ध्व-मध्य- पाताल लोकरूप विशाल - अपरिमित – कमलवनको विकसित करनेके लिये सूर्य हैं तथा सबके प्रधान और प्रियबन्धु श्रतः श्रपको नमस्कार हो । भवार्थ - यद्यपि संसारके अन्य महापुरुष साधारण प्राणियोंकी अपेक्षा उच्च पदको प्राप्त हुए हैं परन्तु उनका वह पद सत्कर्मोदयजनित होने से कालान्तर में अवश्य ही नष्ट हो जाता है अतः उन्हें एक स्वभाव नहीं कहा जा सकता । परन्तु जिनेन्द्रदेवने जिस उत्कृष्ट पदको प्राप्त किया है उसका कर्मक्षयजनित होने से कालान्तर में कभी नाश नहीं होता अतः आचार्य समन्तभद्रने उन्हें एकस्वभाव कहा है | ||३५|| ( श्रद्ध भ्रममूढद्वितीयपादः ) चारुश्रीशुभदौ नौमि रुचा वृद्धौ प्रपावनौ । श्रीवद्धातौ शिवौ पादौ शुद्धौ तव शशिप्रभ ||३६|| Jain Education International For Private & Personal Use Only ४५ www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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