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स्तुतिविद्या
अर्थ-एकान्तवादरूप समस्त असत्य को नष्ट करनेवाले ! सर्वश्रेष्ठ ! हे अनन्तनाथ जिनेन्द्र ! सिद्धपरमेष्ठीकी स्तुति करनेसे जिनके मुख पूज्य गिनेजाते हैं और जो आपके चरणोंमें नम्र रहते हैं ऐसे इन्द्र चक्रवर्ती आदि समस्त नायक-प्रधान पुरुष-भी मोक्षप्राप्तिके लिये विना किसी क्लेशके-सहज स्वभावसे प्रेरित होकर-आपको नमस्कार करते हैं। . भावार्थ-यद्यपि यह विरुद्ध बात है कि जो स्वयं नायक होगा वह अन्यको प्रणाम कैसे करेगा ? और अन्यको प्रणाम करेगा तो वह नायक कैसे होगा ? परन्तु आपको संसारके अन्य समस्त नायक नमस्कार करते हैं; क्योंकि आप ही उन सबमें श्रेष्ठ है और उस श्रेष्ठताका कारण यही है कि आपको नमस्कार करनेसे मोक्षप्राप्त होता है ॥५॥
धर्म-जिन-स्तुतिः (गूढद्वितीयचतुर्थान्यतरपादोऽद्ध भ्रमः' ) त्वमवाध दमेनर्द्ध मत धर्मप्र गोधन । वाधस्वाशमनागो मे धर्म शर्मतमप्रद ॥५६॥ त्वमेति-- त्वं युष्मदो रूपम् । न विद्यते वाधा यस्यासाववाधः तस्य सम्बोधनं हे अवाध । दमेन उत्तमक्षमया ऋद वृद्ध । मत पूजित । धर्मप्र उत्तमक्षमादिना आप्यायकपूरण । गोधन गौर्वणी धनं यस्यासौ गोधनः तस्य सम्बोधन हे गोधन । वाधस्व विनाशय । अशं दुःखम् । अनागः निर्दोष । मे मम । धर्म पञ्चदशतीर्थकर । शर्म सुखम् । सर्वाणि
१ यहां द्वितीय अथवा चतुर्थ पादमेंसे कोई एक पाद अन्य पादोंके अक्षरों में गुप्त है। इसके सिवाय यह अर्धभ्रम भी है ।
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