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________________ समन्तभद्र-भारती -rwww.rrrrrrrrm अर्थ-समृद्धि-सम्पन्न, अनन्त ऋद्धियोंसे सहित अन्तरहित हे अभिनन्दन स्वामिन् ! आपको नमस्कार का वाला पुरुष ( आपके ही समान सबका ) ईश्वर हो जाता है। बड़ी बड़ी ऋद्धियोंके धारी हैं वे आपके विषयमें अनम्र ना है-श्रापको अवश्य ही नमस्कार करते हैं और जो आप स्तुति कर नम्र हुए हैं वे कभी नष्ट नहीं होते-अवश्य ही अपि नाशी मोक्षपदको प्राप्त होते हैं। . भावार्थ-जो सच्चे हृदयसे भगवान्को नमस्कार करते। वे अनेक बड़ी ऋद्धियोंको प्राप्त होते हैं और अन्तमें को क्षय कर अविनाशी मोक्ष-पद पा लेते हैं। इसलिए प्राचार्य ठीक ही कहा है कि आपको नमस्कार करनेवाले पुरुष आप ही समान संसारके ईश्वर हो जाते हैं ॥२२॥ (गर्भे महादिशि चैकाक्षरचक्रश्लोकः ) नन्दनश्रीर्जिन त्वान' नत्या' नर्द्धया स्वनन्दि न । नन्दिनस्ते विनन्ता न' नन्तानऽन्तोभिनन्दन ॥२३॥ नन्दनेति-नन्दना चासो श्रीश्च नन्दनश्रीः पुरुषो वा । हे जिन स्वा युष्मदः इबन्तस्य प्रयोगः । न न नत्वा किन्तु नत्वैव । द्ध्य विभूत्या सह स्वनन्दि, क्रियाविशेणम् । स्वन्दि यथा भवति तथा स्वहां यथा भवति । नन्दिनः समृद्धिमतः । ते तव । विनन्ता च विशेषनन्ता न न नन्ता स्तोता । अनन्तः अविनश्वरः सिद्धः सम्पद्यते यतः । अभिनन्दन । किमुक्त भवति-हे अभिनन्दन जिन नन्दिनरते नन्दनश्री सनात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ भूतैर्गुणेभुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः तुल्या भवन्ति भदतो ननु तेन किंवा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति। -भक्तामरस्त्रोत्रे मानतुगः 1.1, २-२ द्वौ ना शब्दौ प्रकृतार्थस्य दाढ्यं सूचयतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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