________________
सुतिविण विल्बम् । घटत एव सर्व यतश्च विरुदालंकृतिरियम् । किमुक भवतिअनेन ब्याजेन माहात्म्यं प्रदास्य स्ववनं कृतं भवति ॥ ४॥
अर्थ-इन सर्वज्ञ वासुपूज्य स्वामीके चरणकमलोंमें नम. स्कार करनेवाला पुरुष निश्चयसे पुण्यवान् और उच्च होता हुश्रा अत्यन्त शोभायमान होता है। इनका शरीर यद्यपि एक मुखवाला है तथापि उसमें चारों ओरसे मुख दिखाई देते हैंवह चतुर्मुख है तथा छाया-कान्ति से ( पक्षमें परछाई से) रहित होकर भी अत्यन्त शोभायमान होता था। - भावार्थ-इस श्लोक में विरोधाभास अलंकार है- 'जो चरणों में नम्र होता है वह उच्च नहीं होता और जो उच्च होता है वह किसी के चरणों में नम्र नहीं होता'--यह लोकगतविरुद्ध बात है, परन्तु भगवान् वासुपूज्य लोकोत्तर पुरुष हैं उनमें लोकगत विरोध स्थान नहीं पा सकता-उनके चरणोंमें नमस्कार करनेवाला पुरुष निश्चित ही सातिशय पुण्य बन्धकर उच्च पद पाता है। _ 'जिसके एक मुख होगा वह सामनेसे ही दिखाई देगा-चारों ओर से नहीं, परन्तु भगवान् वासुपूज्यके एकमुख होकर भी सब ओरसे दिखाई देता था यह विरुद्ध बात हैं परन्तु यह विरोध भी उनमें लागू नहीं होता क्योंकि केवलज्ञानके काल में होनेवाले अतिश्यविशेषसे उनका मुख चारों ओरसे दिखाई देता है।
'जो शरीर छायासे रहित होता है वह शोभित नहीं होता, परन्तु भगवान् वासुपूज्य का शरीर छायासे रहित होकर भी अत्यन्त शोभायमान होता था'--यह विरुद्ध बात है परन्तु उसका परिहार निम्न प्रकार है--यहां छाया शब्द के दो अर्थ हैं- कान्ति' और प्रतिबिम्ब । उनमें प्रथम कान्ति अर्थसे विरोध पाता है और द्वितीय प्रतिबिम्ब अर्थसे उसका परिहार
२ 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनावा हत्यमरः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org