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समन्तभद्र भारती
होजाता है। भगवानके शरीर की परछाई नहीं पड़ती फिर में वह कान्तिसे अत्यन्त सुन्दर होता है।। ४६ ॥
विमल-जिन-स्तुति.
(इष्टपादमुरजबन्धः) 'क्रमतामक्रमं क्षेमं धीमतामय॑मश्रमम् ।
श्रीमद्विमलमर्चेमं वामकामं नम क्षमम् ॥५०॥ क्रमेति-क्रमतां अप्रतिबन्धेन व्रजतु । व्रजतां वा । अक्रम युगपत् । क्षेमं कुशलं सुखम् । धीमता बुद्धिमताम् । कर्तरि ता। अध्ये पूज्यम् । अश्रमं श्रमरहितं अक्लेशम् । श्रीमांश्चासौ विमलश्च श्रीम द्विमलः अतस्तं श्रीमद्विमलं परमतीर्थकरं त्रयोदशम् । अर्च क्रियापई जोडन्तम् । इमं प्रत्यक्षवचनम् । वामः प्रधानः काम्यते इष्यते हात वामकामः अतस्तं वामकामम् । नम च चशब्दोऽनुक्तो दृष्टव्यः । क्षमं समर्थ क्रोधादिरहितमित्यर्थः । एतदुक्तं भवति-श्री द्विमलं सर्वविशेषणविशिष्टं श्रर्च नम च धीमतामय॑ क्षेमं क्रमा अक्रम सर्वेषां प्रणामादेव शान्तिर्भवति ॥ १० ॥ __ अर्थ-हे भव्यजनो ! जो एक साथ सब पदार्थोंको जानते हैं, मंगलरूप हैं, बुद्धिमानोंके पूज्य हैं, खेदरहित हैं, अनन्त शक्तिसे सहित हैं और इन्द्र चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुष जिनकी सेवा करने की इच्छा करते हैं ऐसे अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मीसे सहित इन विमलनाथ तीर्थ करको पूजो तथा नमस्कार करो और उसके फलस्वरूप तत्तण उस कुशल अथवा सुखको विना किसी रुकावट के प्राप्त करो जो कि बुद्धिमानोंक द्वारा पूज्य है, परिश्रमसे रहित है और बड़े बड़े पुरुष जिसकी निरन्तर चाह रखते हैं।
, लोढन्तप्रयोग: 'वृत्तिसर्गतापनेषु क्रमः' (१।३।३८ अष्टाध्यायी) इत्यात्मनेपदम् । वृत्तिरप्रतिबन्धः ।
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