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स्तुतिविद्या
अर्थ- हे परिग्रहरहित भगवन् ! यद्यपि समस्तपतिभावसर्वस्वामित्व आपमें और सूर्य में समानरूपसे प्रकाशमान हैजिस तरह आप समस्त जगत् के स्वामी हैं उसीतरह सूर्य भी समस्त जगत्का स्वामी है, फिर भी आप सूर्यके स्वरूपसे संगत नहीं हैं - सूर्य आपको बराबरी नहीं कर सकता । क्योंकि आपने अपने कर्मशत्रुओं को सर्वथा नष्ट कर दिया है इस लिये आप अहीनभावेन संगत - उत्कृष्टतासे सहित - हैं । परन्तु सूर्य के अन्धकार आदि शत्रु अब भी विद्यमान हैं - गुफा आदि तिरोहित स्थानों तथा रात्रि में अब भी अन्धकार रहा आता है। इसलिये वह 'हीनभावेन संगतः - श्रनुत्कृष्टतासे संगत है। सूर्य ज्योतिष्क- देवों में सबसे उत्कृष्ट-इन्द्र नहीं किन्तु प्रतीन्द्र है, इसलिये आप समस्त पतिभावकी अपेक्षा 'इनभावेन संगत:'सूर्य के समान होने पर भी शत्रु, सद्भाव तथा हीनभावकी अपेक्षा उसके समान नहीं हैं ।
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भावार्थ - कई लोग कहा करते हैं कि समवसरण में विराज मान जिनेन्द्रदेवको प्रभा कोटिसूर्य के समान होती है परन्तु आचार्य समन्तभद्रको उनका वह कहना पसन्द नहीं आय। इसलिये उन्होंने उक्त व्यतिरेकसे सूर्य और भगवान् शान्ति नाथमें वैसादृश्य सिद्ध करनेका सफल प्रयत्न किया है ||७२|| ( मुरजबन्धः )
नयसत्त्वत्त' वः सर्वे गव्यन्ये चाप्यसंगताः ।
श्रियस्ते त्वयुवन् सर्वे दिव्यर्द्धया चावसंभृताः ॥७३॥
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नयेति - नया: नैगमादयः । सत्वाः अहि-नकुलादयः । ऋतवः प्रावृट् प्रभृतयः । नयाश्च सत्वाश्च ऋतवश्च मयस्वचवः एते सर्वे परस्परं विरुद्धा | सर्वे समस्ताः । गवि पृथिव्याम् । न केवलमेते किन्तु श्रन्ये चापि ये विरुद्धा: असंगताः परस्परवैरिणः । श्रियः माहात्म्यात् । ते
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