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समन्तभद्र-भारती •.new. ... ... ... ......... ~ aamrwwwwwwwwwwwwwwwwwwwxi तव । तु प्रत्यर्थे । अयुवन् संगच्छन्ते स्म । यु मिश्रणे इत्यस्य धोः लङ्न्तस्य रूपम् । सर्वे विश्वे । दिव्या च दिवि स्वर्गे भवा दिव्या, दिव्या चासौ ऋद्धिश्च दिव्यद्धिः तय दिव्यद्ध देवकृतव्यापारणेत्यर्थः । अवसंभृताः निष्पादिताः कृता इत्यर्थः । किमुक्तं भवति-हे शान्तिनाथ ते श्रियः तव माहात्म्यात् गवि पृथिव्यां नयसत्त्वत्तवः सर्वे अन्ये चाप्यसंगताः एते सर्वे प्रत्यर्थ अयुवन् संगतीभूताः केचन पुनर्दिव्याय च अवसंभृताः संगतीकृताः एतदेव तव माहात्म्यम् नान्यस्य ॥७३॥ .
अर्थ-हे प्रभो द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अथवा नैगमाविक नय, नेवला सर्प आदि प्राणी और वसन्त ग्रीष्म आदि ऋत. ये सब तथा इनके सिवाय और भी जो पृथिवीपर परस्पर विरोध, पदार्थ हैं-परस्परमें कभी नहीं मिलते वे सब आपके प्रभावसे-माहा. म्यसे--एक साथ संगत होगये थे-आपसके विरोधको भूल कर मिल गये थे। तथा कितने ही अन्य कार्य देवोंकी ऋद्धिसे निष्पन्न किये गये थे। ____भावार्थ-द्रव्यार्थिक नय जिस वस्तुको नित्य बतलाता है पयोयार्थिक नय उसी वस्तु को अनित्य बतलाता है । व्यवहार नय जिन कार्योंको धर्म बतलाकर उपादेय कहता है निश्चय नय उन्हीं कार्योंको अधर्म-आस्रवका कारण बतलाकर हेय कहता है। इस प्रकार नयोंमें परस्पर विरोध रहता है परन्तु नयोंका यह विरोध उन्हींके पास रहता है जो कि एकान्तवादी हैं-एक नयको ही सब कुछ मानते हैं । जिनेन्द्रदेव स्याद्वादनयके प्ररूपक हैं वे विवक्षासे सब नयोंको मानते हैं इसलिये उनके सामने नयों का विरोध दूर हो जाता है और वे मित्रकी तरह परस्परमें सापेक्ष रहकर संसारके कल्याणकारक पदार्थ होजाते हैं।'
१ नित्यं तदेवेदमितिप्रतीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्ध। ___ न तद्विरुद्ध बहिरन्तरङ्गनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते "
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