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________________ समन्तभद्र-मारती निर्मलः अत्यन्तः अपर्यन्तः गम्भीरः भगाधः यः सः विमलात्यन्तगम्भीर अतस्तं विमलात्यन्तगम्भीरम् । जिन एव अमृतमहोदधिःक्षीरसमुद्र जिनामृतमहोदधिः प्रतस्तं जिनामृतमहोदधिम् । एतदुक्तं भवति-यत एवंभूतः शीतलभट्टारकः ततस्तं शीतलं जिनामृतमहोनिधिं विमल अत्यन्तगम्भीरं हे जना एत्य गत्वा स्नात कामम् ॥४२॥ अर्थ - हे भव्यजीवो ! तुम उस जिनेन्द्ररूपी क्षीरसमुद्रको प्राप्त कर यथेष्ट स्नान करो-कममलको धोकर अपने आपको पवित्र बनाओ-जो कि तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ है, उत्सव अथवा तेजका स्थान है, विमल है-कर्ममल और कर्दम आदिसे रहित है, अत्यन्त है- विनाश-रहित और पार-रहित है, तथा गम्भीर है-धीरवीर और गहरा है।। ___ भावार्थ-इस श्लोक में रूपकालंकारसे जिनेन्द्रदेव और क्षीर समुद्र में अभेद किया गया है। इसके जो विशेषण दिये गये हैं वे प्रायः श्लेषमय होनेसे दोनोंके-जिनेन्द्र और क्षीरसमुद्र के-पक्ष में ठीक ठीक बैठ जाते हैं। यथा-जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव तीनों लोकोंमें सारभूत हैं उसी तरह क्षीरसमुद्र भी सारभूत है जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार अनन्त ज्ञान, अनन्त पराक्रम आदि तेजके भण्डार हैं उसो तरह क्षीरसमुद्र भी देवकत अनेक उत्सवोंका भण्डार है । जिनेन्द्रदेव जिस तरह कर्ममलसे रहित होनेके कारण विमल हैं उसी तरह क्षीरसमुद्र भी कर्दम शैवाल आदि मलके न होनेसे विमल है। जिस तरह जिनेन्द्र देव अन्तसे रहित हैं उसी तरह क्षीरसमुद्र भी अन्तसे-पारसे रहित है-त्रात्यन्त विस्तृत है। और जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार गम्भीर हैं--रागद्वेषसे रहित होनेके कारण धीरवीर हैं-उसी तरह क्षीरसमुद्र भी गंभीर हैं-गहरा है। इस जिनेन्द्र रूपी भव्य क्षीरसमुद्र में स्नान करनेसे--भक्तिपूर्वक उनका ध्यान करनेसे-सब कर्ममल नष्ट हो जाते हैं । इसीलिये आचार्यने भव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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