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स्तुतिविद्या
हुए उनका उदयको प्राप्त होना अंकित किया है । उनको 'अर्हद्भक्ति' बहुत बढ़ी चढ़ी थी और बड़े ही उच्चकोटिके विकासको लिये हुए थी । उसमें अन्धश्रद्धा अथवा अन्ध विश्वासको स्थान नहीं था-गुणज्ञता, गुणप्रीति और हृदयकी सरलता ही उसका एक आधार थी. और इसलिये वह एक दम शुद्ध तथा निर्दोष थी। अपनी इस शुद्ध भक्तिके प्रतापसे ही समन्तभद्र इतने अधिक प्रतापी, तेजस्वी तथा पुण्याधिकारी हुए मालूम होते हैं। उन्होंने स्वयं भी इस बात का अनुभव किया था, और इसी लिये वे प्रस्तुत ग्रन्थमें लिखते हैं
सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चाऽपि ते हस्तावंजलये कथा-श्रुति-रतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरोनतिपरं सेवेदृशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥११४॥
'हे वीर भगवन् ! आपके मतमें अथवा आपके विषय में मेरी सुश्रद्धा है-अन्धश्रद्धा नहीं, मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए हैं - सदा आपका ही स्मरण किया करती है, मैं पूजन भी आपका ही करता हूं, मेरे हाथ आपको ही प्रणामाअलि करनेके निमित्त हैं,मेरे कान आपको ही गुण-कथाको सुनने में लीन रहते हैं,मेरा आंखें आपके ही सुन्दर रूपको देखा क ती हैं, मुझे जो व्यसन है वह भी आपकी ही सुन्दरस्तुतियोंके रचने का है और मेरा मस्तक भी आपको ही प्रणाम करनेमें तत्पर रहता है। इस प्रकारकी चूकि मेरी सेवा है-मैं निरन्तर ही
आपका इस तरह अाराधन किया करता हूँ-इसी लिये हे तेज:पते ! ( केवलज्ञानस्वामिन् !) मैं तेजस्वी हूं, सुजन हूँ, और सुकती (पुण्यवान् ) हूँ। .
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