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स्तुतिविद्या
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प्रथमाक्षरं द्वितीयपंक्ते द्वितीयाक्षरेण सह, द्वितीयपंक्तेः प्रथमाचरं प्रथमपंक्ते द्वितीयाक्षरेण सह एवमुभयपंक्स्यक्षरेषु सर्वेषु संयोज्यम् । एवं सर्वेऽपि मुरजबन्धा दृष्टव्याः । रखना चाहिये। यह सामान्य 'मुरजबंध' का लक्षण है । यह अलंकार इस स्तुतिविद्याके २, ६, ७, ८, ९, २६, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ४०,४१, ४२, ४१, ४६, १८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६५, ६०, ६८, ६६, ७०, ७१, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८, ८०, ८२, १६, १०१, १०२, १०३, १०४, और १०५ नम्बरके पद्यों में भी है। इस मुरजबन्ध का चित्र परिशिष्ट में देखिये । 'मुरजबन्ध' की रचना मुरज. ( मृदङ्ग ) के श्राकार हो जाती है, इस लिए इसका यह नाम सार्थक है। __ यह अलंकार 'अनन्तरपाद मुरज' 'इष्टपादमुरज' आदिके भेदसे कई तरहका होता है। 'अनन्तरपादमुरज' प्रथम-द्वितीय और तृतीयचतुर्थ पादमें होता है। यह भेद इस पुस्तकके ४८, ६४, ६६, और १०० नम्बरके श्लोकोंमें है। इन श्लोकोंके चारों चरणोंको नीचे-नीचे फैलाकर लिखना चाहिये । चित्र परिशिष्ट में देखिये । 'इष्टपादमुरज' में चारों पादोंका अपनी इच्छानुसार सम्बन्ध जोड़ा जाता है । यह भेद इस पुस्तकके ५०, ८६, और ११ नम्बरके श्लोकों में है। इसके भी चारों चरणोंको नीचे-नीचे फैलाकर लिखना चाहिये । यह अलंकार कई जगह मुप्तक्रिया, गुप्तकर्म, निरौष्ठ्यव्यञ्जनचित्र, गोमूत्रिका, पद्मबन्ध तथा यमक प्रादिके साथ भी आता है । वहाँ दो शब्दालङ्कारोंकी तिलतण्डुलवत् निरपेक्ष संसृष्टि समझना चाहिये । अलङ्कारचिन्तामणि में मुरजबन्ध बनानेका एक प्रकार और भी लिखा है जो कि इस पुस्तकके ६ नम्बरके श्लोकमें अपनाया गया है । वह यह है__ श्लोकके चारों पदोंको नीचे-नीचे लिखकर प्रथम पादके प्रथम अक्षर को तृतीय पादके द्वितीय अक्षरके साथ और तृतीय पादके प्रथम प्रहरको प्रथम पादके द्वितीय अक्षरके साथ मिलाकर पढ़ना चाहिये। यह क्रम पादकी समाप्ति पर्यन्त जारी रहता है । फिर द्वितीय पादके
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