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समन्तभद्र-भारती - यमेति-यमराज प्रतस्वामिन् । यमैः राजते शोभते इति । विननाः विनमनशीलाः इनाः इन्द्रादियो यस्यासी विनम्ननः । सम्बोधनं विनम्रन । रुजोनाशन व्याधिविनाशक । भो 'विभो स्वामिन् । तनु कुरु विस्तारय वा । चारुरुचामीश शोभनदीप्तीनां प्रभो शमेव सुखमेव । प्रारक्ष पालय । मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् । म अविनाश । समुदायार्थ:-हे अर यमराज विनम्र न रुजोनाशन भो कि चारुरुचामीश शोभनदीप्तानां प्रभो अचर शमेव तनु मा अारक्ष । सु। मत्यर्थं कुरु मां पालयेत्यर्थः ॥ ८७ ॥
अर्थ-हे प्रभो! आप व्रतोंके स्वामी हैं अथवा व्रता शोभायमान हैं,इन्द्र-अहमिन्द्र आदि भी आपको नमस्कार कर हैं, आप समस्त रोगोंको नष्ट करने वाले हैं, उत्तम शोभा स्वामी हैं और अविनाशी हैं। हे नाथ ! मोक्ष सुखको विस्त कीजिये और मेरी रक्षा कीजिये।
विशेष-यह श्लेक श्लेषालंकारसे सूर्यपक्षमें लग सका | है। यथा-'हे शनिग्रहरूप स्वपुत्रसे शोभायमान ! हे आका नम्र-गगनसंचारिन् ! हे रोगापहारिन् ! हे गगनैकनाथ हे अखिल व्यवहारके देनेवाले ! हे सुन्दरकिरणोंके नायक ! अरनाथरूपी सूर्य ! सुखको विस्तृत करो और मुझे दुःखों बचाओ।* ॥७॥ जाता है। अर्थ भी उससे विभिन्न रहता है। और इस श्लोक उलट कर पढ़नेसे ८६ वाँ श्कलोक बनजाता है, इसीसे यह तथा । नम्बरका श्लोक अनुलोम-प्रतिलक कहलाता है।
ॐ सूर्य-पचमें संस्कृत टीका निम्न प्रकार होगी:
हे इन हे सूर्य ! 'इनः पत्यौ नृपे सूर्ये,' इति विश्वलोचनः । अन्या सम्बोधनान्यस्यैव विशेषणानि । तथाहि-हे रुजोनाश । हे म्या
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