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परिशिष्ट
(५) चकश्लोकः वरगौरतनुन्देव वन्दे नु त्वाक्षयाजव। वर्जयात्तिं त्वमार्याव वर्यामानोरुगौरव ॥२६॥
त्वा
एवं ५३, १४ श्लोको यह श्लोकके प्रथमाक्षरको गर्भमें रखकर बनाया हुआ चार प्रारोंवाला चक्रवृत्त है। इसके प्रथमादि कोई कोई अक्षर चक्र में एक बार लिखे जाकर भी अनेक वार पढ़ने में आते हैं। ५३, १४ नम्बरके श्लोक भी ऐसे ही चक्रवृत्त हैं।
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