________________
१४०
समन्तभद्र-भारती
श्रमन्तस्य रूपम् । मुदा हर्षेण । दातारो दानशीलाः । जयोस्ति येषां ते जयिनः । भवन्तु सन्तु । वरं ददत इति वरदाः स्वेष्टदायिनः । देवानां सुराणां ईश्वराः स्वामिनः देवेश्वराः । ते तदो जसन्तस्य रूपम् | सदा सर्वकालम् । एतदुकं भवति - येषां स्तवः जन्मारण्यशिखी भवति, येषां स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेश्च नौ भवति, येषां च पदे भक्तानां परमौ निधी येषां च प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा, येषां नन्तुमुदा वन्दीभूततोपि नोन्नतिहतिः, ते देवेश्वरा: दातारः जयिनः वरदाः भवन्तु सदा सर्वकालम् ॥११५॥
भवतः,
अर्थ - जिनका स्तवन संसाररूप अटवीको नष्ट करनेके लिये अग्नि के समान है, जिनका स्मरण दुःखरूप समुद्रसे पार होनेके लिये नौका के समान है, जिनके चरण भक्त पुरूषोंके लिये उत्कृष्ट निधान- खजाने के समान हैं, जिनकी श्रेष्ठ प्रतिकृतिप्रतिमा की सिद्धि करने वाली है और जिन्हें हर्षपूर्वक प्रणाम करनेवाले एवं जिनका मङ्गलगान करनेवाले - नग्नाचार्यरूपसे (पक्ष में स्तुतिपाठक - चारण - रूप से) रहते हुए भी मुझ - समन्तभद्रकी उन्नति में कुछ बाधा नहीं होती वे देवोंके देव जिनेन्द्र भगवान् दानशील, कर्मशत्रु पर विजय पानेवाले और सबके मनोरथों को पूर्ण करनेवाले हों ।
Manag
भावार्थ - यहां पूर्वार्ध के दो चरणों में रूपकालंकार है परन्तु तृतीय चरण में विरोधालंकार प्रदर्शित किया गया है। वह इस प्रकार है - 'जो किसीका बन्दी स्तुतिपाठक या चारण होकर उसे नमस्कार तथा उसका गुणगान करता है वह लोक में बहुत ही अवनत कहलाता हैं परन्तु श्रीजिनेद्रदेवकी स्तुतिकरने- उनका बन्दी - चारण बननेपर भी आचार्य समन्तभद्रकी महत्ता नष्ट नहीं हुई, बल्कि सातिशय पुण्य बन्धकर उन्होंने पहले से भी अधिक उत्कृष्टताको प्राप्त किया ।' विरोधका परिहार यही है कि 'महापुरुषोंके संसर्गसे सब विरोध दूर हो जाते हैं ||११५ ||
Jain Education International
----
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org