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प्रस्तावना
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जिस परिणति और जिस भावमयी मूर्तिको प्रदर्शित किया है उससे आपकी यह कृति मुनि-अवस्थाकी ही मालूम होती है। गृहस्थाश्रममें रहते हुए और राज-काज करते हुए इस प्रकारकी महापाण्डित्यपूर्ण और महदुच्चभावसम्पन्न मौलिक रचनाएँ नहीं बन सकतीं। इस विषयका निर्णय करनेके लिये संपूर्ण प्रन्थको गौरके साथ पढ़ते हुए, पद्य नं० १६, ७६, और ११४ को खास तौरसे ध्यानमें लाना चाहये। १६वें पद्यसे ही यह मालूम हो जाता है कि स्वामी संसारसे भयभीत होनेपर शरीरको लेकर (अन्य समस्त परिग्रहको छोड़कर) वीतराग भगवानकी शरणमें प्राप्त हो चुके थे और आपका आचार उस समय ( ग्रन्थरचनाके समय ) पवित्र, श्रेष्ठ तथा गणधरादि-अनुष्ठित प्राचार-जैसा उत्कृष्ट अथवा निर्दोष था। वह पद्य इस प्रकार है
पत-स्वनवमाचारं तन्वायातं भयाद्रुचा ।
स्वया वामेश पाया मा नतमेकायं शंभव ।। इस पद्यमें समन्तभद्रने जिस प्रकार 'पूतस्वनवमाचारं ' और 'भयात तन्वायातंये अपने ( मा=मां पदके) दो. खास विशेषण-पद दिये हैं उसी प्रकार ७६ वें पद्यमें उन्होंने 'ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसं. विशेषणके द्वारा अपनेको उल्लेखित किया है । इस विशेषणसे मालूम होता है कि समन्तभद्रके मनसे यद्यपि त्रास-उद्वेग बिल्कुल नष्ट ( अस्त ) नहीं
१ "पूतः पवित्रः सुसष्ठ अनवमः गणधराधनुष्टितः, प्राचारः पापक्रिया-निवृत्तिर्यस्यासौ पूतस्वनवमाचारः अतस्तं पूतस्वनवमाचारं" इति टीका
२"भयात् संसारभीतेः । तन्वा शरीरेण (सह) आयातं आगतं ।।इति टीका
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