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स्तुशिविद्या हुआ था-सत्तामें कुछ मौजूद जरूर था-फिर भी वह ध्वंसमानके समान हो गया था और इस लिये उनके चित्तको उद्घोजित अथवा सत्रस्त करनेके लिये समर्थ नहीं था। चित्तकी ऐसी स्थिति बहुत ऊंचे दर्जेपर जाकर होती है और इसलिये यह विशेषण भी समन्तभद्रके मुनिजीवनकी उत्कृष्ट स्थितिको सूचित करता है और यह बतलाता है कि इस ग्रन्थकी रचना उनके मुनिजीवनमें ही हुई है। ११४ वें पद्यकी भी ऐसी ही स्थिति है। उसमें समन्तभद्रने वीरजिनेन्द्रके प्रति अपनी जिस सेवा अथवा अहद्भक्तिका उल्लेख किया है वह गृहस्थावस्थामें प्राय: नहीं बनती। उसके 'सुस्तुत्यां व्यसनं' इस उन्लेखसे तो यह साफ जाना जाता है कि यह 'स्तुतिविद्या' ग्रन्थ उस समय बना है जब कि समन्तभद्र कितनी ही स्तुतियों-स्तुतिग्रन्थोंका निर्माण कर चुके थे और स्तुति- रचना उनका एक अच्छा व्यसन बन गया था। आश्चर्य नहीं जो देवागम (आप्तमी मांसा), युक्त्यनुशासन और स्वयम्भू नामके स्तोत्र इस ग्रन्थसे पहले ही बन चुके हों और ऐसी सुन्दर स्तुतियोंके कारण ही समन्तभद्र अपने स्तुति-व्यसनको 'सुस्तुति व्यसन' लिखनेके लिये समर्थ हो सके हों। ___टीकाकारने भी, प्रथम पद्यकी प्रस्तावनामें, 'श्रीसमन्तभद्राचार्य-विरचिता लिखनेके अतिरिक्त ८४ वें पद्यमें आए हुए 'ऋद्ध विशेषणका अर्थ 'वृद्ध करके, और ११५ वें पद्यके 'वन्दीभूतवतः' पदका अर्थ मंगलपाठकीभूतवतोऽपि नग्नाचार्यरूपेण भवतोऽपि ममा ऐसा देकर यही सूचित किया है कि यह अन्य समन्तभद्रके मुनिजीवनकी रचना है।
स्वामी समन्तभद्रका, उनकी कृतियोंसहित, विशेष परिचय
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