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समन्तभन्द्र-भारती
जाती है। इससे मालुम होता है कि यदि भगवान् स्वयं सम्प या सुशोभित न होते तो उनके आश्रय से सिंहासन सम्पन्न य सुशोभित कैसे होता ? तब इस प्रकार सोचनेसे तर्क प्रधा आचार्यको निर्णय हो जाता है कि वास्तव में भगवान् शान्तिनाएं अत्यन्त शोभायमान अथवा सम्पन्न पुरुष हैं। यह सिंहासन प्रतिहार्य का वर्णन है ||७४||
( मुरजबन्धः )
नागसे ते इनाजेय कामोद्यन्महिमार्द्दिने । जगत्त्रितयनाथाय नमो जन्मप्रमाथिने ॥७५॥
नागेति – नागसे' श्रविद्यमानापराधाय । नञ् प्रतिरूप कोयमन् नकारस्ततो नजो नित्यमनादेशो न भवति । ते तुभ्यम् । इन स्वामिन् अजेय अजय्य । उद्यती चासौ महिमा च उद्यन्महिमा कामस्य स्मरस्व उद्यन्महिमा तामई यति हिंसयतीत्येवंशीलः कामोद्यन्महिमाह तस्मै कामोद्य महिमार्दिने रागोद्रेकमाहात्म्यहिंसिने । जगत्रितयनाथाय जगता त्रितयं जगत् त्रितयस्य नाथः स्वामी जगत्रितयनाथः तस्मै जगत्रितय नाथाय त्रिभुवनाधिपतये नमः कि संज्ञकोयं शब्दः पूजावचनः । जन्म प्रमाथिने जन्म संसारः तत् प्रमथ्नाति विनाशयतीति जन्मप्रमाथी तस्मै जन्मप्रमाथिने जन्मविनाशिने । समुदायार्थ :- हे शान्तिनाथ इन अजेय से तुभ्यं नमः कथंभूताय तुभ्यं नागसे कामोद्यन्महिमार्द्दिने जगत्रितयनाथाय जन्मप्रमाथिने || १५ ॥
अर्थ- हे स्वामिन्! हे अजेय ! आप अपराध-रहित हैंनिष्पाप है, कामकी बढ़ती हुई महिमाको नष्ट करनेवाले हैं। तीनों लोकोंके स्वामी हैं और जन्ममरणरूप संसारको नष्ट करने वाले हैं, अतः हे शान्तिनाथ भगवन्! आपको नमस्कार हो ।।७४ १ आगः पापं, न विद्यते श्राग: यास्यासौ नागाः तस्मै नागसे ।
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