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समन्तभद्र-भारती
खगंभीरम् । न मिताः अमिताश्च ते गुणाश्च ते अमितगुणाः जिनस्यामित. गुणाः जिनामितगुणाः जिनामितगुणा एव अर्णवः समुद्रः अथवा जिन एव अमितगुणार्णवः जिनामितगुणार्णवस्तं । पूतः पवित्रः श्रीमान् श्रीयुक्तः जगतां सारो जगत्सारः पूतश्च श्रीमांश्च जगत्सारच पूतश्रीमज्जगत्सारः तं । जनाः लोकाः । यात इति क्रियापदं । या गतावित्यस्य धोः लोडंतस्य प्रयोगः । क्षणादचिरादचिरेणेत्यर्थः। शिवं शोभनं शिवरूपमित्यर्थः । किमुक्तं भवति--हे जना जिनामितगुणार्णवं यात, स्नात अथवा जिनामितगुणार्णवं स्नात येन क्षणाच्छिवं यात इति । शेषाणि पदानि जिनामितगुणार्णवस्य विशेषणानि ॥२॥
• अर्थहे भव्यजनो! जिनेन्द्रदेव का जो अपरिमित गुणसमुद्र है वह अत्यन्त निर्मल, गम्भीर, पवित्र, श्रीसम्पन्न और जगत्का सारभूत है। तुम उसमें स्नान करो-एकाग्र चित्त होकर उसमें अवगाहन करो, उसके गुणोंको पूर्णतया अप. नामो और ( फलस्वरूप ) शीघ्र ही शिवको-आत्मकल्याणको-प्राप्त करो।
भवार्थ- उक्त गुणविशिष्ट जिनगुणसमुद्र में भक्तिपूर्वक स्नान करनेसे-श्रद्धाके साथ जिनेन्द्र गुणोंको आत्मगुण समझकर अपनानेसे-शीघ्र ही आत्मकल्याण सधता है। इसीसे जिन गुणसमुद्र में स्नानकी सार्थक प्रेरणा की गई है ।।२।।
. ( अद्धभ्रमगूढपश्चाई:) धिया ये श्रितयेताा यानुपायान्वरानताः । येऽपापा यातपारा ये श्रियाऽऽयातानतन्वत ॥३॥
१ यहां अर्धभ्रम और गूढ़पश्चार्ध नामक चित्रालंकार है। उसका विवरण निम्न प्रकार है
श्लोकके चारों चरणोंको नीचे-नीचे फैलाकर लिखिये। चरों चरणोंके प्रथम और भन्तिम चार अक्षरोंके मिलानेसे श्लोकका पहला पाद बन
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