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स्तुतिविद्या
भूतं वा जिनपदाभ्याशं कामस्थानप्रदानेशं । फिमर्थ श्रागसां जये जयनिमित्तं । प्रसाधये इति च प्रपूर्वस्यसाध संसिद्धावित्यस्य धो: णिजलडंतस्य प्रयोगः ।।१॥
अर्थ-कामस्थानको-इष्टस्थान ( मोक्ष )को इन्द्रियसुखके स्थान स्वर्गादिकको, इन्द्रिय विषयोंकी रोक-थामको, अथवा सुस्व और संसार परिभ्रमणसे निवृत्ति रूप स्वात्मस्थिति इन दोनोंको प्रदान करने में समर्थ श्रीमान्-केवलज्ञान आदि लक्ष्मीसे सम्पन्न-जिनेन्द्रदेवके पद-सामीप्यको प्राप्त करके उनके चरण-शरणमें जाकर, पापोंको जीतनेके लिये-मोहादिक पापकों अथवा हिंसादिक दुष्कृतों पर विजय प्राप्त करनेके लिए.- मैं उस स्तुतिविद्याकी प्रसाधना करना चाहता हूं-उसे सब प्रकारसे सिद्ध करनेके लिए उद्यत हूं-जो उत्तम कामस्थानको प्रदान करने में समर्थ हैं। ___ भावार्थ-स्तुतिरूप विद्याकी सिद्धि में भले प्रकार संलग्न होनेसे शुभ परिणामोंद्वारा पापोंपर विजय प्राप्त होती है और उसीका फल उक्त कामस्थानकी संप्राप्ति है। इसीलिए स्वामी समन्तभद्र जिनेन्द्रदेवके सन्मुख जाकर उनकी वीतरागमूर्तिके सम्मुख स्थित होकर अथवा उसे अपने हृदयमन्दिर में विराजमान कर उनकी यह स्तुति करनेमें प्रवृत्त हुए हैं ॥१॥
__(मुरजबन्धो गोमूत्रिकाबन्धश्च) स्नात स्वमलगम्भीरं जिनामितगणार्णवम् । पूतश्रीमज्जगत्सारं जनायात क्षणाच्छिवम् ॥ २ ॥
नात स्वमलेति ।मुरजबन्धः पूर्ववदृष्टव्यः । स्नात इति क्रियापदंष्णा शोच इत्यस्य धोः लोडंतस्य रूपं ! सुष्टु न विद्यते मलं यस्य स स्वमलः भोरः अगाधः स्वमलश्वासों गंभीरश्न स्वमलगंभीरः अतस्तं स्वम.
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