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समन्तभन्द्र-भारती
नष्ट कर दिये हैं परन्तु चन्द्रमा ऐसा नहीं है, वह दोषाकर हैअनेक दोषोंकी खान है (संसारी पुरुष जो ठहरा) पक्ष में दोषारात्रिको करने वाला है आपने सर्वज्ञरूप ताराओं को अस्तक दिया है - आपके लोका-लोकावभासी सर्वज्ञत्वके सामने संसा के अन्य अल्पज्ञ - हरिहरादि प्रभाव रहित हो जाते हैं परन चन्द्रमा अपने से हीन तिताराओं को अस्त नहीं कर सकता आप सकल हैं - सम्पूर्ण हैं अथवा केवलज्ञान, सद्वक्तृत् आदि अनेक कलाओंसे सहित हैं- परन्तु चन्द्रमा विकल है - अपूर्ण है- ' कलाओं से रहित है । आपका उदय महान् है - आ एक स्थान में स्थित होते हुए भी अपने ज्ञानगुण से संसार समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करते हैं - जानते हैं - परन्तु चन्द्रमा का उदय सीमित है - वह चल फिर कर सिर्फ थोड़ेसे पदार्थों के प्रकाशित कर पाता है ।
[ यह श्लेषमूलक व्यतिरेकालंकाकार है ] ||३२|| ( मुरजः )
यत्तु खेदकर ध्वान्तं सहस्रगुरपारयन् । भेतुं तदन्तरत्यन्तं सहसे गुरु पारयन् ॥३३॥
यत्तुखेदेति – यत् यदोरूपम् । तु श्रप्यर्थे । खेदकरं दुःखकरं खे करोतीति खेदकरम् । ध्वान्तं तमः श्रज्ञानं मोहः । सहस्रगुरादित्य श्रपिशब्दोऽत्र सम्बन्धनोयः । सहस्रगुरपि अपारयन् श्रशक्नुवन् । भे विदारयितुम् । तत् ध्वान्तम् । अन्तः अभ्यन्तरम् । प्रत्यन्तं श्रत्यर्थम् अथवा श्रन्तमतिक्रान्तं श्रत्यन्तम् । सहसे समर्थो भवसि । भेत्तु त्रा सम्बन्धनीयं काकाक्षिवत् । गुरु महत् । पारयन् शक्नुवन् । त्वं चन्द्रप्र इति सम्बन्धनीयम् । किमक्त ं भवति-त्वं चन्द्रप्रभः यदन्तर्ध्वान
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१ ' कला तु षोडशो भागः' इत्यमरः - चन्द्रमाका सोलहवां हिस्स कला कहलाता है ।
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