________________
३५
स्तुविविद्या पर्दय हिंसय विनाशय । पापं दुष्कृतम् । अप्रतिमा अनुपमा श्राभा दीप्तिसंस्थासावप्रतिमाभः अनुपमतेजाः । मे मम । पद्मप्रभ षष्ठ तीर्थ कर। मतिं सद्विज्ञानं प्रददातीति मतिप्रदः तस्य सम्बोधनं हे मतिप्रद । एतदुक्तं भवति-हे पद्मप्रभ मम पापं अर्दय । अन्यानि सर्वाणि पदानि तस्यैव विशेषणानि ॥२७॥ . . अर्थ-हे प्रभो ! आपके चरणकमल पूर्वसंचित पापकर्मसे रहित हैं, आपत्तियोंसे शून्य हैं, और अपरिमित लक्ष्मी केशोभाके आधार हैं तथा आप स्वयं भी अनुपम आभासेतेजसे सहित हैं। हे सम्यग्ज्ञानके देनेवाले पद्मपभ जिनेन्द ! मेरे भी पापकर्म नष्ट कीजिये। . भावार्थ--आपके निष्पाप-पवित्र चरणकमलोंके आश्रयसे मनुष्यको वह सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह अपने समस्त पापकर्म तथा उनके फलस्वरूप प्राप्त हुई आपत्तियों को नष्टकर अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीसे सहित होजाता है और तब उसकी आत्मा अनन्त तेजसे प्रभासित हो उठती है ॥२७॥
(गतप्रत्यागतपादयमकश्लोकः ) वंदे चारुरुचां देव भो वियाततया विभो । त्वामजेय यजे मत्वा तमितांत ततामित ॥२८॥ वन्दे इति-प्रथमपादस्थाक्षरचतुष्टयं क्रमेणालिख्य पठित्वा पुनरपि तेषां व्युत्क्रमेण पाठः कर्तव्यः । क्रमपाठे यान्यक्षराणि विपरीतपाठेऽपि तान्येव । एवं सर्वे पादा द्रष्टव्याः ।
वन्दे नौमि । चारू शोभना रुग् दोप्तिर्भक्तिर्वा येषां ते चारुरुचः प्रतस्तेषां चारुरुचाम् । देव भो भट्टारक ! वियाततया वियातस्य भावो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org