SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्तुतिविया १३७ रूपम् । ज्ञाः पण्डिताः । ये यदो जसन्तं रूपम् । प्रणताः प्रकर्षण मताः । जना भक्तमव्यलोकाः । क्रमयुगे चरणद्वन्द्व । देवानामधिदेवः परमात्मा देवाधिदेवः तस्य देवाधिदेवस्य । ते तव । स्तुत्यवसाने कृत. कृत्यः सन् प्राचार्यः समन्तभद्रस्वामी उपसंहारकं करोति । किमुक्त भवति-भट्टारक सैव प्रज्ञा या त्वा स्मरति । शिरश्च तदेव यन्नतं ते पदे इत्येवमादि योज्यम् ॥११३॥ । ___अर्थ हे देवाधिदेव ! बुद्धि वही है जो कि आपका स्मरण करे-आपका ध्यानकरे, मस्तक वही है जो कि आपके चरणों में नत रहे-भुका रहे, जन्म वही सफल और श्रेष्ठ है जिसमें संसार परिभ्रमणको नष्ट करनेवाले आपके चरणोंका आश्रय लियागया हो, पवित्र वही है जो कि आपके मतमें अनुरक्त हो, वाणो वही है जो कि आपकी स्तुति करे, और बुद्धिमान् - पंडितजन वे ही हैं जो कि आपके दोनों चरणों में नत रहें। . [ यहां परिसंख्याऽलंकार' है] (चक्रवृत्तम् ) सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वचच्चनं चापि ते हस्तावंजलये कथाश्र तिरतः कणों-क्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो नतिपर सेवेशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥११४॥ सुश्रद्धति-~सुश्रद्धा सुरुचिः । मम अस्मदः प्रयोगः । ते तव । १ सर्वत्र संभवद्वस्तु पत्र के युगपत्पुनः । एकत्र व नियम्येत परिसंख्या तु सा यया ॥ - अलंकारचिन्तामणि । सर्वत्र (सबमें) संभव होनेवाली वस्तुका किसी एकमें हो नियम करदेना परिसंख्या अलंकार कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy