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समन्तभद्र-भारती
मंच्यन्तरच मग्नमंचयन्तः तेषां मग्नमंचयताम् प्राप्तशोकानामित्यवं समुदायार्थ:-हे शान्तिनाथ यः इह सिद्धः त्वं संस्थानं लोकानं मना सतां मग्नमंच्यतां सन्तानं प्रोतुमिव। किमुक्त भवति-भट्टारका सिद्धिगमनं सकारणमेव 'परार्थे हि सतां प्रयत्नः ॥८॥
अर्थ-हे भगवन् ! यद्यपि आप इस लोकमें सिद्धकृतकृत्य-हो चुके थे तथापि आप लोकके अग्रभागरूप उत्त स्थानपर-सिद्धशिलापर-जा विराजमान हुए अतः आपका ये वहां जाना ऐसा मालूम होता है मानों दुःखरूप समुद्र में डूबे हु अथवा आगे डूबनेवाले भव्य जीवोंके समूहको उससे उद्घा करने के लिये ही हो। ___ भवार्थ-जैन शास्त्रों में किसी स्थानविशेषको मोक्ष नहीं मान है किन्तु आत्माकी सर्वकर्मरहित शुद्ध अवस्थाको ही मोक्ष मान हैं। जब आत्मासे सब कौंका सम्बन्ध छूट जाता है ता आत्मा एक समय मात्रमें त्रिलोकके ऊपर सिद्ध शिलापर पर जाता है। आत्माकी इस अवस्थाको ही सिद्ध, मुक्त अथक कृतकृत्य अवस्था कहते हैं। भगवान शान्तिनाथ भी कोंक क्षय होजानेसे इस मध्यम लोकमें ही सिद्ध होचुके थे फिर भी । तथागति स्वभाव होनेसे त्रिलोकके ऊपर जाकर विराजमान हुए थे। यहां प्राचार्थ समन्तभद्र उत्प्रेक्षालंकारसे वर्णन करते हैं कि भगवान शान्तिनाथका तीन लोकके अग्रभागरूप उच्च स्थानपर जो विराजमान होना है वह मानों दुःखरूपी समुद्र में डूबे हुए अथवा डूबनेवाले जीवोंके उद्धार करनेके लिये ही है। यह बात अब भी देखी जाती है कि कूप या तालाब वगैरहके ऊपर तट पर बैठा हुआ पुरुष ही उनमें पड़े हुए जीवोंको रस्सी वगैरह से निकालनेमें समर्थ होता है । स्वयं नीचे स्थानमें रहकर दूसरोंको नदी तालाब कुत्रा श्रादिसे नहीं निकाला जा सकता। श्लोकका सारांश यह है कि भगवान शान्तिनायको
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