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स्तुतिविद्या
स्याऽपि नष्टमानके समान होरहा है-अतः मुझे अपने ही समान समृद्ध कीजिये। । भावार्थ-यहां 'अनन्वयालङ्कार' से भगवान् शान्तिनाथके लिये 'स्वसमान' सम्बुद्धि विशेषण दिया है, जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि हे भगवन ! आप अपने ही समान हैं-अनुपम हैंसंसारमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसकी उपमा आपको दी जा सके । दूसरोंको समद्ध-सम्पन्न करने में आप अपना सानी (जोड़) नहीं रखते इसी लिये मैं आपके पास आया हूं । इसके सिवाय आप भासमान हैं-शोभायमान हैं-अपने कार्य में समर्थ हैं तथा हर एक तरहसे निष्पाप हैं-द्वष आदिसे रहित हैं । मेरे प्रति आपका कोई द्वेष नहीं है किन्तु निष्पाप होने के कारण मेरे ऊपर आपके हृदयमें दयालुताका उत्पन्न होना ही स्वाभाविक है। मेरा चित्त संसारके दुःखोंसे उद्विग्न है । यद्यपि मेरे चित्तका त्रास अभी ध्वस्त नहीं हुआ फिर भी ध्वंसमानके समान होरहा है, अतः उसके पूर्णतः ध्वस्त होनेमें सहायक हूजिये और इस तरह मुझ भक्तकी जो पूर्ण ज्ञानदर्शनादिरूप आत्मीय सम्पत्ति हैं उसे कृपया शीघ्र प्राप्त कराइये ||७||
(मुरजयन्धः ) सिद्धस्त्वमिह संस्थानं लोकाग्रमगमः सताम् । प्रोद्धत्त मिव सन्तानं शोकाब्धौ मग्नमंक्ष्यताम् ॥ ८ ॥ सिद्ध इति-सिद्धः निष्ठितः कृतकृत्यः । त्वं · भवान् । इह अस्मिम् । संस्थानं समानस्थानं सिद्धयोग्यस्थानं सिद्ध मित्यर्थः । लोकाग्रं त्रिलोकमस्तकम् । अगमः गतः गमे डन्तस्य रूपम् । सता पण्डितानां भव्यलोकानाम् । प्रोतुमिव उत्तारितुमिव । सन्तानं समूइम्। शोक एव अब्धिः समुद्रः शोकान्धिः दुःखसमुद्र इत्यर्थः तस्मिन् शोकाब्धौं। मग्नाः प्रविष्टाः मंच्यन्तः प्रवेष्यन्तः मग्नाश्च
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