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________________ स्तुतिविद्या पीडितं यच्छन् सत शोभनपुरुषाय स कोऽन्यो भवतः स्वमुत् इंट अवता हि न कश्चित् तस्मात् भवानेव सर्वज्ञः ॥१०॥ । अर्थ हे वर्धमान स्वामिन् ! आपसे अतिरिक्त ऐसा कौन मामी है जो कि देवोंको भी ज्ञान सम्पादन करावे और भव्य रुषोंके लिये आत्मोत्थ, उत्कष्ट तथा बाधारहित मोक्ष-सम्बन्धी सुखको देता हुआ भी स्वयं रागसे रहित हो ? हे नाथ ! ऐसे पाप ही हो अतः आपको नमस्कार हो । : भावार्थ-संसारके लोगोंने जिन्हें ईश्वर माना है वे स्वयं इतने भल्पज्ञानी थे कि उन्हें आगे-पीछेकी बालका जान लेना मुश्कि ह था। ऐसी परिस्थितिमें वे जन्मसे ही मति, श्रुत, तथा अवधि ज्ञानके धारण करनेवाले देवोंको क्या ज्ञान देते ? परन्तु श्रीवर्धमानस्वामी इतने अधिक ज्ञानी थे कि वे तीनों लोक और तोनों काल-सम्बन्धी पदार्थोको स्पष्ट जानते थे और इसी लिये देवोंको भी ज्ञान प्रदान करनेमें समर्थ थे। संसारके माने हुए ईश्वर यदि किसीको सुख प्राप्त करनेका उपदेश भी देते थे तो उससे प्राप्त होनेवाला सुख बाह्य, हीन, संसारको बढ़ानेवाला और बाधक कारणोंके मिलने पर नष्ट हो जाने वाला ही होता था। इतना होने पर भी वे अपनेको परम परोप कारी समझ कर हर्षित होते थे परन्तु भगवान् वर्धमानके उप देशसे लोगोंको जो सुख प्राप्त होता था वह उससे सर्वथा विपरीत था- आत्मीय, उत्कृष्ट, मोक्षसम्बन्धी और बाधारहित था। इतना होने पर भी वे रागसे रहित थे, उन्हें हर्ष-विषाद तथा अहंकार वगैरह कुछ भी नहीं होता था। इन विशेषताओं को दृष्टिगत करके आचार्य समन्तभद्रने ठोक ही कहा है कि आपके सिवाय श्राप जैसा और कौन ईश्वर है ? अर्थात् कोई भी नहीं है-आप अनुपम हैं ॥१०॥ . . : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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