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स्तुति-विद्या 'शत' कहकर भी शतसे प्रायः कुछ अधिक पद्य ही अपने पाठकोंको प्रदान किये हैं। इस दृष्टिसे प्रस्तुत ग्रन्थमें ११६ पद्य होते हुए भी उसका 'जिनस्तुतिशतं' यह नाम सार्थक जान पड़ता है। 'शत' और 'शतक' दोनों एकार्थक हैं अतः जिनस्तुतिशतं' को 'जिनस्तुतिशतकं' भी कहा जाता है। 'जिनस्तुतिशतक' का बादको संक्षिप्तरूप 'जिनशतक' होगया है और यह ग्रन्थका तीसरा नाम है, जिसे टीकाकारने 'जिनशतकनामेति' इस वाक्यके द्वारा प्रारंभमें ही व्यक्त किया है। साथ ही, 'स्तुवि. विद्या' नामका भी उल्लेख किया है। यह ग्रन्थ अलङ्कारोंकी प्रधानताको लिये हुए हैं और इसलिये अनेक ग्रन्थप्रतियों में इसे 'जिनशतालङ्कार' अथवा 'जिनशतकालङ्कार' जैसे नामसे भी उल्लेखित किया गया है और इसलिये यह ग्रन्थका चौथा नाम अथवा ग्रन्थनामका चौथा संस्करण है। ग्रन्थ-परिचय
समन्तभद्र-भारतीका अंगरूप यह ग्रन्थ जिन-स्तुति-विषयक है। इसमें वृषभादि चतुर्विशतिजिनोंकी-चौबीस जैन तीर्थङ्करोंकी-अलंकृत भाषामें बड़ी ही कलात्मक स्तुति की गई है। कहीं श्लोकके एक चरणको उलट कर रख देनेसे दूसरा चरण', पूर्वार्धको उलटकर रख देने से उत्तरार्ध' और समचे श्लोकको उलटकर रखदेनेसे दूसरा श्लोक' बन गया है। कहीं कहीं चरणके पूर्वार्ध-उत्तरार्धमें भी ऐसा ही क्रम रक्खा गया है और कहीं कहीं एक चरण में क्रमशः जो अक्षर हैं वे ही दूसरे चरण में है, पूर्वार्धमें जो अक्षर हैं वे ही उत्तरार्धमें हैं और पूर्ववर्ती
१. खोक १०, ८३, ८८, १५ । २. श्लोक ५७, ६६, ६८ | ३. श्लोक ८६,८७। ४. श्लोक ८२, १३, ६४ ।
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