SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्तुतिविद्या wwvvv उसकी वाणी अनेक अतिशयोंसे पूर्ण होती है-अतः मैं भी आपके चरणकमलोंको-उनके गुणोंको-विस्तृत करता हूँ उनको स्तुति करता हूँ। भावार्थ-जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोकी स्तुति करनेने पुरुषक बचनोंमें वह शक्ति निहित होती है जिससे वह सर्वोपकारी उपदेश देने में दिव्यध्वनि खिराने में समर्थ होता है अतः आचार्य समन्तभद्र भी भगवान् वृषभनाथके चरणोंकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुए हैं ।। १५ ।। - - - अजित-जिन-स्तुतिः (श्लोकयमक:) 'सदक्षराजराजित प्रभो दयस्व वर्द्धनः । सतां तमो हरन् जयन् महो दयापराजितः ॥१६॥ सदेति-सत् शोभनम् । अक्षर अनश्वर । न विद्यते जरा वृद्धत्वं बस्यासावजरः तस्य सम्बोधनं हे अजर । अजित द्वितीयतीर्थकरस्य माम । प्रभो स्वामिन् । दयस्व-दय दाने इत्यस्य धोः लोडन्तस्य रूपम् । पद्धनः नन्दनः त्वं यतः । सतां भव्यलोकानाम् । तमः अज्ञानम् । हरन् नाशयन् । जयन् जयं कुर्वन् इत्यर्थः। महः तेजः केवलज्ञानम्, दयस्व इस्यनेन सम्बन्धः। दयापर दयाप्रधान । न जित: अजितः। किमत भवति-अन्ये सर्वे जिता: त्वमजित: अतः हे अजित भट्टारक मह: सद्ज्ञानं दयस्व ॥१६॥ अर्थ-उत्तम अविनाशी और जरा रहित हे अजितनाथ प्रभो! आप क्षमा आदि गुणोंसे वधमान हैं, साधुपुरुषोंक अज्ञानअन्धकारको नष्ट करनेवाले हैं, विजयी हैं और कामक्रोध आदि शत्र भोंसे अजित हैं-काम-क्रोध आदि दोषांसे १ प्रमाणिका छन्दः 'प्रमाणिका जरौ लगौ' इति लक्षणात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy