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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
(भाग - २)
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
पाणुज्जोवो जोवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
(भाग - 2)
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(पूर्व प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र) सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
जाणुज्जीबोजागो जैनविद्या संस्थान श्री महाबीरजी
प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान)
प्राप्ति स्थान 1. जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र
दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी . सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004
प्रथम संस्करण, 2005, 1000
मूल्य 70.00
पृष्ठ संयोजन आयुष ग्राफिक्स डी-173-(ए), विनीत मार्ग बापू नगर, जयपुर - 302 015 दूरभाष : 141-2708265, मो. 9414076708
मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001
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पाठ संख्य
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10.
11.
12.
1.
2.
4.
5.
6.
7.
8.
अनुक्रमणिका
विषय
आरम्भिक
वज्जालग्ग
गउडवो
दशवैकालिक
आचारांग
प्रवचनसार
भगवती आराधना
अर्हत प्रवचन
महुबिन्दु दिट्ठतं
. रोहिणीणाए
मेरुप्रभ हाथी
सिप्पिपुत्तस्स कहा
पुत्तेहिं पराभविअस्स पिउस्स कहा
व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ
वज्जालग्ग
गउडवो
दशवैकालिक
आचारांग
प्रवचनसार
भगवती आराधना
परिशिष्ट सन्दर्भ ग्रन्थ सूच
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पृष्ठ संख्या
2
1 2 0 0 2 1
16
22
30
38
42
50
54
56
62
66
68
75
103
116
131
148
156
175
181
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आरम्भिक
'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ, भाग - 2' पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।
प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा परिवार की एक सुसमृद्ध लोक भाषा रही है। स्वभावसिद्ध जन सामान्य की भाषा को प्राकृत कहते हैं। इसी जनभाषा प्राकृत में बुद्ध और महावीर ने साधारण जनता के हितार्थ उपदेश दिया।
जनभाषा प्रवाहशील होती है। प्राकृत भाषा ही अपभ्रंश के रूप में विकसित होती हुई प्रादेशिक भाषाओं एवं हिन्दी का स्रोत बनी। अतः हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के इतिहास के अध्ययन के लिए प्राकृत व अपभ्रंश का अध्ययन आवश्यक है।
यह एक सार्वजनीन सिद्धान्त है कि किसी भी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना रचना और अनुवाद की शिक्षा के बिना कठिन है। प्राकृत भाषा के सीखने-समझने को ध्यान में रखकर ही ‘प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत अभ्यास सौरभ', 'प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 1' का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में प्राकृत के विभिन्न ग्रन्थों से पद्यांशों व गद्यांशों का चयन किया गया है। उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ प्रस्तुत किये गये हैं। इससे प्राकृत भाषा को सीखने के साथ-साथ काव्यों का रसास्वादन भी किया जा सकेगा।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित 'जैनविद्या संस्थान' के अन्तर्गत 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना सन् 1988 में की गई थी। वर्तमान में इसके माध्यम से प्राकृत-अपभ्रंश का अध्यापन, पत्राचार के माध्यम से कराया जाता है। आशा है ‘प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2' प्राकृत जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
- पुस्तक-प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों एवं प्राकृत भारती अकादमी के विद्वानों के आभारी हैं।
मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स प्राइवेट लिमिटेड धन्यवादार्ह हैं।
नरेशकुमार सेठी नरेन्द्र पाटनी
अध्यक्ष - प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
• मंत्री
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति
जयपुर
___ तीर्थंकर महावीर मोक्ष कल्याणक दिवस । कार्तिक अमावस्या, वीर निर्वाण सम्वत् 2062
1.11.2005
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -2
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
- (भाग - 2)
2)
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पाठ - 1 वज्जालग्ग
1.
तं किं पि साहसं साहसेण साहंति साहससहावा। जं भाविऊण दिव्वो परंमुहो धुणइ नियसीसं॥
2.
जह जह न समप्पइ विहिवसेण विहडंतकज्जपरिणामो। तह तह धीराण मणे वड्ढइ बिउणो समुच्छाहो॥
3.
फलसंपत्तीइ समोणयाइ तुंगाइ फलविपत्तीए। हिययाइ सुपुरिसाणं महातरूणं व सिहराई॥
हियए जाओ तत्थेव वढिओ नेय पयडिओ लोए। ववसायपायवो सुपुरिसाण लक्खिज्जइ फलेहिं॥
ववसायफलं विहवो विहवस्स य विहलजणसमुद्धरणं। विहलुद्धरणेण जसो जसेण भण किं न पज्जत्तं॥
आढत्ता सप्पुरिसेहि तुंगववसायदिन्नहियएहिं। कज्जारंभा होहिंति निप्फला कह चिरं कालं॥
7.
विहवक्खए वि दाणं माणं वसणे वि धीरिमा मरणे। कज्जसए वि अमोहो पसाहणं धीरपुरिसाणं॥
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पाठ - 1 वज्जालग्ग
1.
साहस (जिनका) स्वभाव (है), (वे) साहस से कुछ भी उस साहस (कार्य) को सिद्ध करते हैं, जिस (साहस कार्य) को विचारकर दैव (भी) उदासीन (हो जाता है) (तथा) निज शीश को (प्रशंसा में) हिलाता है।
जैसे-जैसे कार्य का (इच्छित) परिणाम विधि की अधीनता से बिगड़ता हुआ होने के कारण पूरा नहीं किया जाता, वैसे-वैसे धीरों के मन में दुगना, अचल उत्साह बढ़ता है।
3. .
सज्जन पुरुषों के हृदय महावृक्षों के शिखरों की तरह फलों की प्राप्ति होने पर बहुत झुके हुए (होते हैं) (तथा) फलों के नाश होने पर (वे) ऊँचे (हो जाते
4.
सज्जन पुरुषों का संकल्परूपी वृक्ष (उनके) मन में (ही) उत्पन्न हुआ है, (उनके द्वारा) वहाँ ही बढ़ाया गया है, लोक में (उनके द्वारा) कभी प्रकट नहीं किया गया है, (किन्तु वह) फलों (परिणामों) द्वारा ही पहचाना जाता है।
संकल्प का परिणाम सम्पत्ति (है) और सम्पत्ति का (परिणाम).व्याकुल जनों का उद्धार है, व्याकुलों के उद्धार से यश (प्राप्त होता है), (तुम) कहो, यश से क्या प्राप्त किया हुआ नहीं है ?
6..... हृदय से उच्च कर्म में स्थापित सज्जन आत्माओं द्वारा शुरू किए हुए कार्यों के
लिए प्रयत्न दीर्घकाल तक कैसे निष्फल होंगे ?
7. वैभव के क्षय होने पर भी उदारता, विपत्ति में भी आत्मसम्मान, मरण (काल) .. में भी धैर्य (तथा) सैकड़ों प्रयोजनों में भी अनासक्त (भाव-) धीर पुरुषों के
(ये) भूषण हैं।
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8.
दारिद्दय तुज्झ गुणा गोविज्जंता वि धीरपुरिसेहिं। पाहुणएसु छणेसु य वसणेसु य पायडा हुंति॥
दारिद्दय तुज्झ नमो जस्स पसाएण एरिसी रिद्धी। पेच्छामि सयललोए ते मह लोया न पेच्छंति॥
10. जे जे गुणिणो जे जे वि माणिणो जे वियड्ढसंमाणा।
दालिद्द रे वियक्खण ताण तुमं साणुराओ सि॥
11. दीसंति जोयसिद्धा अंजणसिद्धा वि के वि दीसंति।
दारिद्दजोयसिद्धं मं ते लोया न पेच्छंति॥
12.
संकुयइ संकुयंते वियसइ वियसंतयम्मि सूरम्मि। सिसिरे रोरकुटुंबं पंकयलीलं समुव्वहइ॥
13. ओलग्गिओ सि धम्मम्मि होज्ज एण्हि नरिंद वच्चामो।
, आलिहियकुंजरस्स व तुह पहु दाणं चिय न दिळं।
14.
भग्गे वि बले वलिए वि साहणे सामिए निरुच्छाहे। नियभुयविक्कमसारा थक्कंति कुलुग्गया सुंहडा॥
15. वियलइ धणं न माणं झिज्जइ अंगं न झिज्जइ पयावो।
रूवं चलइ न फुरणं सिविणे वि मणंसिसत्थाणं ।
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8.
हे निर्धनता ! तुम्हारे गुण धीर पुरुषों के द्वारा छुपाए जाते हुए भी अतिथियों (की उपस्थिति) में, उत्सवों पर और कष्टों के होने पर प्रकट हो जाते हैं।
9.
हे निर्धनता ! तुम्हारे लिए नमस्कार, (क्योंकि) जिसके (तुम्हारे) प्रसाद से ऐसी ऋद्धि (मिली) (है) (कि) (मैं) सब लोगों को देखता हूँ, (पर) वे (सब) लोग मुझे नहीं देखते हैं।
हे निपुण निर्धनता ! जो जो गुणी (हैं), जो जो भी आत्म-सम्मानी (हैं), जिन्होंने विद्वानों में सम्मान (पाया है), तुम उनके लिए अनुराग सहित होती हो।
11.
योग-सिद्ध देखे जाते हैं, कितने ही अंजण-सिद्ध भी देखे जाते हैं, (किन्तु) वे मनुष्य मुझ दारिद्र-योग-सिद्ध को नहीं देखते हैं।
12.
सर्दी में गरीब कुटुम्ब कमल की लीला को धारण करता है। (वह) अस्त होते हुए सूर्य में सिकुड़ जाता है (और) उदय होते हुए (सूर्य में) फैल जाता है।
13.
(तुम) धर्म में अनुलग्न हो, रहो ! हे राजा ! अब (हम) जाते हैं, क्योंकि) हे प्रभो! तुम्हारी उदारता कभी नहीं देखी गई, जैसे चित्रित हाथी के (मस्तक से टपकने वाला रस कभी नहीं देखा गया है)।
14.
युद्ध-शक्ति के खण्डित होने पर, सेना के घिरे हुए होने पर (और) स्वामी के उत्साह-रहित (किये गए) होने पर उच्च कुलों में उत्पन्न योद्धा निज भुजाओं के पराक्रम बल से (ही) स्थिर रहते हैं।
15. . दृढ़-संकल्प वाले दल (सुभटों) का (यदि) धन क्षीण होता है, (तो) स्वप्न में
भी आत्म-सम्मान (क्षीण) नहीं (होता), शरीर (यदि) क्षीण होता है, (तो स्वप्न में भी) प्रताप क्षीण नहीं होता, (यदि) रूप नष्ट होता है, (तो स्वप्न में भी) स्फूर्ति (नष्ट) नहीं (होती)।
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16. . हंसो सि महासरमंडणो सि धवलो सि धवल किं तुज्झ।
खलवायसाण मज्झे ता हंसय कत्थ पडिओ सि॥
17. हंसो मसाणमझे काओ जड़ वसइ पंकयवणम्मि।
तह वि हु हंसो हंसो काओ काओ च्चिय वराओ॥
18.
बे वि सपक्खा तह बे वि धवलया बे वि सरवरणिवासा। तह वि हु हंसबयाणं जाणिज्जइ अंतरं गरुयं॥
19. एक्केण य पासपरिट्ठिएण हंसेण होइ जा सोहा।
तं सरवरो न पावइ बहुएहि वि ढिंकसत्थेहिं॥
20.
माणससररहियाणं जह न सुहं होइ रायहंसाणं। तह तस्स वि तेहि विणा तीरुच्छंगा न सोहंति॥,
वच्चिहिसि तुमं पाविहिसि सरवरं रायहंस, किं चोज्ज। माणससरसारिक्खं पुहविं भमंतो न पाविहिसि॥
22.
सव्वायरेण रक्खह तं पुरिसं जत्थ जयसिरी वसइ। अत्थमिय चंदबिंबे ताराहि न कीरए जोण्हा॥
23.
जइ चंदो किं बहुतारएहि बहुएहि किं च तेण विणा। जस्स पयासो लोए धवलेइ महामहीवठें।
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16.
हे धवल ! (तुम) हंस हो, महासागर के आभूषण हो, (तुम) विशुद्ध हो, तो हे हंस! (तुम) दुष्ट कौओं के मध्य में कैसे फँसे हुए हो ? तुम्हारा (यह) क्या (हुआ)?
17.
यदि हंस मसाण के मध्य में (रहता है) (और) कौआ कमल-समूह में रहता है, तो भी निश्चय ही हंस, हंस है (और) बेचारा कौआ, कौआ ही (है)।
18.
(यद्यपि) (हंस और बतख) दोनों ही पंख सहित (हैं), उसी तरह दोनों ही धवल (हैं), (तथा) दोनों ही तालाब में निवास (करने वाले हैं), तो भी निश्चय ही हंस और बतख का महान भेद समझा (माना) जाता है।
19.
(तालाब के) किनारे पर स्थित एक ही हंस के द्वारा जो शोभा होती है, उसे बहुत पक्षी-समूहों द्वारा भी तालाब प्राप्त नहीं करता है।
20.
जैसे मानसरोवर के बिना राजहंसों के लिए सुख नहीं होता, वैसे ही उसके तट प्रदेश भी उनके बिना नहीं शोभते हैं।
प्रदेश
21. : हे राजहंस ! (यदि) तुम जाओगे, (तो) (निःसन्देह) उत्तम तालाब पाओगे,
(इसमें) क्या आश्चर्य है ? (किन्तु) पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए (तुम कोई तालाब) मानसरोवर के समान नहीं पाओगे।
22.
उस पुरुष
उस पुरुष की, जहाँ जय-लक्ष्मी रहती है, पूर्ण आदर से रक्षा करो। चन्द्र-बिंब के अस्त होने पर तारों द्वारा प्रकाश नहीं किया जाता है।
23.
लोक में जिसका प्रकाश विस्तृत भूमितल को सफेद करता है (चमकता है), यदि (वह) चन्द्रमा (है), (तो) असंख्य तारों से (भी) क्या (लाभ) ? और उसके बिना (भी) असंख्य (तारों से) क्या (लाभ) ?
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24.. चंदस्स खओ.न हु तारयाण रिद्धी वि तस्स न हु ताण।
गरुयाण चडणपडणं इयरा उण निच्चपडिया य॥ .
25.
न ह कस्स वि देंति धणं अन्नं देंतं पि तह निवारंति। अत्था किं किविणत्था सत्थावत्था सुयंति व्व॥
26.
निहणंति धणं धरणीयलम्मि इय जाणिऊण किविणजणा। पायाले गंतव्वं ता गच्छउ अग्गठाणं पि॥
27.
करिणो हरिणहरवियारियस्स दीसंति मोत्तिया कुंभे। किविणाण नवरि मरणे पयड च्चिय हुंति भंडारा॥
तथा कुभ।
28.
देमि न कस्स वि जंपइ उद्दारजणस्स विविहरयणाई। चाएण विणा वि नरो पुणो वि लच्छीइ पम्मुक्को॥
29.
जीयं जलबिंदुसमं उप्पज्जइ जोव्वणं सह जराए। दियहा दियहेहि समां न हुंति किं निठुरो लोओ॥
30. विहडंति सुया विहडंति बंधवा विहडेइ संचिओ अत्थो।
एक्कं नवरि न विहडइ नरस्स पुव्वक्कयं कम्मं॥
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24.
चन्द्रमा का क्षय (होता है), किन्तु तारों का नहीं। वृद्धि भी उसकी (होती है), किन्तु उनकी नहीं। (सत्य यह है कि) महान (व्यक्तियों) का (ही) चढ़ना (और) गिरना (होता है), परन्तु दूसरे अर्थात् सामान्य (व्यक्ति) हमेशा गिरे हुए (ही) हैं।
(कृपण) किसी के लिए भी धन नहीं देते हैं। तथा (धन) देते हुए दूसरे (व्यक्ति) को भी (वे) रोकते हैं। क्या (हम कहें कि) कृपण-स्थित (कृपणों के द्वारा संचित किए हुए) रुपये-पैसे अपने आप में स्थित (व्यक्ति की) दशा की तरह सोते हैं (निष्क्रिय होते हैं)।
26.
कृपण लोग भूमितल में धन को गाड़ते हैं। इस तरह सोचकर (कि) (उनके द्वारा) पाताल में पहुँचे जाने की सम्भावना है। इस कारण से (धन) भी आगे . स्थान को (पाताल में) जाना चाहिए।
27.. सिंह के नखों द्वारा चीरे हुए हाथी के गण्डस्थल पर (तो) मोती देखे जाते हैं,
(किन्तु) कृपणों के भण्डार केवल मरने पर ही प्रकट होते हैं।
28
(यद्यपि) (कृपण) (कभी) नहीं कहता है, “(मैं) किसी भी श्रेष्ठजन के लिए विविध रत्नों को देता हूँ", फिर भी (ठीक ही है) (लक्ष्मी के) त्याग के बिना ही मनुष्य लक्ष्मी के द्वारा परित्यक्त (होता है)।
जीवन जल-बिन्दु के समान (क्षणभंगुर) (है)। यौवन बुढ़ापे के साथ उत्पन्न होता है। दिवंस दिवसों के समान नहीं होते हैं। (फिर भी) मनुष्य निष्ठुर क्यों है?
30.
पुत्र अलग हो जाते हैं, बन्धु (भी) अलग हो जाते हैं, संचित अर्थ (भी) अलग हो जाता है, (किन्तु) मनुष्य का केवल एक पूर्व में किया हुआ कर्म अलग नहीं होता। .
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.
31.
रायंगणम्मि परिसंठियस्स जह कुंजरस्स माहप्पं । विझसिहरम्मि न तहा ठाणेसु गुणा विसर्टति॥ ..
32. ठाणं न मुयइ धीरो ठक्कुरसंघस्स दुट्ठवग्गस्स।
ठंतं पि देइ जुझं ठाणे ठाणे जसं लहइ॥
33.
जइ नत्थि गुणा ता किं कुलेण गुणिणो कुलेण न हु कज्जं। कुलमकलंकं गुणवज्जियाण गरुयं चिय कलंकं॥
34.
गुणहीणा जे पुरिसा कुलेण गव्वं वहंति ते मूढा। वंसुप्पन्नो वि धणू गुणरहिए नत्थि टंकारो॥
35.
जम्मंतरं न गरुयं गरुयं पुरिसस्स गुणगणारुहणं। मुत्ताहलं हि गरुयं न हु गरुयं सिप्पिसंपुडयं॥
36.
खरफरुसं सिप्पिउडं रयणं तं होइ जं अणग्धेयं। जाईइ किं व किज्जइ गुणेहि दोसा फुसिज्जंति॥
37.
जं जाणइ भणइ जणो गुणाण विहवाण अंतरं गरुयं। लब्भइ गुणेहि विहवो विहवेहि गुणा न घेप्पंति॥
38.
पासपरिसंठिओ वि हु गुणहीणे किं करेइ गुणवंतो। जायंधयस्स दीवो हत्थकओ निष्फलो च्चेय॥
10
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31.
जिस तरह राजा के आँगन में स्थित हाथी की महिमा (होती है), (किन्तु) विंद्य पर्वत के शिखर पर (स्थित हाथी की महिमा) नहीं (होती है), उसी तरह (उचित) स्थानों पर गुण खिलते हैं।
- 32.
धीर पुरुष मुखियाओं के समूह का (तथा) दुष्ट समूह का (विरोध होते हुए भी) स्थान (पद) को नहीं छोड़ता है, किन्तु (वह) स्थिर रहता हुआ विरोध करता है। (इसके फलस्वरूप वह) स्थान-स्थान पर यश को प्राप्त करता है।
यदि गुण नहीं है तो उच्च कुल से क्या (लाभ) ? गुणी के लिए उच्च कुल से (कोई) भी प्रयोजन नहीं है। गुणहीन के कारण कलंक-रहित कुल पर निश्चय ही बड़ा कलंक (लगता है)।
34.
जो पुरुष गुण-हीन हैं, वे मूढ़ कुल के कारण गर्व धारण करते हैं। (ठीक ही है) यद्यपि धनुष बाँस से उत्पन्न (है), (तो भी) रस्सी-रहित होने के कारण (उसमें) टंकार (सम्भव) नहीं (होती है)।
35.
जन्म-संयोग महान नहीं (होता है), पुरुष के द्वारा गुण-समूह का ग्रहण महान (होता है)। मोती ही श्रेष्ठ (होता है), किन्तु सीप का खोल श्रेष्ठ नही (होता
36. . सीप का खोल रूखा और कठोर (होता है), (फिर भी उसमें) जो रत्न (उत्पन्न)
होता है, वह बहुमूल्य (होता है), बतलाइए तो, जन्म से क्या किया जाता है ? दोष (तो) गुणों से पोंछ दिए जाते हैं।
37:- मनुष्य जिस (बात) को (सत्य) समझता है, (उसको) कहता है (कि) गुणों
(और) वैभवों का बड़ा अन्तर है। (मनुष्य द्वारा) गुणों से वैभव प्राप्त किया जाता है, (किन्तु) (उसके द्वारा) वैभवों से गुण प्राप्त नहीं किये जाते हैं।
- 38... पास में स्थित गुणवान भी गुणहीन में क्या करेगा ? जन्मे हुए (जन्म से) अन्धे
के लिए हाथ में पकड़ा हुआ दीपक निष्फल ही (होता है)। ।
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_39.
परलोयगयाणं पि हु पच्छत्ताओ न ताण पुरिसाणं। जाण गुणुच्छाहेणं जियंति वंसे समुप्पन्ना॥
सज्जणसलाहणिज्जे पयम्मि अप्पा न ठाविओ जेहिं। सुसमत्था जे न परोवयारिणो तेहि वि न किं पि॥
41.
सुसिएण निहसिएण वि तह कह वि हु चंदणेण महमहियं। सरसा वि कुसुममाला जह जाया परिमलविलक्खा।
42. एक्को चिय दोसो तारिसस्स चंदणदुमस्स विहिघडिओ।
.. जीसे दुट्ठभुयंगा खणं पि पासं न मेल्लंति॥
बहुतरुवराण मज्झे चंदणविडवो भुयंगदोसेण। छिज्झइ निरावराहो साहु व्व असाहुसंगेण॥
रयणायरेण रयणं परिमुक्कं जइ वि अमुणियगुणेण। तह वि हु मरगयखंडं जत्थ गयं तत्थ वि महग्छ।
मा दोसं चिय गेण्हह विरले वि गुणे पसंसह जणस्स। अक्खपउरो वि उवही भण्णइ रयणायरो लोए॥
लच्छीइ विणा रयणायरस्स गंभीरिमा तह च्चेव। सा लच्छी तेण विणा भण कस्स न मंदिरं पत्ता॥
47.
वडवाणलेण गहिओ महिओ य सुरासुरेहि सयलेहिं। लच्छीइ उवहि मुक्को पेच्छह गंभीरिमा तस्स ॥
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39.
परलोक में भी गए हुए उन पुरुषों के (मन में) जिनके गुणों के उत्साह से वंश में उत्पन्न (व्यक्ति) जीते हैं, निश्चय ही पश्चाताप नहीं है।
40. सज्जनों के द्वारा प्रशंसा किए जाने योग्य मार्ग पर आत्मा जिनके द्वारा स्थापित
नहीं की गई (है) (तथा) सुसमर्थ (होते हुए) भी जो दूसरों का उपकार करने वाले नहीं है, उन (दोनों) के द्वारा कुछ भी (लाभ) नहीं है।
41. सूखे हुए तथा घिसे गए चन्दन के द्वारा भी निश्चय ही किसी न किसी प्रकार
गन्ध फैली हुई है, जिससे कि अस्तित्व में आई हुई (बनी हुई) सरस फूलों की माला भी सुगन्ध से लज्जित (होती है)।
42. विधि के द्वारा घड़े हुए उस जैसे चन्दन के वृक्ष का एक ही दोष है (कि) दुष्ट
सर्प क्षण के लिए भी जिसके (उसके) आस-पास को नहीं छोड़ते हैं।
43. बहुत बड़े वृक्षों के बीच में चन्दन की शाखा सर्प दोष के कारण काट दी जाती - है, जैसे अपराधरहित भद्र पुरुष दुष्टसंग के कारण (कष्ट दिया जाता है)।
44. समुद्र के द्वारा नहीं जाने हुए गुणों के कारण (समुद्र के द्वारा) रत्न यद्यपि
परित्याग किया गया है, तो भी पन्ने का टुकड़ा जहाँ भी गया वहाँ ही मूल्यवान - (सिद्ध हुआ है)।
45.
(किसी भी) मनुष्य के दोष को ही ग्रहण मत करो, (उसके) विरल गुणों की भी प्रशंसा करो। बहुत अधिक रुद्राक्ष (युक्त) समुद्र भी लोक में रत्नाकर कहा जाता है।
46.
लक्ष्मी के बिना (भी) रत्नाकर की गम्भीरता उसी तरह ही (बनी हुई है), (किन्तु) कहो, वह लक्ष्मी उसके (समुद्र के) बिना किसके घर नहीं पहुँची ?
47. . (यद्यपि) समुद्र वडवानल (भीतरी आग) के द्वारा ग्रसा हुआ (है), सकल .. सुर-असुरों द्वारा मथा गया (है) और लक्ष्मी के द्वारा त्यागा गया (है), (फिर
भी) उसकी गम्भीरता को देखो।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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. 48.
रयणेहि निरंतरपूरिएहि रयणायरस्स न हु गव्वो। करिणो मुत्ताहलसंसए वि मयविन्भला दिट्ठी॥ ..
49.
रयणायरस्स न हु होइ तुच्छिमा निग्गएहि रयणेहिं। तह वि हु चंदसरिच्छा विरला रयणायरे रयणा॥
50.. जइ विहु कालवसेणं ससी समुद्दाउ कह वि विच्छुडिओ।
तह वि हु तस्स पयासो आणंदं कुणइ दूरे वि॥
__ 14
.
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -2
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रत्नों से निरन्तर भरे हुए भी रत्नाकर के गर्व नहीं है, (किन्तु) मोती के संशय में भी हाथी की मद में तल्लीन दृष्टि (होती है)।
बाहर निकले हुए रत्नों के कारण भी समुद्र के तुच्छता नहीं होती है, किन्तु फिर भी (यह कहा जा सकता है कि) समुद्र में थोड़े (ही) रत्न चन्द्रमा के समान (होते हैं) (जो समुद्र के लिए आनन्द करते हैं)।
यद्यपि विधि के वश से ही चन्द्रमा किसी तरह समुद्र से बिछुड़ा हुआ है, तो भी उसका प्रकाश दूर होने पर भी (समुद्र के लिए) आनन्द करता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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• पाठ - 2 'गउडवहो
1.
इह ते जअंति कइणो जअमिणमो जाण सअल-परिणाम। . वाआसु ठिअं दीसइ आमोअ-घणं व तुच्छं व॥
2. णिअआएँच्चिअ वाआएँ अत्तणो गारवं णिवेसंता।
जे एंति पसंसंच्चिअजअंति इह ते महा-कइणो॥
...
3.
दोग्गच्चम्मि वि सोक्खाइँ ताण विहवे वि होंति दुक्खाई। कव्व-परमत्थ-रसिआइँ जाण जाअंति हिअआइँ॥..
सोहेइ सुहावेइ अ उवहुज्जंतो लवो वि लच्छीए। देवी सरस्सई उण असमग्गा किं पि विणडेड्र॥
5.
लगिहिइ ण वा सुअणे वयणिज्जं दुज्जणेहिँ भण्णतं। ताण पुण तं सुअणाववाअ-दोसेण संघडइ॥
6.
जाण असमेहिँ विहिआ जाअइ जिंदा समा सलाहा वि। जिंदा वि तेहिँ विहिआ ण ताण मण्णे किलामेइ॥
7.
हरइ अणू वि पर-गुणो गरुअम्मि वि णिअ-गुणे ण संतोसो। सीलस्स विवेअस्स अ सारमिणं एत्तिअं चेअ॥
16
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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1.
पाठ - 2
गउडवहो इस लोक में वे कवि जीतते हैं (सफल होते हैं) जिनकी वाणियों (काव्यों) में सकल अभिव्यक्ति विद्यमान (है)। (और इसलिए) वह जगत या तो हर्ष से पूर्ण या तिरस्कार (योग्य) देखा जाता है।
2.
स्वकीय वाणी के द्वारा ही निज के गौरव को स्थापित करते हुए जो निश्चय ही प्रशंसा प्राप्त करते हैं, वे महाकवि इस लोक में जीतते हैं (सफल होते हैं)। .
3.
जिनके हृदय काव्य-तत्त्व के रसिक होते हैं, उन (व्यक्तियों) के लिए निर्धनता में भी (कई प्रकार के) सुख (होते हैं) (तथा) वैभव में भी (कई प्रकार के) दुःख होते हैं।
4.
लक्ष्मी की थोड़ी मात्रा भी उपभोग की जाती हुई शोभती है तथा सुखी करती है, किन्तु किंचित् भी.अपूर्ण देवी सरस्वती (अधूरी विद्या) उपहास करती है।
दुर्जनों द्वारा कही हुई, निन्दा सज्जनों को लगेगी अथवा नहीं (लगेगी) (कहा नहीं जा सकता), किन्तु वह (निन्दा) सज्जनों की निन्दा (से उत्पन्न) दोष के कारण उन (दुर्जनों) के (ही) घटित हो जाती है।
जिनके लिए असमान (व्यक्तियों) के द्वारा की गई प्रशंसा भी निन्दा के समान होती है, उनके मन को उन (असमान व्यक्तियों) के द्वारा की गई निन्दा भी खिन्न नहीं करती है।
दूसरे का छोटा गुण भी (महान व्यक्ति को) प्रसन्न करता है, (किन्तु) (उसे) अपने बड़े गुण में भी सन्तोष नहीं (होता है)। शील और विवेक का यह इतना ही सार है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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8.
णिव्वाडंताण सिवं सअलं चिअ सिवअरं.तहा ताण । णिव्वडइ किं पिजह ते वि अप्पणा विम्हअमुवेंति॥
9.
तं खलु सिरीऍ रहस्सं जं सुचरिअ-मग्गणेक्क-हिअओ वि। अप्पाणमोसरंतं गुणेहिं लोओ ण लक्खेइ॥
10.
एक्के लहुअ-सहावा गुणेहि लहिउं महंति धण-रिद्धि। . अण्णे विसुद्ध-चरिआ विहवाहि गुणे विमग्गंति॥
11.
दूमिज्जंता हिअएण किं पि चिंतेंति जइ ण जाणामि। . किरियासु पुण पअटुंति सज्जणा णावरद्धे वि॥
12. महिमं दोसाण गुणा दोसा वि हु देति गुण-णिहाअस्स।
दोसाण जे गुणा ते गुणाण जइ ता णमो ताण॥
13.
संसेविऊण दोसे अप्पा तीरइ गुण-टिओ काउं। णिव्वडिअ-गुणाण पुणो दोसेसु मई ण संठाइ॥
14.
जह जह णग्घंति गुणा जह जह दोसा अ संपइ फलंति। अगुणाअरेण तह तह गुण-सुण्णं होहिइ जंअं पि॥
18
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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(स्व-पर के) कल्याण को सिद्ध करते हुए (मनुष्यों).के लिए समग्र (लोक) ही अधिक कल्याणकारी (हो जाता है)। उनके लिए कुछ इस प्रकार सिद्ध होता है, जिससे वे स्वयं भी आश्चर्य को प्राप्त करते हैं।
वास्तव में लक्ष्मी की (प्राप्ति का) वह (यह) रहस्य (है) कि (धनी) मनुष्य सुचरित्र (व्यक्तियों) की खोज में स्थिर हृदय (होता है), यद्यपि वह गुणों से निज को फिसलते हुए नहीं देखता है।
कुछ (व्यक्ति) (जिनके) स्वभाव तुच्छ (हैं) गुणों के द्वारा धन-वैभव को प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, दूसरे (व्यक्ति) (जिनके) चरित्र विशुद्ध (हैं) वैभव के द्वारा गुणों को चाहते हैं।
11.
यदि पीड़ा दिये जाते हुए सज्जन हृदय में कुछ विचारते हैं (तो) (मैं) (यह) नहीं जानता हूँ; किन्तु (इतना निश्चित है कि) (वे) (अपने प्रति) अपराध में (अपराधी के प्रति) भी सावध क्रियाओं में प्रवृत्ति नहीं करते हैं।
12.
(यह ठीक है कि) गुण, दोषों के लिए तथा दोष भी गुण-समूह के लिए महिमा प्रदान करते हैं, (किन्तु) दोषों के जो गुण (हैं), वे यदि गुणों के (हों) तो उन (मुणों) के लिए नमस्कार। (जैसे दोषों के द्वारा सांसारिक जीवन में सफलता मिल जाती है, वह यदि गुणों से मिल जाय तो गुणों को नमस्कार)।
-13.
दोषों को खूब भोग करके (भी) आत्मा गुणों को (अपने में) अवस्थित करने के लिए समर्थ होती है, किन्तु गुणों के सिद्ध होने पर (तो) दोषों में (बिल्कुल ही) मति नहीं रहती है।
14.
जैसे-जैसे इस समय गुण शोभायमान नहीं होंगे, (तथा) जैसे-जैसे (इस समय) दोष फलेंगे, वैसे-वैसे जगत भी अगुणों के आदर से गुण-शून्य हो जायेगा।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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.
15.
अच्चंत-विएएण.वि गरुआण ण णिव्वडंति संकप्पा। विज्जुज्जोओ बहलत्तणेण मोहेइ अच्छीइं॥
16.
उवअरणीभूअ-जआ ण हु णवर ण पाविआ पहु-ट्ठाणं। उवअरणं पि ण जाआ गुण - गुरुणो काल - दोसेण॥
17. विसइच्चेअ सरहसं जेसुं किं तेहिं खंडिआसेहिं।
णिक्खमइ जेसु परिओस - णिब्भरो ताइँगेहाइं॥
18.
साहीण - सज्जणा वि हुणीअ - पसंगे रमंति काउरिसा। सा इर लीला जं काअ - धारणं सुलह - रअणाण॥.
19.
किविणाण अण्ण - विसए दाण - गुणे अहिसलाहमाणाण। णिअ - चाए उच्छाहो ण णाम कह वा ण लज्जा वि॥
20.
सइ जाढर - चिंताअड्ढिअंव हिअ अहो मुहं जाण। उधुर - चित्ता कह णाम होंतु ते सुण्ण - ववसाया॥
21.
अघडिअ - परावलंबा जह जह गरुअत्तणेण विहडंति। तह तह गरुआण हवंति बद्ध-मूलाओ कित्तीओ॥
22.
तण्हा अखंडिअच्चिअ विहवे अच्चुण्णए वि लहिऊण। सेलं पि समारुहिऊण किं व गअणस्स आरूढं।
20
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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15. अत्यन्त ओजस्वी होने के. कारण ही महान (व्यक्तियों) के संकल्प सम्पन्न
नहीं होते हैं। (ठीक ही है) पुष्कलता के कारण बिजली का प्रकाश आँखों - को अस्त-व्यस्त कर देता है।
16.
(यद्यपि) गुणों में महान (व्यक्ति तो) मानव जाति के अन्दर उपकार करने वाले हुए (हैं) (फिर भी) आश्चर्य ! (वे) न केवल उच्च स्थान को नहीं पहुँचे (हैं) (पर) काल-दोष से (उन्होंने) (जीविका का) साधन भी नहीं पाया है।
(मनुष्य) जिन (घरों) में उत्सुकता से प्रवेश करता है, (किन्तु) छिन्न-आशाओं से ही बाहर निकलता है, उन (घरों) से क्या (लाभ) ? जिन (घरों) में पूर्ण सन्तोष (होता है) वे (ही) (वास्तव में) घर (हैं)।
18.
आश्चर्य ! दुष्ट पुरुष नीच-संगति में ही प्रसन्न होते हैं, (यद्यपि) सज्जन (उनके) निकट (होते हैं)। वह निश्चय ही (उनकी) स्वेच्छाचारिता (है) कि रत्नों के सुलभ होने पर (भी) (उनके द्वारा) काँच ग्रहण (किया जाता है)।
-
19.
दूसरों के विषय में दान-गुण को सराहते हए (भी) कृपण के निजत्याग में उत्साह नहीं है, और आश्चर्य (उसके) लज्जा भी कैसे नहीं है ?
20. . जिनका मुख नीचे है तथा हृदय सदा पेट से सम्बन्ध रखने वाली चिन्ता से
खिंचा हुआ है, (उनके लिए) ऊँचे उद्देश्य कैसे सम्भव हों ? (वास्तव में) वे (लोग) (उच्च) प्रयत्न से विहीन (होते हैं)।
21.- महापुरुषों के द्वारा दूसरे (व्यक्ति) सहारे नहीं बनाए गए हैं, जैसे-जैसे (वे)
(मनुष्यों द्वारा) (किए गए) सम्मान से अलग होते हैं, वैसे-वैसे (उनकी) कीर्ति (गहरी) जड़ पकड़े हुए होती है।
22.
आश्चर्य ! (सम्पत्ति की) बहुत ऊँची (स्थितियों) को प्राप्त करके भी सम्पत्ति में तृष्णा नहीं मिटाई गई (है), तो पर्वत पर चढ़कर क्या गगन पर चढ़ना है ?
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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1.
2.
3.
4.
5.
6.
22
पाठ
दशवैकालिक
समाए - पेहाए परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नो वि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ॥
-
3.
आयावयाही चय सोगुमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ।
सव्वभूयऽप्पभूयस्स सम्मं भूयाइं पासओ । पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई ॥
पढमं नाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही ? किं वा नाहिइ छेय पावगं ? ॥
सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणई सोच्चा जं छेयं तं समायरे ॥
I
तत्थमं पढमं ठाणं महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूएस संजमो ॥
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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1.
पाठ -3
दशवैकालिक (ऐसा होता है कि) राग-द्वेष से रहित चिन्तन में भ्रमण करता हुआ मन कभी (सम अवस्था से) बाहर (विषमता में) निकल जाता है। (उस समय व्यक्ति यह विचारे कि) वह (विषमता) मेरी नहीं (है), निश्चय ही मैं भी उसका नहीं (हूँ)। इस प्रकार उस (विषमता) से (वह) आसक्ति को हटावे।
(तू) (अपने को) तपा; अति-कोमलता को छोड़; इच्छाओं को वश में कर; (इससे) निश्चय ही दुःख पार किए गए (हैं)। (तू) द्वेष को नष्ट कर; राग को हटा; इस प्रकार (तू) संसार में सुखी होगा।
3.
सब प्राणियों का (सुख-दुःख) अपने समान (होने) के कारण (जो व्यक्ति) (उन) प्राणियों में (स्व-तुल्य आत्मा का) अच्छी तरह से दर्शन करनेवाला (होता है), (वह) रोके हुए आश्रव के कारण (तथा) आत्म-नियन्त्रित होने के कारण अशुभं कर्म को नहीं बाँधता है।
4.
सर्वप्रथम (प्राणियों की आत्मा-तुल्यता का) ज्ञान (करो); बाद में (ही) (उनके प्रति) करुणा (होती है)। इस प्रकार प्रत्येक (ही) संयत (मनुष्य) आचरण करता है। (प्राणियों की आत्म-तुल्यता के विषय में) अज्ञानी (व्यक्ति) क्या करेगा ? (वह) हित (और) अहित को कैसे जानेगा?
5...
(मनुष्य) मंगलप्रद को सुनकर समझता है; (वह) अनिष्टकर को (भी) सुनकर (ही) समझता है; (वह) दोनों (मंगलप्रद और अनिष्टकर) को भी सुनकर (ही) समझता है। (इसलिए) (इन दोनों में से) जो मंगलप्रद (है), (वह) उसका आचरण करे।
6.
.
-
वहाँ पर (व्रतों आदि में) (अहिंसा का) यह सर्वप्रथम स्थान महावीर के द्वारा उपदिष्ट (है)। (महावीर के द्वारा) अहिंसा सूक्ष्म रूप से जानी गई है। (उसका सार है) - सब प्राणियों के प्रति करुणाभाव। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
• 23
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7.
न बाहिरं परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे। सुयलाभे न मज्जेज्जा जच्चा तवसि बुद्धिए॥
. 8.
एवं-धम्मस्स विणओ मूलं, परमो से मोक्खो। जेण कित्तिं सुयं सग्यं निस्सेसं चाभिगच्छई॥
तहेव अविणीयप्पा उववज्झा हया गया। दीसंति दुहमेहंता आभिओगमुवट्ठिया॥
10.
तहेव सुविणीयप्पा उववज्झा हया गया। दीसंति सुहमेहंता इड्ढि पत्ता महायसा॥
11.
तहेव सुविणीयप्पा लोगंसि नर-नारिओ। दीसंति सुहमेहंता इड्ढि पत्ता महायसा॥
12.
अप्पणट्ठा परट्ठा वा कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए।
13.
अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो। सव्वसो तं न भासेज्जा भासं अहियगामिणिं॥
24
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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7.
8.
9.
10.
11.
12.
13.
(व्यक्ति) बाह्य (दूसरे) का तिरस्कार नहीं करे, अपने को ऊँचा नहीं दिखाए, ज्ञान का लाभ होने पर गर्व नहीं करे, (तथा) जाति का, तपस्वी ( होने) का (और) बुद्धि का (गर्व न करे ) ।
इस प्रकार धर्म का मूल विनय (है), उसका अन्तिम' (परिणाम) परम - शान्ति (है)। जिससे (विनय से ) (व्यक्ति) कीर्ति, प्रशंसनीय ज्ञान और समस्त (गुण) प्राप्त करता है।
( जिस प्रकार ) राजकीय वाहन के रूप में काम आनेवाले (उद्दण्ड ) हाथी (और) घोड़े दुःख में बढ़ते हुए देखे जाते हैं, उसी प्रकार (किसी भी प्रकार के) प्रयास में लगे हुए अविनीत मनुष्य ( भी ) ( दुःख में बढ़ते हुए देखे जाते
1
(जिस प्रकार ) राजकीय वाहन के रूप में काम आनेवाले (सुशील) हाथी (और) घोड़े सुख में बढ़ते हुए देखे जाते हैं, उसी प्रकार विनीत मनुष्यों ने महान यश के कारण वैभव प्राप्त किया।
(जिस प्रकार ) लोक में (सुशील) नर-नारियाँ सुख में बढ़ती हुई देखी जाती हैं, उसी प्रकार विनीत मनुष्यों ने महान यश के कारण वैभव प्राप्त किया।
(मनुष्य) निज के लिए या दूसरे के लिए क्रोध से या भले ही भय से पीड़ाकारक (वचन) (और) असत्य (वचन) (स्वयं) न बोले, न ही दूसरे से बुलवाए।
जिससे मानसिक पीड़ा हो और दूसरा शीघ्र क्रोध करने लगे, उस अहित करनेवाली भाषा को (व्यक्ति) बिल्कुल न बोले ।
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14. सज्झाय-सज्झाणरयस्स ताइणो
अपावभावस्स तवे रयस्स। विसुज्झई जं से मलं पुरेकडं
समीरियं रुप्पमलं व जोइणा॥
15.
विणयं पि जो उवाएण चोइओ कुप्पई नरो। दिव्वं सो सिरिमेज्जंतिं दंडेण पडिसेहए॥
16.
दुग्गओ वा पओएणं चोइओ वहई रहं। .. एवं दुब्बुद्धि किच्चाणं वुत्तो वुत्तो पकुव्वई॥ . .
17. मुहत्तदुक्खा हु हवंति कंटया
अओमया, ते वि तओ सुउद्धरा। वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि
वेराणुबंधीणि महन्भयाणि॥
18.
गुणेहिं साहू, अगुणेहऽसाहू
__ गेण्हाहि साहूगुण, मुंचऽसाहू। वियाणिया अप्पगमप्पएणं
जो राग-दोसेहिं समो, स पुज्जो॥
19. विविहगुणतवोरए य निच्चं
भवइ.निरासए निज्जरट्टिए। तवसा धुणइ पुराणपावगं
जुत्तो सया तवसमाहिए॥
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स्वाध्याय और सद्-ध्यान में लीन (व्यक्ति) का, उपकारी का, निष्पाप मन (वाले) का, ताप में लीन (व्यक्ति) का-(इन सबका) पूर्व में किया हुआ जो (भी) दोष (है), (वह) शुद्ध हो जाता है, जैसे कि अग्नि के द्वारा झकझोरे हए सोने का मैल (शुद्ध हो जाता है)।
विनय में युक्ति के द्वारा भी प्रेरित जो मनुष्य क्रोध करता है, वह आती हुई दिव्य संपत्ति को डण्डे से रोक देता है।
जैसे अंकुश के द्वारा प्रेरित दुष्ट हाथी रथ को आगे चलाता है, इसी प्रकार दुर्बुद्धि (शिष्य) कर्तव्यों को कहा हुआ, कहा हुआ (ही) करता है।
लोहे से बने हुए काँटे (शरीर में लगने पर) थोड़ी देर के लिए ही दुःखमय होते हैं तथा वे बाद में (शरीर से) आसानी से निकाले जा सकने वाले (होते हैं), (किन्तु) वाणी के द्वारा .(बोले गए) दुर्वचन (जो काँटों के तुल्य होते हैं) कठिनाई से निकाले जा सकने वाले (कठिनाई से भुलाए जा सकने वाले) (होते हैं), (वे) वैर को बाँधनेवाले (तथा) महा भय पैदा करने वाले (होते
(व्यक्ति) सुगुणों के कारण साधु (होता है), (और) दुर्गुणसमूह के कारण ही
असाधु। (अतः) (तुम) साधु (बनने) के लिए सुगुणों को ग्रहण करो (और) *(उन दुर्गुणों को) छोड़ो (जिनके कारण) (व्यक्ति) असाधु (होता है)। (समझो) जो (व्यक्ति) आत्मा को आत्मा के द्वारा जानकर राग-द्वेष में समान (होता है), वह पूज्य (है)।
(जो) कर्म-क्षय का इच्छुक (व्यक्ति) (है), (वह) सदा अनेक प्रकार के शुभ परिणामों को (उत्पन्न करने वाले) तप में लीन (रहता है) तथा (वह) (संसारी फल की) आशा से शून्य होता है। (इस तरह से) (जो) तप-साधना में सदा संलग्न (रहता है), (वह) तप के द्वारा पुराने पापों को नष्ट कर देता है।
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20.
21.
22.
28
जयाय चयई धम्मं अणज्जो भोगकारणा । से तत्थ मुच्छिए बाले आयइं नावबुज्झई ||
जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं
काएण वाया अदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा
आइण्णो खिप्पमिव क्खलीणं ॥
सुसमाहिएहिं ।
अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो सव्विदिएहिं अरक्खिओ जाइपहं उवेई सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥
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जब अज्ञानी (व्यक्ति) भोग के प्रयोजन से धर्म (अध्यात्मिक मूल्यों) को सर्वथा छोड़ देता है, (तो) (यह कहना ठीक है कि) वह अज्ञानी उस (भोग) में मूर्च्छित (है)। (इस तरह से) (वह) (अपने) भविष्य को नहीं समझता है।
जहाँ कहीं धीर (व्यक्ति) मन से, वचन से या काया से खराब (कार्य) किया हुआ (अपने में) देखे, वहाँ ही (वह) (अपने को) पीछे खींचे, जैसे कुलीन घोड़ा लगाम को (देखकर) (अपने को) तुरन्त (पीछे खींच लेता है)।
निस्सन्देह आत्मा पूरी तरह से उपशमित सभी इन्द्रियों द्वारा सदा सुरक्षित की जानी चाहिए। अरक्षित (आत्मा) जन्ममार्ग की ओर जाती है। सुरक्षित (आत्मा) सब दुःखों से छुटकारा पाती है।
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पाठ -4 आचारांग
1.
अहासुतं वदिस्सामि जहा से समणे भगवं उट्ठाय। संखाए तंसि हेमंते अहुणा पव्वइए रीइत्था॥
2.
अदु पोरिसिं तिरियभित्तिं चक्खुमासज्ज अंतसो झाति। अह चक्खुभीतसहिया ते हंता हंता बहवे कंदिसु॥ .
___3.
जे केयिमे अगारत्था मीसीभावं पहाय से झाति। पुट्ठो वि णाभिभासिंसु गच्छति णाइवत्तती अंजू॥
फरिसाइं दुत्तितिक्खाई अतिअच्च मुणी परक्कममाणे। आघात-णट्ट-गीताई दंडजुद्धाइं मुट्ठिजुद्धाइं॥
5..
गढिए मिहुकहासु समयम्मि णातसुते विसोगे अदक्खु। एताई से उरालाई गच्छति णायपुत्ते असरणाए।
6.
पुढविं च आउकायं च तेउकायं च वायुकायं च। पणगाइं बीयहरियाई तसकायं च सव्वसो णच्चा।
301
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पाठ
आचारांग
-
4
जैसा कि सुना है (मैं) कहूँगा । (आत्मस्वरूप को) जानकर श्रमण भगवान उस हेमन्त (ऋतु) में (सांसारिक परतन्त्रता को ) त्यागकर दीक्षित हुए (और) वे इस समय (ही) विहार कर गए।
अब (महावीर) तिरछी भीत पर प्रहर (तीन घण्टे की अवधि) तक (पलक न झपकाई हुई) आँखों को लगाकर आन्तरिक रूप से ध्यान करते थे। तब (उन असाधारण) आँखों के डर से युक्त वे (बे - समझ लोग) यहाँ आओ ! देखो ! (कहकर ) बहुत लोगों को पुकारते थे।
और (यदि) ये (महावीर) किन्हीं घर में रहने वालों के (स्थानों ) ( पर ठहरते थे), (तो) वे (वहाँ उनसे) मेलजोल के विचार को छोड़कर ध्यान करते थे । (यदि) (उनसे कभी कोई बात पूछी गई (होती थी) (तो) भी (वे) बोलते नहीं थे, (कोई बाधा उपस्थित होने पर) ( वे) ( वहाँ से) चले जाते थे, (वे) (सदैव) संयम में तत्पर (होते थे) (और) (वे) (कभी) (ध्यान की) उपेक्षा नहीं करते थे।
दुस्सह कटु वचनों की अवहेलना करके मुनि (महावीर) (आत्म- ध्यान में) (ही) पुरुषार्थ करते हुए (रहते थे) । (वे) कथा-नाच-गान में (तथा) लाठीयुद्ध (और) मूठी - युद्ध में (समय नहीं बिताते थे)।
परस्पर (काम) कथाओं में तथा ( कामातुर) इशारों में आसक्त (व्यक्तियों) को ज्ञात-पुत्र (महावीर) (हर्ष)-शोक रहित देखते थे। वे ज्ञात-पुत्र इन मनोहर (बातों) का स्मरण नहीं करते थे ।
पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, शैवाल, बीज और हरी वनस्पति तथा त्रसकाय को पूर्णतया जानकर (महावीर विहार करते थे) ।
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एताइं संति पडिले चित्तमंताइं से अभिण्णाय । परिवज्जियाण विहरित्था इति संखाए से महावीरे ॥
मातणे असणपाणस्स णाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे । अच्छि पि णो पमज्जिया णो वि य कंडुयए मुणी गातं ॥
अप्पं तिरियं पेहाए अप्पं पिट्ठओ उप्पेहाए । अप्पं बुइ पडिभाणी पथपेही चरे जतमाणे ॥
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आवेसण सभा - पवासु पणियसालासु एगदा वासो । अदुवा पलियट्ठाणेसु पलालपुंजेसु एगदा वासो ॥
आगंतारे आरामागारे नगरे वि एगदा वासो । सुसाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले वि एगदा वासो ॥
तेहिं मुणी सयणेहिं समणे आसि पतेलस वासे । राइदिवं पि जयमाणे अप्पमत्ते समाहिते झाती ॥
द्दिं पि णो पगामाए सेवइया भगवं उट्ठाए । जग्गावतीय अप्पाणं ईसिं साईय अपडिण्णे ||
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ये चेतनवान हैं, उन्होंने देखा । इस प्रकार वे महावीर जानकर (और) समझकर (प्राणियों की हिंसा का ) परित्याग करके विहार करते थे।
मुनि (महावीर) खाने-पीने की मात्रा को समझनेवाले (थे), (भोजन के) रसों में लालायित नहीं होते) (थे)। (वे) (भोजन- सम्बन्धी) निश्चय नहीं (करते थे)। (आँख में कुछ गिरने पर) ( वे) आँख को भी नहीं पोंछकर ( रहते थे) अर्थात् नहीं पोंछते थे और (वे) शरीर को भी खुजलाते नहीं (थे) ।
मार्ग को देखने वाले (महावीर) तिरछे (दाएँ-बाएँ) देखकर नहीं ( चलते थे), पीछे की ओर देखकर नहीं ( चलते थे), (किसी के द्वारा ) संबोधित किए गए होने पर (वे) उत्तर देने वाले नहीं (होते थे) । ( इस तरह से) (वे) सावधानी बरतते हुए गमन करते थे ।
(महावीर का ) कभी शून्य घरों में, सभा भवनों में, दुकानों में रहना (होता था)। अथवा (उनका ) कभी (लुहार, सुनार, कुम्हार आदि के) कर्म - स्थानों में (और) घास - समूह में (छान के नीचे) ठहरना (होता था) ।
(महावीर का) कभी मुसाफिरखाने में, (कभी) बगीचे में (बने हुए) स्थान में (तथा) (कभी) नगर में भी रहना (होता था)। तथा (उनका ) कभी मसाण में, (कभी) सूने घर में (और) (कभी) पेड़ के नीचे के भाग में भी रहना (होता 'था)।
इन (उपर्युक्त) स्थानों में मुनि (महावीर) (चल रहे ) तेरहवें वर्ष में (साढ़े बारह वर्षपन्द्रह दिनों में) समता-युक्त मन वाले रहे। (वे) रात-दिन ही (संयम में) सावधानी बरतते हुए अप्रमाद-युक्त (और) एकाग्र (अवस्था) में ध्यान करते थे।
भगवान (महावीर) आनन्द के लिए कभी भी नींद का उपभोग नहीं करते थे । और (नींद आती तो ) ठीक उसी समय अपने को खड़ा करके जगा लेते थे । (वे) (वास्तव में) (नींद की) इच्छारहित (होकर) बिल्कुल - थोड़ा सा सोनेवाले. (थे)।
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.. 14.
संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उठाए। णिक्खम्म एगया राओ बहिं चक्कमिया मुहत्तागं॥
15.
सयणेहिं तस्सुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवा य। संसप्पगा य जे पाणा अदुवा पक्खिणो उवचरंति॥
16.
इहलोइयाइं परलोइयाइं भीमाई अणेगरूवाई। अवि सुन्भिदुब्भिगंधाई सद्दाइं अणेगरूवाई॥
17.
अधियासए सया समिते फासाई विरूवरूवाई। . अरतिं रतिं अभिभूय रीयति माहणे अबहुवादी॥
18.
लाढेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु। अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु णिवतिंसु॥
19.
अप्पे जणे णिवारेति लूसणए सुणए डसमाणे । छुच्छुक्कारेंति आहेतु समणं कुक्कुरा दंसतु ति॥ (छुच्छुकरेंति आहेसु समणं कुक्कुरा दसंतु त्ति)'॥
20.
हतपुव्वो तत्थ डंडेण अदुवा मुट्ठिणा अदु फलेणं। अदु लेलुणा कवालेणं हंता हंता बहवे कंदिसु॥
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14.
15.
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17.
18.
19.
20.
कभी-कभी रात में. (जब नींद सताती तो ) भगवान (महावीर) (आवास से ) बाहर निकलकर कुछ समय तक बाहर इधर-उधर घूमकर फिर सक्रिय होकर पूर्णत: जागते हुए (ध्यान में ) बैठ जाते थे।
उनके लिए (महावीर के लिए) (उन) स्थानों में नाना प्रकार के भयानक कष्ट भी (वर्तमान) थे। (वहाँ) जो भी चलने-फिरने वाले जीव (थे) और (वहाँ) (जो) (भी) पंखयुक्त (जीवे थे) (वे) (वहाँ) (उन पर) उपद्रव करते थे।
(महावीर ने इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी (अलौकिक ) नाना प्रकार के भयानक (कष्टों) को (समतापूर्वक सहन किया) । (वे) नाना प्रकार रुचिकर और अरुचिकर गन्धों में तथा शब्दों में ( राग-द्वेष- रहित रहे) ।
अहिंसक (और) बहुत न बोलनेवाले (महावीर) ने अनेक प्रकार के कष्टों को (शान्ति से) झेला (और) (उनमें ) ( वे) सदा समतायुक्त ( रहे ) | ( विभिन्न परिस्थितियों में) हर्ष (और) शोक पर विजय प्राप्त करके (वे) गमन करते रहे ।
लाढ़ देश में रहनेवाले लोगों ने उनके (महावीर के लिए बहुत कष्ट (पैदा किए) (और) (उनको) हैरान किया। (लाढ़ देश के) निवासी रूखे (थे), उसी तरह (उनके द्वारा) पकाया हुआ भोजन (भी रूखा होता था)। कुत्ते (कूकरे) वहाँ पर (महावीर को ) सन्ताप देते थे (और) (उन पर टूट पड़ते थे ।
(वहाँ पर) कुछ ही लोग (ऐसे थे) (जो) काटते हुए कुत्तों को (और) हैरान करनेवाले (मनुष्यों) को दूर हटाते थे। (किन्तु बहुत लोग ) छु-छु की आवाज करते थे (और) कुत्तों को बुला लेते थे, (फिर उनको ) महावीर के (पीछे) (लगा देते थे), जिससे (वे ) थक जाएँ (और वहाँ से चले जाएँ) ।
(कुछ लोगों द्वारा) वहाँ (महावीर पर) लाठी से अथवा मुक्के से अथवा चाकू, तलवार, भाला आदि से अथवा ईंट, पत्थर आदि के टुकड़े से, (अथवा ) ठीकरे से पहले प्रहार किया गया (होता था) (बाद में ) ( वे ही कुछ लोग ) आओ ! देखो ! (कहकर ) बहुतों को पुकारते थे।
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21.
सूरो संगामसीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे। पडिसेवमाणो फरुसाइं अचले भगवं रीयित्था॥
22.
अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा अपिवित्था। राओवरातं अपडिण्णे अण्णगिलायमेगता भुजे॥
23. . छटेण एगया भुंजे अदुवा अट्टमेण दसमेण।
दुवालसमेण एगदा भुंजे पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे॥ . .
24.
णच्चाण से महावीरे णो वि य पावगं सयमकासी। अण्णेहिं विण कारित्था कीरंतं पि णाणुजाणित्था॥
25.
गामं पविस्स णगरं वा घासमेसे कडं परट्ठाए। सुविसुद्धमेसिया भगवं आयतजोगताए सेवित्था॥
अकसायी विगतगेही य सद्द-रूवेसुऽमुच्छिते झाती। छउमत्थे वि विप्परक्कममाणे ण पमायं सई पि कुग्वित्था॥
27.
सयमेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए। अभिणिव्वुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं समितासी॥
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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21.
जैसे (कवच से) ढका हुआ योद्धा संग्राम के मोर्चे पर (रहता है), (वैसे ही) वे . महावीर वहाँ (लाढ़ देश में) कठोर (यातनाओं) को सहते हए (आत्म-नियन्त्रित रहे) (और) (वे) भगवान (महावीर) अस्थिरता-रहित (बिना डिगे) विहार करते थे।
22.
और दो मास से अधिक अथवा छ: मास तक भी (वे) (कुछ) नहीं पीते थे। रात में और दिन में (वे) (सदैव) राग-द्वेष-रहित (समतायुक्त) (रहे)। कभीकभी (उन्होंने) बासी (तन्द्रालु) भोजन (भी) खाया।
23.
कभी (वे) दो दिन के उपवास के बाद में, तीन दिन के उपवास के बाद में, अथवा चार दिन के उपवास के बाद में भोजन करते थे। कभी (वे) पाँच दिन के उपवास के बाद में भोजन करते थे। (वे) समाधि को देखते हुए निष्काम (थे)।
24.
वे महावीर (आत्मस्वरूप को) जानकर स्वयं भी बिल्कुल पाप नहीं करते थे (तथा) दूसरों से भी पाप नहीं करवाते थे (और) किए जाते हुए (पाप का) अनुमोदन भी नहीं करते थे।
.
25.
गाँव या नगर में प्रवेश करके भगवान (महावीर) (वहाँ) दूसरे के लिए (गृहस्थ के लिए) बने हुए आहार की (ही) भिक्षा ग्रहण करते थे। (इस तरह) सुविशुद्ध (आहार की) भिक्षा ग्रहण करके (वे) संयत (समतायुक्त) योगत्व से (उसको) उपयोग में लाते थे।
26.
(महावीर) कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ)-रहित (थे), (उनके द्वारा) लोलुपता नष्ट कर दी गई (थी), (वे) शब्दों (तथा) रूपों में अनासक्त (थे)
और ध्यान करते थे। (जब वे) असर्वज्ञ (थे), (तब).भी (उन्होंने) साहस के साथ (संयम पालन) करते हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया।
. 27. . आत्म-शुद्धि के द्वारा संयत प्रवृत्ति को स्वयं ही प्राप्त करके भगवान शान्त
(और) सरल (बने)। (वे) जीवनपर्यन्त समतायुक्त रहे।
...
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पाठ-5 .. .
प्रवचनसार चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥
अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं। . अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुधुवओगप्पसिद्धाणं॥ . .
सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं। .. जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं॥ .
__णाणं अप्प त्ति मदं वदि णाणं विणा ण अप्पाणं।
तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा॥
5.
ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं॥
तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णस्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति॥
7.
सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि। सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो॥
8.
देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा॥
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पाठ -5 प्रवचनसार
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चारित्र निश्चय ही धर्म (है)। जो समता (है), वह ही धर्म कहा गया है। मूर्छा रहित और व्याकुलतारहित आत्मा का भाव ही समता (है)।
शुद्धोपयोग (वीतरागभाव) से विभूषित (जीवों) का सुख श्रेष्ठ, आत्मा से उत्पन्न, इन्द्रिय-विषयों से परे, अनुपम, अनन्त और सतत (होता है)।
केवलज्ञानी के देह विषयक सुख तथा दुःख नहीं है। चूँकि (उसके) अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है, इसलिए ही वह (बात) समझने योग्य (है)।
(इस प्रकार कहा गया है कि) ज्ञान आत्मा (है)। आत्मा के बिना ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए ज्ञान आत्मा (है)। (संक्षेप में) आत्मा ज्ञान (है) तथा (सुखादि) अन्य भी।
5. .
अरिहन्तों के (उस) समय में उनका खड़ा होना, बैठना, गमन और धर्मोपदेश स्त्रियों के मातारूप आचरण की तरह स्थिर (प्रकृतिदत्त) (होता) है।
6...
यदि मनुष्य की आँख अँधकार को हरनेवाली (हो जाए) (तो) दीपक के द्वारा करने योग्य (कुछ भी) नहीं (होता है)। उसी प्रकार (यदि) स्वयं आत्मा सुख है, (तो) वहाँ इन्द्रिय-विषय क्या (सुख) उत्पन्न करते हैं।
7:
जिस प्रकार आकाश में सूर्य स्वयं ही प्रकाशरूप (है), ऊष्णरूप (है) और दिव्यरूप (है), उसी प्रकार लोक में सिद्ध भी ज्ञानरूप (है), सुखरूप (है) और . वैसे ही दिव्यरूप (हैं)।
8.
(जो) व्यक्ति देव, संन्यासी और गुरु की आराधना में और दान में तथा व्रतों में तथा उपवासादि में अनुरक्त हैं (वह) शुभ उपयोगस्वभाववाला (कहा गया
..
ह)
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9...
सपरं बाधासहियं विछिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।
10. -
आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे। ण चयदि जाव ममत्तं देहपधाणेसु विसयेसु॥
-
11. . जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे।
जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स॥
जावा
12. रत्तो बंधदि कम्म मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा।
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो।
13.
देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा। . जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा॥
14.
जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं॥
15.
जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरूंभित्ता। समवट्टिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा॥
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9.
जो इन्द्रियों से प्राप्त सुख (है), वह दूसरे (की अपेक्षा)- सहित, बाधायुक्त, नाशवान, कर्मबन्ध का कारण तथा असमान (है), वह (सुख) (इन कारणों से) दुःख ही है।
10. जब तक कर्म से मलिन आत्मा देह मूलवाले विषयों में ममत्व नहीं छोड़ता है,
(तब तक) (वह) बार-बार दूसरे जीवन को धारण करता है।
11.
जो जितेन्द्रियों को जानता है, सिद्धों को समझता है, उसी प्रकार साधुओं को (समझता है) और (जो) जीवों में करुणासहित (है), उसका वह उपयोग (भाव) शुभ है।
12.
रागी कर्म को बाँधता है। रागरहित आत्मा कर्मों से छुटकारा पाता है। यह जीवों के (कर्म) बन्ध का संक्षेप है। निश्चय से (तुम) जानो।
.13.
देह या सम्पत्ति या सुख-दुःख या इसी प्रकार शत्रुजन व मित्रजन आत्मा (व्यक्ति) के लिए स्थायी नहीं हैं। (केवल) आत्मा ही स्थायी और ज्ञान स्वरूप है।
जो गृहस्थ तथा मुनि इस प्रकार सर्वोत्तम आत्मा को जानकर (उसका) ध्यान करता है वह शुद्ध आत्मा (होता हुआ) आसक्ति की गाँठ को नष्ट कर देता है।
जो मन विषयों से विरक्त है, (जिसके द्वारा) आसक्ति रूपी मैल नष्ट कर दिया गया है, (जो) निज को (बहिर्मुखी होने से) रोककर स्वभाव में भली प्रकार से अवस्थित (होता है), वह ध्यान करनेवाला होता है।
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पाठ - 6 भगवती अराधना
दुज्जणसंसग्गीए.पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि। सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण॥
णाणुज्जोवो जोवो णाणुज्जोवस्स णत्थि पडिघादो। दीवेइ खेत्तमप्पं सूरो णाणं जगमसेसं॥
विज्जा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य। किह पुण णिव्वुदिबीजं सिज्झहिदि अभत्तिमंतस्स॥
णाणुज्जोएण विणा जो इच्छदि मोक्खमग्गमुवगन्तुं। गन्तुं कडिल्लमिच्छदि अंधलओ अंधयारम्मि॥
5.
जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिपि जाण जीवाणं। एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवेसु होदि सदा॥
सव्वेसिमासमाणं हिदयं गन्भो व सव्वसत्थाणं। सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु॥
7.
जीववहो अप्पवहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया। विसकंटओ व्व हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि।
जावइयाइं दुक्खाइं होंति लोयम्मि चदुगदिगदाई। सव्वाणि ताणि हिंसाफलाणि जीवस्स जाणाहि॥
9.
कक्कस्सवयणं णिट्टरवयणं पेसुण्णहासवयणं च। जं किंचि विप्पलावं गरहिदवयणं समासेण॥
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पाठ - 6
भगवती अराधना दुर्जन के संसर्ग से सज्जन भी निश्चित रूप से अपने गुण को त्याग देता है जैसे अग्नि के योग से पानी शीतल स्वभाव को त्याग देता है।
ज्ञान रूपी प्रकाश (ही) (वास्तविक) प्रकाश (है)। ज्ञान रूपी प्रकाश का विनाश नहीं है। सूर्य अल्प क्षेत्र को (ही) प्रकाशित करता है, ज्ञान समस्त विश्व को (प्रकाशित करता है)।
विद्या भी भक्तिवान की सिद्धि को प्राप्त होती है, और सफल होती है, फिर अभक्तिवान के लिए मोक्ष रूपी बीज (रत्नत्रय) कैसे सिद्ध (निष्पन्न) होगा?
ज्ञान रूपी प्रकाश के बिना जो (ज्ञान एवं तप रूप) मोक्षमार्ग को जाने के लिए इच्छा करता है। (मानो) (वह) अन्धा अंधकार में जंगल जाने के लिए इच्छा करता है।
जैसे तुम्हारे लिए दुःख प्रिय नहीं (है), उसी प्रकार उन जीवों के लिए भी जान। इस प्रकार जानकर जीवों के प्रति सदा आत्म-सदृश होता है।
समस्त आश्रमों का हृदय, समस्त शास्त्रों का गर्भ और समस्त व्रत व गुणों का पिण्डरूप सार निश्चित रूप से अहिंसा है।
जीव-वध आत्म-वध होता है, जीव-दया निश्चित रूप से आत्म दया होती है इसलिए विषकंटक की तरह हिंसा त्यागी जानी चाहिए।
(इस) लोक में चारों गतियों में व्याप्त जितने दुःख हैं उन सभी को जीव की हिंसा के फल जानो।
कर्कश वचन, कठोर वचन, चुगली व हास्य वचन और जो कुछ भी निरर्थक वचन (है)। (वह) संक्षेप से निंदित वचन (है)।
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10.
परुसं कडुयं वयणं वेरं कलहं च जं भयं कुणइ। उत्तासणं च हीलणमप्पियवयणं समासेण ॥
11. जलचन्दणससिमुत्ताचन्दमणी तह णरस्स णिव्वाणं।
ण करन्ति कुणइ जह अत्थज्जुयं हिदमधुरमिदवयणं॥
12. सच्चम्मि तवो सच्चम्मि संजमो तह वसे सया वि गुणा।
सच्चं णिबंधणं हि य गुणाणमुदधीव मच्छाणं॥
13. माया व होइ विस्सस्सणिज्जो पुज्जो गुरुव्व लोगस्स।
पुरिसो हु सच्चवाई होदि हु सणियल्लओव पिओ॥
14.
जह मक्कडओ धादो वि फलं दट्टण लोहिदं तस्स। दूरत्थस्स वि डेवदि जइ वि घित्तूण छंडेदि॥
15.
एवं जं जं पस्सदि दव्वं अहिलसदि पावितुं तं तं। सव्वजगेण वि जीवो लोभाइट्ठो न तिप्पेदि॥
16.
जह मारुओ पवड्डइ खणेण वित्थरइ अब्भयं च जहा। जीवस्स तहा लोभो मंदो वि खणेण वित्थरइ॥
लोभे य वड्डिदे पुण कज्जाकज्जं णरोण चिंतेदि। तो अप्पणो वि मरणं अगणिंतो साहसं.कुणदि॥
सव्वो उवहिदबुद्धी पुरिसो अत्थे हिदे य सव्वो वि। सत्तिप्पहारविद्धो व होदि हिययंमि अदिदुहिदो॥
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कठोर व कड़वा वचन तथा जो बैर, कलह, भय, त्रास व तिरस्कार को उत्पन्न. करता है, संक्षेप से अप्रिय वचन है।
जल, चन्दन, चन्द्रमा, मोती एवं चन्द्रकान्तमणी (भी) मनुष्य के लिए उस प्रकार तृप्ति नहीं करते हैं जैसी (तृप्ति) अर्थयुक्त हितकारी, मधुर एवं परिमित, वचन करता है।
सत्य में तप, सत्य में संयम तथा सैकड़ों गुण रहते हैं। सत्य ही निश्चित रूप से (समस्त) गुणों का आधार है जैसे समुद्र मछलियों का (आधार) है।
सत्यवादी व्यक्ति लोगों के लिए माता की तरह विश्वासयोग्य होता है. गुरु की तरह पूज्य, अपने आत्मीय की तरह निश्चित रूप से (लोगों के लिए) प्रिय होता है।
जैसे तृप्त हुआ बन्दर भी लाल (पके हुए) फल को देखकर दूरस्थित उस (फल) के लिए कूदता है, यद्यपि ग्रहण करके ही छोड़ देता है।
इस प्रकार जीव जिस-जिस द्रव्य को देखता है, उस-उस को पाने के लिए इच्छा करता है। लोभ के आश्रित (वह) समस्त जग से भी सन्तुष्ट नहीं होता
जैसे हवा क्षण भर में बढ़ती है और जैसे मेघ फैल जाता है। उसी तरह जीव का मन्द लोभं भी क्षण भर में बढ़ जाता है।
बढ़ा हुआ लोभ होने पर फिर मनुष्य कार्य-अकार्य को नहीं विचारता है। फिर अपनी मृत्यु को भी न गिनता हुआ कोई भी घोर अपराध करता है।
सभी व्यक्ति माया (धन) से प्रछन्न बुद्धिवाले (हैं) और धन छिन जाने पर सब ही शक्ति प्रहार से घायल की तरह हृदय में अत्यन्त दुःखी होते हैं।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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19.
अथिम्मि हिदे पुरिसो उम्मत्तो विगयचेयणो होदि। मरदि व हक्कारकिदो अत्थो जीवं खु पुरिसस्स॥
20. गन्थच्चाओ इन्दियणिवारणे अंकुसो व हत्थिस्स।
णयरस्स खाइया वि य इन्दियगुत्ती असंगत्तं॥
21.
ण गुणे पेच्छदि अववददि गुणे जंपदि अजंपिदव्वं च। . रोसेण रुद्दहिदओ णारगसीलो णरो होदि॥
22. माणी विस्सो सव्वस्स होदि कलहभयवेरदुक्खाणि।
पावदि माणी णियदं इहपरलोए य अवमाणं॥
23. सयणस्स जणस्स पिओ णरो अमाणी सदा हवदि लोए।
णाणं जसं च अत्थं लभदि सकज्जं च साहेदि॥
24. तेलोक्केण वि चित्तस्स णिव्वदी णत्थि लोभघत्थस्स।
संतुट्ठो हु अलोभो लभदि दरिदो वि णिव्वाणं॥
25.
विज्जूव चंचलाइं दिट्ठपणट्ठाई सव्वसोक्खाई। जलबुब्बुदोव्व अधुवाणि हुंति सव्वाणि ठाणाणि॥
26.
रत्तिं एगम्मि दुमे सउणाणं पिण्डणं व संजोगो। परिवेसोव अणिच्चो इस्सरियाणाधाणारोग्गं॥
27.
इन्दियसामग्गी वि अणिच्चा संझाव होइ जीवाणं। मज्झण्हं व णराणं जोव्वणमणवट्ठिदं लोए।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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धन हरे जाने पर व्यक्ति पागल और चेतनारहित हो जाता है। हाहाकार करता हुआ मर जाता है। धन निश्चित रूप से व्यक्ति का प्राण है।
परिग्रह त्याग इन्द्रियों को (विषयों से) दूर रखने में (निमित्त है) जैसे हाथी के लिए अंकुश और नगर (की रक्षा) के लिए खाई। (वास्तव में) असंगता ही इन्द्रिय संयम (रक्षक) है।
(क्रोधी व्यक्ति दूसरों के) गुणों को नहीं देखता है। (दूसरों के) गुणों की निन्दा करता है। (जो) (बात) कहने योग्य नहीं है कहता है। क्रोध के कारण रौद्र हृदय- वाला (वह) मनुष्य नारकी होता है।
अभिमानी (व्यक्ति) सभी के लिए द्वेष करने योग्य होता है। अभिमानी नियम से इस (लोक) में तथा पर लोक में कलह, भय, वैर, दुःखों को तथा अपमान को पाता है।
मान रहित व्यक्तिलोक में सदा (अपने) स्वजन और (पर) जन का प्रिय होता है। ज्ञान, यश व धन को प्राप्त करता है और अपने कार्य को सिद्ध करता है।
लोभ से ग्रस्त (व्यक्ति) के मन की तीनों लोक से भी तृप्ति नहीं होती है। किन्तु निर्लोभी सन्तुष्ट दरिद्र (व्यक्ति) भी निर्वाण को प्राप्त करता है।
बिजली की तरह चंचल समस्त सुख नष्ट होते देखे गये हैं। समस्त स्थान (जहाँ जीव रहते हैं) जल के बुलबुले की तरह अस्थिर होते हैं।
ऐश्वर्य, आज्ञा, धनधान्य व आरोग्य रात को एक वृक्ष पर (मिले) पक्षियों के समूह की तरह संयोग (मात्र) है। बादलों से ढके सूर्य चन्द्र की तरह अनित्य है।
संसार में जीवों की इन्द्रिय सामग्री संध्या की तरह अनित्य होती है। (और) मनुष्यों का यौवन दोपहर की तरह अस्थिर (चंचल) (होता) है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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28.
चन्दो हीणो व पुणो वड्ढदि एदि य उदू अदीदो वि। णदु जोव्वणं णियत्तइ णदीजलगदछिदं चेव॥
29.
धावदि गिरिणदिसोदं व आउगं सव्वजीवलोगम्मि। सुकुमालदा वि हायदि लोगे पुव्वण्हछाही वे॥
30. हिमणिचओ वि व गिहसयणासणभंडाणि होति अधुवाणि।
जसकित्ती वि अणिच्चा लोए संज्झब्भरागोव्व ॥
31. इन्दियदुद्दन्तस्सा णिग्धिप्पन्ति दमणाणखलिणेहिं। ...
उप्पहगामी णिग्धिप्पन्ति हु खलिणेहिं जह तुरया॥
32. झाणं कसायरोगेसु होदि वेज्जो तिगिछदे कुसलो।
रोगेसु जहा वेज्जो पुरिसस्स तिगिछओ कुसलो॥
33.
झाणं विसयछुहाए य होइ अण्णं जहा छुहाए वा। झाणं विसयतिसाए उदयं उदयं व तण्हाए॥
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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28.
29.
30.
चन्द्रमा.घटता (है) और फिर बढ़ता है। बीती हुई ऋतु (फिर) आती है, (किन्तु) नदी के जल में (प्रवाह में ) गई हुई छोटी मछली की तरह यौवन नहीं लौटता है।
सर्व जीवलोक में आयु पहाड़ी नदी के प्रवाह की तरह दौड़ती है। (तथा) लोक में सुकुमारता भी पूर्वार्ध की छाया (की तरह) कम होती है।
लोक में घर, शय्या, आसन, भांड भी बर्फ के समूह की तरह अध्रुव होते हैं। (तथा) यश और कीर्ति भी संध्या के आकाश की लालिमा की तरह अनित्य (होते हैं)।
(जिस प्रकार) कुमार्ग गामी घोड़े लगाम द्वारा निश्चित रूप से वश में किए जाते हैं, उसी प्रकार) इन्द्रिय रूपी दुर्दम घोड़े दमनरूपी ज्ञान की लगाम से नियन्त्रित किए जाते हैं ।
जिस प्रकार व्यक्ति के रोगों में कुशल वैद्य चिकित्सा करता है । ( उसी प्रकार ) ध्यान (रूपी) वैद्य कषाय रूपी रोगों में कुशल चिकित्सक होता है।
जैसे भूख में अन्न (कारगार) होता है (वैसे ही) विषयरूपी भूख में ध्यान (रूपी) : ( अन्न उपयोगी होता है)। जैसे प्यास में पानी (उपयोगी होता है) (उसी तरह) विषयरूपी प्यास में ध्यान (रूपी) जल (उपयोगी होता है ) ।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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पाठ -7 अहेत प्रवचन
मेह्य होज्ज न होज्ज व लोए जीवाण कम्मवसगाणं। उज्जाओ पुण तह वि हु णाणंमि सया न मोत्तव्वो॥
2.
निस्संते सियामुहरी, बुद्धाणं अन्तिए सया। . अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्ठाणि उवज्जए॥ .
3.
थेवं थेवं धम्मं करेह जइ ता बहुं न सक्केह। पेच्छह महानईओ बिंदूहि समुद्दभूयाओ॥
..
जीवेसु मित्तचिंता मेत्ती करुणा य होइ अणुकम्पा। मुदिदा जदिगुणचिंता सुहदुक्खधियामणमुवेक्खा॥
तक्कविहूणो विज्जो लक्खणहीणो य पंडिओ लोए। भावविहूणो धम्मो तिण्णि वि गरुई विडम्बणया॥
6.
कोई डहिज्ज जह चंदणं णरो दारुगं च बहुमोल्लं। णासेइ मणुस्सभवं पुरिसो तह विसयलोहेण॥
7.
जेण तच्चं विबुझेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे॥
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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पाठ - 7
अर्हत प्रवचन लोक में कर्म के अधीन जीवों के मेधा हो चाहे न हो, ज्ञान की प्राप्ति के लिए उद्यम कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
1.
2.
सदा शान्त रहो, सोच कर बोलो, सदा विद्वानों के पास रहो। अर्थयुक्त बातों को सीखो और निरर्थक बातों को छोड़ दो।
3.
यदि अधिक न कर सको तो थोड़ा-थोड़ा ही धर्म करो। महानदियों को देखो, बूंद-बूंद से वे समुद्र बन जाती हैं।
जीव मात्र में मित्रता का विचार करना मैत्री, दुःखियों में दया करना करुणा, महान आत्माओं के गुणों का चिन्तन करना मुदिता और सुख तथा दुःख में समान भावना रखना उपेक्षा कहलाती है।
तर्क (ऊहापोह-विवेक) रहित वैद्य, लक्षणरहित पण्डित और भावरहित धर्म ये तीनों ही भारी विडम्बनाएँ हैं।
6. . जैसे कोई आदमी चन्दन को और बहुमूल्य अगर आदि काष्ठ को जलाता है,
वैसे ही यह मनुष्य विषयों की तृष्णा से मनुष्यभव का नाश कर देता है। .
7.
जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जान सके, जिससे चित्त का व्यापार रुक जावे और जिससे आत्मा विशुद्ध हो जावे; जिनशासन में वही ज्ञान कहलाता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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8.
9.
10.
52
जेण राग़ाविरज्जेज्ज, जेण सेएस रज्जदि । जेण मेर्त्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥
कोधं खमाए माणं च मद्देवणाज्जवं च मायं च । संतोसेण य लोहं जिणदु खुं चत्तारि वि कसाए ॥
ज इंधणेहिं अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं । तह जीवस्स ण तित्ती अत्थि तिलोगे वि लद्धम्मि ॥
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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8.
9.
10.
जिससे रागभाव से विरक्ति, जिससे आत्मकल्याण में अनुरक्ति और जिससे सर्व जीवों में मैत्रीभाव प्रभावित हो, जिनशासन में वही ज्ञान कहलाता है ।
क्षमा से क्रोध को, मार्दव से मान को, आर्जव से माथा को और सन्तोष से लोभ को - इस प्रकार चारों कषायों को जीतो ।
जैसे आग ईंधन से और लवणसुमद्र हजारों नदियों से तृप्त नहीं होता, वैसे ही तीनों लोकों की प्राप्ति हो जाने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती।
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पाठ -8
महुबिंदु-दिटुंतं कोइ पुरिसो बहुदेसपट्टणवियारी अडविं सत्थेणं समं पविट्ठो। चोरेहिं य सत्थो अब्भाहओ। सो पुरिसो सत्थपरिभट्ठो मूढदिसो परिब्भमंतो दाणदुद्दिणमुहेण वणगएण अभिभूओ। तेण पलायमाणेण पुराणकूवो तणदब्भपरिच्छन्नो दिट्ठो। तस्स तडे महंतो वडपायवो। तस्स पारोहो कूवमणुपविट्ठो।
सो पुरिसो भयाभिभूओ पारोहमवलंबिऊण ठिओ कूवमझे आलोएइ य-अहो तत्थ अयगरो महाकाओ वियारियमुहो गसिउकामोतं पुरिसमवलोएइ। तिरियं पुण चउद्दिसिं सप्पा भीसणा डसिउकामां चिट्ठति। पारोहमुवरं किण्हसुक्किला दो मूसया छिंदंति। हत्थी हत्थेण केसग्गे परामुसइ। तम्मि य पायवे महापरिणाहं महुं ठियं । गयसंचालिए य पायवे वायविहूया महुबिंदु तस्स पुरिसस्स केइ मुहमाविसंति, ते य आसाएइ । महुरा य डसिउकामा परिवयंति समंतओ।
तस्स एवंगयस्स किं सुहं होइ ? जे महुबिंदु अहिलसइ तत्तियं तस्स सुहं सेसं दुक्खं ति। उवसंहारो पुण दिटुंतस्स -
जहा सो पुरिसो, तहा संसारी जीवो। जहा सा अडवी, तहा जम्मजरारोगमरणबहुला संसाराडवी। जहा वणहत्थी, तहा मच्चू। जहा कूवो, तहा देवभवो मणुस्सभवो य। जहा अयगरो, तहा नरगतिरियगईओ। जहा सप्पा, तहा कोहमाणमायालोहा चत्तारि कसाया दोग्गइगमणनायगा। जहा पारोहो, तहा जीवियकालो। जहा मूसगा, तहा कालसुक्किला पक्खा राइंदियदसणेहिं परिक्खिवति जीवियं। जहा दुमो, तहा कम्मबंधणहेऊ अन्नाणं अविरई मिच्छत्तं च। जहा महुँ, तहा सद्दफरिसरसरूवगंधा इंदियत्था। जहा महुयरा, तहा आगंतुगा सरीरुग्णया य बाही।
तस्सेव भयसंकडे वट्टमाणस्स कओ सुहं ? महुबिंदुरसासायओ केवलं सुहकप्पणा।
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पाठ - 8
मधुबिंदु - दृष्टान्त ... कोई पुरुष अनेक देशों में विचरण करनेवाले व्यापारियों के समूह के साथ जंगल में पहुंचा और व्यापारियों का समूह चोरों के द्वारा आघात को प्राप्त हुआ। वह पुरुष व्यापारियों के समूह से निकला (और) दिग्भ्रमित सा भटकता हुआ आँधी-तूफान वाले दिन भयानक मुखवाले जंगली हाथी के द्वारा पराजित हुआ। भागते हुए उसके द्वारा तिनके व घास से ढका हुआ पुराना कुआ देखा गया। उसके किनारे पर बड़ा बड़ का पेड़ था। उसकी शाखा कुएँ में प्रवेश कर रही थी।
भय से युक्त, वह पुरुष शाखा पर लटककर कुएँ के मध्य में स्थित हुआ और देखता है, वहाँ विशालकायवाला अजगर मुँह फाड़े हुए खाने की इच्छा से उस पुरुष को देखता है। फिर तिरछा होकर देखता है। चारों दिशाओं में भीषण सर्प डसने की इच्छा से बैठे हैं। शाखा के ऊपर काले व सफेद दो चूहे उस शाखा को छेद रहे हैं। हाथी सूण्ड से उस शाखा को हिलाता है। उस पेड़ पर बहुत अधिक मात्रा में शहद था। हाथी द्वारा हिलाए जाने पर पेड़ पर हवा से हिलती हुई शहद की बूंद उस पुरुष के मुँह में आती है और वह स्वाद लेता है। भौरे खाने की इच्छा से उस पर चारों तरफ सीधे गिरते हैं।
उसका इस प्रकार जाना क्या सुखकारी है? जो (व्यक्ति) मधु के बूंद की अभिलाषा करता है, उसका क्षणिक (तृप्ति रूपी) सुख भी शेष दु:खमय हो जाता है। इस प्रकार (इस) दृष्टान्त का उपसंहार (यह) है
.. जिस प्रकार वह पुरुष है उसी प्रकार संसारी जीव है। जैसे वह जंगल है उसी तरह जन्म, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु से व्याप्त संसाररूपी जंगल है। जिस प्रकार जंगल का हाथी है उसी प्रकार मृत्यु है। जिस प्रकार कुआ (है) उसी प्रकार देवभव और मनुष्यभव है। जिस प्रकार अजगर है उसी प्रकार नरक तिर्यंचगति है। जिस प्रकार सर्प है उसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ चार कषाय दुर्गति की ओर ले जाने वाले नायक हैं। जिस तरह शाखा है उसी तरह जीवनकाल है। जिस प्रकार चूहे हैं उसी प्रकार कृष्ण व शुक्ल पक्ष रात-दिन दाँतों से जीवन को नष्ट कर रहे हैं। जैसे पेड़ है, वैसे कर्मबन्धन हेतु अज्ञान, अविरति व मिथ्यात्व है। जैसे शहद है वैसे शब्द, रूप, स्पर्श, रस, गन्ध इन्द्रियों से जानने योग्य वस्तुएँ हैं, जिस प्रकार भौरे हैं, उसी प्रकार आनेवाली शरीर से उत्पन्न व्याधि है। . .. उस शरीर को भी भय व दुःख में कहाँ सुख है? शहद की बूंद का स्वाद लेनेवाली सिर्फ सुख की कल्पना है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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पाठ - 9
रोहिणीणाए रायगिहे नयरे धण्णे नामं सत्थवाहे परिवसइ । तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स भद्दा नाम भारिया होत्था।
तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भद्दाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारया होत्था, तंजहा – धणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणरक्खिए।
तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था, तंजहा- उज्झिया, भोगवइया, रक्खिया, रोहिणिया।
जेठं सुण्हं उज्झिइयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी -
'तुमं णं पुत्ता ! मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि, जया णं अहं पुत्ता ! तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा, तया णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएज्जासि'।
एवं भोगवइयाए वि, णवरं सा छोल्लेइ, छोल्लित्ता अणुगिलइ, अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया।
एवं रक्खिया वि। संपेहित्ता ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ, पक्खिवित्ता उसीसामूले ठावेइ, ठार्वित्ता, तिसंझं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ।
चउत्थि रोहिणीयं सुण्हं सद्दावेइ । संपेहित्ता कुलघरपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी
'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! एए पंच सालिअक्खए गेण्हह, गेण्हित्ता पढमपाउसंसि। करित्ता इमे पंच सालिअक्खए वावेह । करित्ता सारखेमाणा संगोवेमाणा अणुपुव्वेणं संवड्ढेह।
. तए णं ते सालिअक्खए अणुपुव्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा संवड्डिज्जमाणा साली जाया, ____- तए णं ते कोडुंबिया ते साली नवएसु घडएसु पक्खिवंति
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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पाठ -9 रोहिणी के उदाहरण में (वर्णित शिक्षा) राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह निवास करता था उस धन्य सार्थवाह की भद्रा नामक भार्या थी।
उस धन्य सार्थवाह के पुत्र और भद्रा भार्या के आत्मज (उदरजात) चार सार्थवाह पुत्र थे। उनके नाम इस प्रकार थे- धनपाल, धनदेव, धनगोप, धनरक्षित।
उस धन्य सार्थवाह के चार पुत्रों की चार भार्याएँ - सार्थवाह की पुत्रवधुएँ थीं। उनके नाम इस प्रकार हैं - उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी। __जेठी कुलवधु उज्झिका को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -
'हे पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पाँच चावल के दाने लो। हे पुत्री ! जब मैं तुम से यह पाँच चावल के दाने माँगूं, तब तुम यही पाँच चावल के दाने मुझे वापिस लौटाना।
इसी प्रकार दूसरी पुत्रवधु भोगवती को भी बुलाकर पाँच दाने दिये। उसने वह दाने छीले और छीलकर निगल गईं। निगल कर अपने काम में लग गई।
इसी प्रकार तीसरी रक्षिका के सम्बन्ध में जानना चाहिए। विचार करके (उसने) वे चावल के पाँच दाने शुद्ध वस्त्र में बाँधे। बाँध कर रत्नों की डिबिया में रख लिए। रखकर सिरहाने के नीचे स्थापित किए। स्थापित करके प्रातः मध्याह्न और सायंकाल – इन तीनों संध्याओं के समय उनकी सार-सम्भाल करती हुई रहने लगी।
- चौथी पुत्रवधु रोहिणी को बुलाया। बुलाकर उसे भी वैसा ही कहकर पाँच दांने दिये। (उसने) विचार करके अपने कुलगृह (मैके-परिवार) के पुरुषों को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा -
- देवानुप्रियो! तुम पाँच शालि अक्षतों को ग्रहण करो। ग्रहण करके पहली वर्षा . ऋतु में पाँच दाने बो देना। इनकी रक्षा और संगोपना करते हुए अनुक्रम से इन्हें बढ़ाना।
। तत्पश्चात् संरक्षित, संगोपित और संवर्धित किए जाते हुए वे शालि-अक्षत अनुक्रम से शालि (के पौधे) हो गये।
तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों ने उन प्रस्थ-प्रमाण शालिअक्षतों को नवीन घड़ों में भरा।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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तणं ते कोडुंबिया दोच्चम्मि वासारत्तंसि तच्चंसि वासारत्तंसि चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया । तए णं तस्स धण्णस्स पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाणंसि संपेहित्ता जेठं उज्झियं सद्दावेइ । सद्दावित्ता एवं वयासी
-
'तं णं पुत्ता ! मम ते सालि अक्खए पडिनिज्जाएहि ।'
उवागच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी - 'एए णं ते पंच सालिअक्खए' पुत्ता ! एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने ? ते चेव पंच सालिअक्खए, एए णं अन्ने ।
तसे धणे उज्झिया अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म आसुर
58
उज्झिइयं बाहिर पेसणकारिं च ठवेइ ।
- एवं भोगवइया वि अब्भिंतरियं पेसणकारिं महाणसिणिं ठवे ।
- एवं रक्खिया वि ।
तए णं से धण्णे सत्थवाहे रक्खियं एवं वयासी – 'किं णं पुत्ता ? ते चेव एए पंच सालिअक्खए, उदाहु अण्णे ?' त्ति ।
रक्खिया वयासी– ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी यावि विहरामि । तओ एएणं कारणेणं ताओ ! ते चेव एए पंच सालिअक्खए, 1 णो अन्ने।
-
- तए णं से धणे सत्थवाहे रक्खियाए अंतिए एयमट्ठे सोच्चा हट्ठतुट्ठे सावतेज्जस्स य भंडागारिणि ठवे ।
- रोहिणिया वि एवं चेव । नवरं - 'तुब्भे ताओ ! मम सुबहु सगडी सागड दलाहि, जेण अहं तुब्भं ते पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएमि ।'
तुब्भे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएमि ।'
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने दूसरी वर्षा ऋतु में, तीसरी वर्षाऋतु में, चौथी वर्षा ऋतु में इसी प्रकार करने से सैकड़ों कुम्भ प्रमाण शालि हो गए। तत्पश्चात् जब पाँचवाँ वर्ष चल रहा था तब सार्थवाह ने विचार करके पुत्रवधु उज्झिका को बुलाया और 'बुलाकर इस प्रकार कहा
तो हे पुत्री ! मेरे वह शालिअक्षत वापिस दो। सार्थवाह के समीप आकर बोली – 'ये हैं वे पाँच शालिअक्षत। पुत्री ! क्या वही ये शालि के दाने हैं अथवा ये दूसरे हैं ? ये वही शालि के दाने नहीं हैं। ये दूसरे हैं।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह उज्झिका से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके क्रुद्ध हुए, कुपित हुए।
उन्होंने उज्झिका को दासी के कार्य करनेवाली के रूप में नियुक्त किया।
इसी प्रकार भोगवती के विषय में जानना चाहिए। उसे रसोईदारिन का कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया।
इसी प्रकार रक्षिका के विषय में जानना चाहिए।
उस समय धन्य सार्थवाह ने रक्षिका से इस प्रकार कहा- 'हे पुत्री ! क्या यह वही पाँच शालिअक्षत हैं या दूसरे हैं?'
रक्षिका बोली - ‘तात ! इन पाँच शालि के दानों को शुद्ध वस्त्र में बाँधा, यावत् तीनों संध्याओं में सार-सम्भाल करती रहती हूँ। अतएव हे तात ! ये वही शालि के दाने हैं, दूसरे नहीं। - तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह रक्षिका से यह अर्थ सुनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसे अपने (सम्पत्ति) की भाण्डा-गारिणी (भण्डारी के रूप में) नियुक्त कर दिया।
रोहिणी के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए। विशेष यह है कि जब धन्य सार्थवाह ने उससे पाँच दाने माँगे तो उसने कहा- 'तात ! आप मुझे बहुत-से गाड़ेगाड़ियाँ दो, जिससे मैं आपको वह पाँच शालि के दाने लौटाऊँ ।'
हे तात ! मैं आपको वह पाँच शालि के दाने गाड़ा-गाड़ियों में भरकर देती हूँ।
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तए णं रायगिहे नयरे बहुजणो अन्नमन्नं एवमाइक्खइ- 'धन्ने णं देवाणुप्पिया ! धण्णे सत्थवाहे, जस्स णं रोहिणिया सुण्हा, जीए णं पंच सालिअक्खए सगडसागडिएणं निज्जाइए।
तए णं से धण्णे सत्थवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेण निज्जाइए पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे पडिच्छइ। रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरवग्गस्स बहुसु कंज्जेसु वड्डावियं पमाणभूयं ठावेइ।
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तब राजगृह नगर में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे- 'देवानुप्रियो ! धन्य सार्थवाह धन्य है, जिसकी पुत्रवधु रोहिणी है, जिसने पाँच शालि के दाने छकड़ा-छकड़ियों में भरकर लौटाये।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह उन पाँच शालि के दानों को छकड़ा-छकड़ियों द्वारा लौटाये देखता है। देखकर हृष्ट और तुष्ट होकर उन्हें स्वीकार करता है। रोहिणी पुत्रवधु को उस कुलगृहवर्ग (परिवार) के अनेक कार्यों में सर्वेसर्वा नियुक्त किया।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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पाठ - 10 मेरुप्रभ हाथी (ज्ञाताधर्म कथा) - तए णं तुम मेहा ! वणयरेहिं निव्वत्तिनामधेजे जाव चउदंते मेरुप्प हत्थिरयणे होत्था।
__ - तए णं तुमं अन्नया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले वणदव-जालापलित्तेसु वणंतेसु सुधूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाए व्व परिब्भमंते भीए तथ्ये जाव संजायभए बहूहि हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सद्धिं संपरिबुडे सव्वओ समंता दिसोदिसिं विप्पलाइत्था। .
- तए णं तुम मेहा ! अन्नया पढमपाउसंसि महावुट्टिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए अदूरसामंते बहूहिं हत्थीहिं जाव कलभियाहि य सत्तहि य हत्थिसएहिं संपरिंवुडे एग महं जोयणपरिमंडलं महइमहालयं मंडलं घाएसि। ___- तए णं तुमं मेहा ! अन्नया कयाई कमेणं पंचसु उउसु समइक्कंतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले मासे पायव-संघस-समुट्ठिएणं जाव संवट्टिएसु मिय-पसु-पक्खिसिरीसिवेसु दिसोदिसिं विप्पलायमाणेसु तेहिं बहूहिं हत्थीहि य सद्धिं जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
- तए णं तुम मेहा ! पाएणं गत्तं कंडुइस्सामि त्ति कट्ट पाए उक्खित्ते, तंसिं च णं अंतरंसि अन्नेहिं बलवंतेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमाणे पणोलिज्जमाणे ससए अणुपविढे।
- तए णं तुमं मेहा ! गायं कंडुइत्ता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सासि त्ति कट्ट तं ससयं अणुपविट्ठ पाससि, पासित्ता पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए से पाए अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते।
तए णं मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकए, माणुस्साउए निबद्धे।
- तए णं से वणदवे अड्डाइज्जाइं राइंदियाइं तं वणं झामेइ, झामेत्ता, निट्ठिए, उवरए, उवसंते, विज्झाए यावि होत्था।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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पाठ - 10. मेरुप्रभ हाथी (ज्ञाताधर्म कथा) (मेघकुमार का पूर्व भव)
तत्पश्चात् हे मेघ ! वनचरों ने तुम्हारा नाम मेरुप्रभ रखा। तुम चार दाँतोंवाले हस्तिरत्न हुए।
तब एक बार कभी ग्रीष्मकाल के अवसर पर ज्येष्ठ मास में, वन के दावानल की ज्वालाओं से वन-प्रदेश जलने लगे। दिशाएँ धूम से व्याप्त हो गई। उस समय तुम बवण्डर की तरह इधर-उधर भागदौड़ करने लगे। भयभीत हुए, व्याकुल हुए और बहुत डर गए। तब बहुत से हाथियों यावत् हथिनियों आदि के साथ, उनसे परिवृत होकर, चारों ओर एक दिशा से दूसरी दिशा में भागे।
तत्पश्चात् हे मेघ! तुमने एक बार कभी प्रथम वर्षाकाल में खूब वर्षा होने पर गंगा महानदी के समीप बहुत-से हाथियों यावत् हथिनियों से अर्थात् सात सौ हाथियों से परिवृत होकर एक योजन परिमित बड़े घेरेवाला विशाल मण्डल बनाया।
हे मेघ ! किसी अन्य समय पाँच ऋतुएँ व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्मकाल के अवसर पर, ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की परस्पर की रगड़ से उत्पन्न हुए दावानल के कारण यावत् अग्नि फैल गई और मृग, पशु, पक्षी तथा सरीसृप आदि भागदौड़ करने लगे। तब तुम बहुत-से हाथियों आदि के साथ जहाँ वह मण्डल था, वहाँ जाने के लिए दौड़े। . तत्पश्चात् हे मेघ ! तुमने 'पैर से शरीर खुजाऊँ' ऐसा सोचकर एक पैर ऊपर उठाया। इसी समय उस खाली हुई जगह में, अन्य बलवान् प्राणियों द्वारा प्रेरित-धकियाया हुआ एक शशक प्रविष्ट हो गया।
तब हे मेघ ! तुमने पैर खुजाकर सोचा कि मैं पैर नीचे रखू, परन्तु शशक को पैर की जगह में घुसा हुआ देखा। देखकर द्वीन्द्रियादि प्राणों की अनुकम्पा से, वनस्पति रूप भूतों की अनुकम्पा से, पंचेन्द्रिय जीवों की अनुकम्पा से तथा वनस्पति के सिवाय शेष चार स्थावर सत्त्वों की अनुकम्पा से वह पैर अधर ही उठाए रखा, नीचे नहीं रखा।
हे मेघ ! तब उस प्राणानुकम्पा यावत् (भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा तथा) सत्त्वानुकम्पा से तुमने संसार परीत किया और मनुष्यायु का बन्ध किया।
तत्पश्चात् वह दावानल अढ़ाई अहोरात्र पर्यन्त उस वन को जलाकर पूर्ण हो गया, उपरत हो गया, उपशान्त हो गया और बुझ गया।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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- तए णं तुमं मेहा ! जुन्ने जराजज्जरियदेहे सिढिलवलितयापिणिद्धगत्ते दुब्बले किलंते जुंजिए पिवासिए अत्थामे अबले अपरक्कमे अचंकमणे वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामि त्ति कट्टु पाए पसारेमाणे विज्जुहए विव रययगिरिपब्भारे धरणियलंसि सव्वंगेहिं य सन्निवंइए।
- तए णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव (विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा । पित्तज्जरपरिगयसरीरे) दाहवक्कंतीए यावि विहरसि । तए णं तुमं मेहा ! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिन्नि राइंदियाइं वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एवं वाससयं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रन्नो धारिणी देवी कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए।
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प्राकृत गद्य-पद्यु सौरभ भाग -
2
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मेघ ! उस समय तुम जीर्ण, जरा से जर्जरित शरीर वाले, शिथिल एवं सलोंवाली चमड़ी से व्याप्त गात्रवाले दुर्बल, थके हुए, भूखे-प्यासे, शारीरिक शक्ति से हीन, सहारा न होने से निर्बल, सामर्थ्य से रहित और चलने-फिरने की शक्ति से रहित एवं ठूंठ की भाँति स्तब्ध रह गये। ‘मैं वेग से चलूँ' ऐसा विचारकर ज्यों ही पैर पसारा कि विद्युत् सें आघात पाये हुए रजतगिरि के शिखर के समान सभी अंगों से तुम धड़ाम से धरती पर गिर पड़े।
तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हारे शरीर में उत्कट (विपुल, कर्कश – कठोर, प्रगाढ़, दुःखमय और दुस्सह) वेदना उत्पन्न हुई। शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में जलन होने लगी। तुम ऐसी स्थिति में रहे। तब हे मेघ ! तुम उस उत्कट यावत् दुस्सह वेदना को तीन रात्रि-दिवस पर्यन्त भोगते रहे । अन्त में सौ वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की धारिणी देवी की कूंख में कुमार के रूप में उत्पन्न हुए।
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पाठ - 11
सिप्पिपुत्तस्स कहा पिउणा सिक्खिओ पुत्तो पारं जाइ कलद्धिणो।
वण्णिओ जइ नो होज्जा जह सिप्पि अंगओ।। अवंतीए पुरीए इंददत्तो नाम सिप्पिवरो अहेसि, सो सिप्पकलाहि सव्वंमि जयंमि पसिद्धो होत्था। इमस्स सरिच्छो अन्नो को वि नत्थि। एयस्स पुत्तो सोमदत्तो नाम। सो पिउस्स सगासंमि सिप्पकलं सिक्खंतो कमेण पिअराओ वि अईव. सिप्पकलाकुसलो जाओ। सोमदत्तो जाओ जाओ पडिमाओ निम्मवेइ तासु तासु पिया कंपि भुल्लं दंसेइ, कया वि सिलाहं न कुणेइ। तओ सो सुहुमदिट्ठीए सुहुमसुहुमं सिप्पकिरियं कुणेऊण पियरं दंसेइ, पिया वि तत्थ वि कंपि खलणं दरिसेइ, 'तुमए सोहणयरं सिप्पं कयं' ति न कयाइ तं पसंसेइ। अपसंसमाणे पिउम्मि सो चिंतेइ'मम पिआ मज्झ कलं कहं न पसंसेज्जा ?' तओ एआरिसं उवायं कहेमि, जेण पियरो मे कलं पसंसेज्ज।
एगया तस्स पिआ कज्जप्पसंगेण गामंतरे गओ, तया सो सोमदत्तो सिरिगणेसस्स सुंदरयमं पडिमं काऊण, पडिमाए हिट्ठमि गूढं नियनामंकियचिण्हं करिऊण, तं मुत्तिं नियमित्तद्दारेण भूमीए अंतो निक्खेवं कारेइ। कालंतरे गामंतराओ पिया समागओ। एगया तस्स मित्तो जणाणमग्गओ एवं कंहेइ- 'अज्ज मम सुमिणो समागओ, तेण अमुगाए भूमीए गणेसस्स पहावसालिणी पडिमा अत्थि।' तया लोगेहिं सा पुढवी खणिआ, तीए पुहवीए गणेसस्स सुंदरयमा अणुवमा मुत्ती निग्गया। तइंसणत्थं बहवे लोगा समागया, तीए सिप्पकलं अईव पसंसिरे। __तया सो इंददत्तो वि सपुत्तो तत्थ समागओ। तं गणेसपडिमं दणं पुत्तं कहेइ- “हे पुत्त ! एसच्चिअ सिप्पकला कहिज्जइ। केरिसी पडिमा निम्मविआ, इमाए निम्मावगो खलु धण्णयमो सलाहणिज्जो य अत्थि। पासेसु, कत्थ वि भुल्लं खुण्णं च अत्थि ? जइ तुम एआरिसीं पडिमं निम्मवेज्ज, तया ते सिप्पकलं पसंसेमि, नन्नहा।"
1.
डॉ. राजाराम जैन द्वारा सम्पादित ‘पाइयगज्जसंगहो' (प्राच्य भारती प्रकाशन, आरा) में प्रकाशित कथा।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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पुत्तो वि कहेइ— “हे पियर ! एसा गणेसपडिमा मम कया। इमाए हिटुंमि गुत्तं मए नामंपि लिहिअमत्थि।" पिआवि लिहिअनामं वाइऊण खिज्जहियओ पुत्तं कहेइ- “हे पुत्त ! अज्जयणाओ तुं एरिसं सिप्पकलाजुत्तं सुंदरयमं पडिमं कया वि न करिस्ससि, जओ हं तव सिप्पकलासु भुल्लं दंसंतो, तया तुमं पि सोहणयरकज्जकरणतल्लिच्छो सण्हं सण्हं सिप्पं कुणतो आसि, तेण तव सिप्पकलावि वड्ढंती हुवीअ। अहुणा ‘मम सारिच्छो नन्नो' इह मंदूसाहेण तुम्ह एआरसी सिप्पकला न संभविहिइ।" एवं सो सरहस्सं पिउवयणं सोच्चा पाएसु पडिऊण पिउत्तो पसंसाकरावणरूवनिआवराह खामेइ, परंतु सो सोमदत्तो तओ आरब्भ तारिसिं सिप्पकलं काउं असमत्थो जाओ। उवएसो
दिद्रुतं सिप्पिपुत्तस्स नच्चा गुणगणप्पयं। पुज्जाणं वयणं सोच्चा पडिऊलं न चिंतह॥
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पाठ - 12 पुत्तेहिं पराभविअस्स पिउस्स कहा' जाव दव्वं विइण्णं न पुत्ता ताव वसंवया। पत्ते दव्वे य सच्छंदा हवंति दुक्खदायगा॥
..
कंमि नयरे एगवुड्ढस्स चत्तारि पुत्ता संति। सो थविरो सव्वे पुत्ते परिणाविऊण नियवित्तस्स चउब्भागं किच्चा पुत्ताणं अप्पियं। सो धम्माराहणतप्परो निच्चितो कालं गमेइ। कालंतरे ते पुत्ता इत्थीणं वेमणस्सभावेण भिन्नघरा संजाआ। वुड्ढस्स पइदिणं पइघरं भोयणाय वारगो निबद्धो। पढमदिणंमि जेट्ठस्स पुत्तस्स गेहे भोयणाय गओ। बीयदिणे बीयपुत्तस्स घरे जाव चउत्थदिणे कणिट्ठस्स पुत्तस्स घरे गओ। एवं तस्स सुहेण कालो गच्छइ।
कालंतरे थेराओ धणस्स अपत्तीए पुत्तवहूहिं सो थेरो अवमाणिज्जइ। पुत्तवहूओ कहिति— “हे ससुर ! अहिलं दिणं घरंमि किं चिट्ठसु ? अम्हाणं मुहाई पासिउं किं ठिओ सि ? थीणं समीवे वसणं पुरिसाणं न जुत्तं, तव लज्जावि न आगच्छेज्जा पुत्ताणं हट्टे गच्छज्जसु।” एवं पुत्तवाहिं अवमाणिओ सो पुत्ताण हट्टे गच्छइ।
तया पुत्तावि कहिंति- “हे वुड्ढ ! किमत्थं एत्थ आगओ ? वुड्ढत्तणे घरे वसणमेव सेयं, तुम्ह दंता वि पडिआ, अक्खितेयं पि गयं, सरीरं वि कंपिरमत्थि, अत्थ ते किंपि पओयणं नत्थि, तम्हा घरे गच्छाहि।" एवं पुत्तेहिं तिरक्करिओ सो घरं गच्छेइ तत्थ पुत्तवहूओ वि तं तिरक्करंति। पुत्तपुत्ता वि तस्स थेरस्स कच्छुट्टियं निक्कासेइरे; कयावि मंसुं दाढियं च करिसिन्ति। एवं सव्वे विविहप्पगारेहिं तं वुड्ढं अवहसिंति। पुत्तवहूओ भोयणे वि रुक्खं अपक्कं च रोट्टगं दिति। एवं पराभविज्जमाणो वुड्ढो चिंतेइ- 'कि करेमि, कहं जीवणं निव्वहिस्सं ?' एवं दुहुमणुभवंतो सो नियमित्तसुवण्णगारस्स समीवे गओ। अप्पणो पराभवदुहं तस्स कहेइ, नित्थरणुवायं च पुच्छइ।
डॉ. राजाराम जैन द्वारा सम्पादित ‘पाइयगज्जसंगहो' (प्राच्य भारती प्रकाशन, आरा) में प्रकाशित कथा।
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सुवण्णगारो बोल्लेइ -- “भो मित्त ! पुत्ताणे वीसासं करिऊण सव्वं धणमप्पिअं, तेण दुहिओ जाओ तत्थ किं चोज्जं ? सहत्थेण कम्मं कयं तं अप्पणा भोत्तव्वं चिअ।” तह वि मित्तत्तेण सो एवं उवायं दंसेइ – “तुमए पुत्ताणं एवं कहिअव्वं— ‘मम मित्तसुवण्णगारस्स गेहे रुप्पयदीणार भूसणेहिं भरिया एगा मंजूसा मए मुक्का अत्थि, अज्ज जाव तुम्हाणं न कहिअं, अहु जराजिणो हं, तेण सद्धम्मकम्मणा सत्तक्खेत्ताईसुं लच्छीए विणिओगं काऊण परलोगपाहेयं गिण्हिस्सं ।' एवं कहिऊण पुत्तेहिं एसा मंजूसा रत्तीए गेहे आणावियव्वा । मंजूसाए मज्झे तं रुप्पासयं मोइस्सं तं तु मज्झरत्तीए पुणो पुणो तुमए सयं च सहस्सं च रणरणयारपुव्वं गणेयव्वं, जेण पुत्ता मन्निस्संति— ‘अज्जावि बहुधणं पिउणो समीवे अत्थि ।' तओ धणासाए ते पुव्वमिव भत्तिं करिस्संते। पुत्तवहूओ वि तहेव सक्कारं काहिंति । तुम सव्वेसिं कहियव्वं - 'इमीए मंजूसाए बहुधणमत्थि । पुत्तपुत्तवहूणं नामाई लिहिऊण ठवियमत्थि । तं तु मम मरणंते तुम्हेहिं नियनियनाम-वारेण गहिअव्वं ।' धम्मकरणत्थं पुत्तेहिंतो धणं गिण्हिऊण सद्धम्मकरणे वावरियव्वं । मम रुप्पगसयं पि तुमए न विस्सारियव्वं, एवं अवसरे दायव्वं । "
सोथेरो मित्तस्स बुद्धी तुट्ठो गेहे गच्चा रत्तीए पुत्तेहिं मंजूस आणाविऊण रत्तीए तं रुप्पगसयं सयं-सहस्स - दससहस्साइगुणणेण तं चिय गणिति । पुत्ता वि विआरिंति — पिउस्स पासे बहुधणमत्थि, ते वहूणं पि कर्हिति । सव्वे ते थेरं बहु सक्कारिंति सम्मार्णिति य अईवनिब्बंधेण तं पुत्तवहूआ वि अहमहमिगयाए भोयणाय निति, साउं सरसं भोयणं दिति, तस्स वत्थाई पि सएव पक्खालिंति, परिहाणाय धुविआई वत्थाई अप्पिंति । एवं वुड्ढस्स सुहेण कालो गच्छइ ।
• एगया आसन्नमरणो सो पुत्ताणं कहेइ — “मज्झ धम्मकरणेच्छा वट्टर, . तेण 'सत्तखेत्तेसुं किंचि वि धणं दाउमिच्छामि । ” पुत्तावि मंजूसा-गयधणासाए अप्पिति । सो वुड्ढो जिण्णमंदिरुवस्सयसुपत्ताईसुं जहसत्तीए देइ । अप्पणो परममित्तंसुवण्णगारस्स वि नियहत्थेण रुप्पयसयं पच्चप्पेइ, एवं सद्धम्मकम्मंमि धणव्वयं किच्चा, मरणकालंमि पुत्ताणं पुत्तवहूणं च बोल्लाविऊण कहिअं— “इमीए मंजूसाए सव्वेसिं नामग्गहणपुव्वयं धणं मुत्तमत्थि । तं तु मम मरणकिच्चं काऊण पच्छा जहनामं तुम्हेहिं गहिअव्वं" ति कहिऊण समाहिणा सो वुड्ढो कालं पत्तो । पुत्ता वि तस्स मच्चुकित्वं किच्चा नाइजणं पि जेमाविऊण बहुधणासाइ जया सव्वे
1
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मिलिऊण मंजूसं उग्घाडिंति तया तम्मझमि नियनियनामजुत्तपत्तेहिं वेढिए पाहाणखंडे त च रुप्पगसयं पासित्ता अहो वुड्ढेण अम्हे वंचिआ वंचिअ त्ति, किल अम्हाणं पिउभत्तिपरंमुहाणं अविणयस्स फलं संपत्तं। एवं सव्वे ते दुहिणो जाआ।
उवएसो..पुत्तेहिं पत्तवित्तेहिं पिअरस्स पराभवं।
सोच्चा तहा पयट्टेज्जा सुहं वुड्ढत्तणे वसे॥
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व्याकरणिक विश्लेषण
एवं शब्दार्थ (पद्य भाग )
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संकेत सूची
अक -अकर्मक क्रिया •[[()- ()- ()] वि] अनि - अनियमित जहाँ समस्तपद विशेषण का कार्य करता है आज्ञा - आज्ञा
वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया क्रिविअ - क्रिया विशेषण अव्यय गया है। प्रे - प्रेरणार्थक क्रिया .जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे भवि - भविष्यत्काल _1/1, 2/1... आदि) ही लिखी है वहाँ उस भाव - भाववाच्य
कोष्ठक के अन्दर का शब्द संज्ञा' है। - भूतकालिक कृदन्त । •जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि अपभ्रंश के व - वर्तमानकाल नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर वकृ - वर्तमान कृदन्त 'अनि' भी लिखा गया है। वि. -विशेषण
1/1 अक या सक- उत्तम पुरुष/एकवचन विधि - विधि
1/2 अक या सक - उत्तम पुरुष/बहुवचन विधिकृ - विधिकृदन्त 2/1 अक या सक - मध्यम पुरुष/एकवचन सः -सर्वनाम
2/2 अक या सक - मध्यम पुरुष/बहुवचन संकृ - सम्बन्धक कृदन्त 3/1 अक या सक - अन्य पुरुष/एकवचन सक . . - सकर्मक क्रिया 3/2 अक या सक- अन्य पुरुष/बहुवचन सवि. - सर्वनाम विशेषण . 1/1 - प्रथमा/एकवचन स्त्री - स्त्रीलिंग
1/2 - प्रथमा/बहुवचन हेकृ' - हेत्वर्थक कृदन्त 2/1 - द्वितीया/एकवचन • () - इस प्रकार के कोष्ठक में 2/2 - द्वितीया/बहुवचन
- शब्द रखा गया है। 3/1 - तृतीया/एकवचन • [( )+( )+( ).....] - 3/2 - तृतीया/बहुवचन इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर (+) 4/1 - चतुर्थी/एकवचन चिह्न शब्दों में सन्धि का द्योतक है। 4/2- चतुर्थी/बहुवचन
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यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में मूल शब्द ही रखे गए हैं। • [( )-( ) ( )......] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर -' चिह्न समास का द्योतक है।
5/1 - पंचमी/एकवचन 5/2 – पंचमी/बहुवचन 6/1 - षष्ठी/एकवचन 6/2 - षष्ठी/बहुवचन 7/1 – सप्तमी/एकवचन 7/2 – सप्तमी/बहुवचन 8/1 - संबोधन/एकवचन 8/2 – संबोधन/बहुवचन.
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पाठ - 1 वज्जालग्ग
-
.
उस
का
किं पि साहसं साहसेण साहति
(त) 2/1 सवि
अव्यय (साहस) 2/1 (साहस) 3/1 (साह) व 3/2 सक [(साहस)-(सहाव) 1/2] (ज) 2/1 स (भाव) संकृ (दिव्व) 1/1 (परंमुह) 1/1 (धुण) व 3/1 सक [(निय) वि-(सीस) 2/1]
= कुछ भी = साहस (कार्य) को = साहस से = सिद्ध करते हैं = साहस, स्वभाव = जिस (कार्य) को = विचारकर
साहससहावा.
= दैव
भाविऊण दिव्वो परंमुहो धुणइ नियसीसं .
= उदासीन = हिलाता है = निज शीश को
३
अव्यय
= जैसे = जैसे
अव्यय
समप्पड़
विहिवसेण विहडतक्रज्जपरिणामो तहे
अव्यय (समप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(विहि)-(वस) 3/1] [(विहड) वकृ-(कज्ज)(परिणाम) 1/1] अव्यय अव्यय (धीर) 6/2 वि (मण) 7/1 (वड्ढ) व 3/1 अक
= पूरा किया जाता है = विधि की अधीनता से = बिगड़ता हुआ होने के
कारण, कार्य का परिणाम = वैसे
= वैसे
धीराण
मणे
= धीरों के = मन में = बढ़ता है
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -2
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= दुगना
बिउणो समुच्छाहो
(बिउण) 1/1 वि [(सम)+ (उच्छाहो)] [(सम) वि-(उच्छाह)1/1]
= अचल उत्साह
3.
फलसंपत्तीइ समोणयाई तुंगाई फलविपत्तीए हिययाई सुपुरिसाणं महातरूणं व सिहराई
[(फल)-(संपत्ति) 7/1] (समोणय) 1/2 वि (तुंग) 1/2 वि [(फल)-(विपत्ति) 7/1] (हियय) 1/2 (सुपुरिस) 6/2 [(महा)-(तरु) 6/2] अव्यय (सिहर) 1/2
= फलों की प्राप्ति होने पर = बहुत झुके हुए = ऊँचे = फलों के नाश होने पर = हृदय . .. = सज्जन पुरुषों के = महावृक्षों के = की तरह = शिखरों
.
A.
हियए
= मन में
जाओ
(हियअ) 7/1 (जा') भूकृ 1/1 (तत्थ+एव) अव्यय (वड्ढ) भूकृ 1/1
तत्थेव वढिओ
नेय
अव्यय
पयडिओ
= उत्पन्न हुआ है = वहाँ, ही = बढ़ाया गया = कभी नहीं = प्रकट किया गया = लोक में = संकल्परूपी वृक्ष = सज्जन पुरुषों का = पहचाना जाता है = फलों द्वारा
लोए
(पयड) भूकृ 1/1 (लोअ) 7/1 [(ववसाय)-(पायव) 1/1] (सुपुरिस) 6/2 (लक्ख) व कर्म 3/1 सक (फल) 3/2
ववसायपायवो सुपुरिसाण लक्खिज्जइ फलेहिं
1. अकर्मक धातुओं से बने भूतकालिक कृदन्त कर्तृवाच्य में भी प्रयुक्त होते हैं।
76
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________________
...!
ववसायफलं विहवो विहवस्स
= संकल्प का परिणाम = सम्पत्ति = सम्पत्ति का = और = व्याकुल जनों का उद्धार
विहलजणसमुद्धरणं विहलुद्धरणेण
[(ववसाय) - (फल) 1/1] (विहव) 1/1 (विहव) 6/1 अव्यय [(विहल) वि-(जण)(समुद्धरण)1/1] [(विहल)+(उद्धरणेण)] [(विहल) वि- (उद्धरण) 3/1] (जस) 1/1 (जस) 3/1 (भण) विधि 2/1 सक (किं) 1/1 सवि अव्यय (पज्जत्त) भूकृ 1/1 अनि
= व्याकुलों के उद्धार से
= यश
जसो जसेण
= यश से = कहो
भण
किं
- क्या
= नहीं = प्राप्त किया हुआ
पज्जतं
6.
आढत्ता सप्पुरिसेहि तुंगववसायदिन्नहियएहिं कज्जारंभा
= शुरू किये हुए = सज्जन आत्माओं द्वारा = उच्च, कर्म में, स्थापित, हृदय से
(आढत्त) भूकृ 1/2 अनि (सप्पुरिस) 3/2 [(तुंग)-(ववसाय)-(दिन) वि(हियअ) 3/2] [(कज्ज)+(आरंभा)] [(कज्ज)-(आरंभ) 1/2] (हो) भवि 3/2 (निप्फल) 1/2 वि अव्यय (क्रिविअ)
• होहिंति . . . निष्फला
= कार्यों के लिए प्रयत्न = होंगे = निष्फल = कैसे = दीर्घ काल तक
चिरं कालं
विहवक्खए वि .
[(विहव)-(क्खअ) 7/1] अव्यय
= वैभव के क्षय होने पर = भी
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
= उदारता
= आत्मसम्मान
दाणं माणं वसणे वि धीरिमा मरणे
= विपत्ति में = भी
= धैर्य
(दाण) 1/1 (माण) 1/1 (वसण) 7/1
अव्यय (धीरिमा) 1/1 (मरण) 7/1 [(कज्ज)-(सअ) 7/1] अव्यय (अमोह) 1/1 वि (पसाहण) 1/1 [(धीर) वि-(पुरिस) 6/2] .
कज्जसए
= मरण में = सैकड़ों प्रयोजनों में = भी .. = अनासक्त ।
= भूषण .. = धीर पुरुषों के .
अमोहो
पसाहणं धीरपुरिसाणं
8.
EFFEELEEEEEEEEEEEEEE
दारिद्दय
गुणा
गोविजंता
(दारिद्द) 8/1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय (तुम्ह) 6/1 स (गुण) 1/2 (गोव) वकृ कर्म 1/2 अव्यय [(धीर) वि-(पुरिस) 3/2] (पाहुणअ) 7/2 (छण) 7/2
धीरपुरिसेहिं पाहुणएसु छणेसु
= हे निर्धनता . = तुम्हारे = गुण = छुपाये जाते हुए = भी = धीर पुरुषों के द्वारा = अतिथियों में = उत्सवों पर = और = कष्टों के होने पर = प्रकट = होते हैं
य
अव्यय
वसणेसु
पायडा
(वसण) 7/2 (पायड) 1/2 (हु) व 3/2 अक
हुंति
दारिद्दय तुज्झ
(दारिद्द) 8/1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय (तुम्ह) 4/1 स
= हे निर्धनता = तुम्हारे लिए
1.
दो शब्दों को जोड़ने के लिए कभी-कभी 'और' अर्थ का व्यक्त करने वाले अव्यय दो बार प्रयोग किए जाते हैं।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -2
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________________
नमो
अव्यय
= नमस्कार = जिसके
जस्स
= प्रसाद से
पसाएण एरिसी
= ऐसी = ऋद्धि
रिद्धी पेच्छामि सयललोए
= देखता हूँ
(ज) 6/1 स (पसाअ) 3/1 (एरिस (पु) •एरिसी (स्त्री)) 1/1 वि (रिद्धि) 1/1 (पेच्छ) व 1/1 सक [(सयल) वि-(लोअ) 2/2] (त) 1/2 सवि (अम्ह) 6/1 (लोय) 1/2 अव्यय (पेच्छ) व 3/2 सक
सब लोगों को
लोया
पेच्छंति
देखते हैं
10.
일
1/2 स
일
गुणिणो
(ज) 1/2 स (गुणि) 1/2 वि (ज) 1/2 स (ज) 1/2 स
= गुणी
= जो
अव्यय
-भी
माणिणो (माणि) 1/2 वि
= आत्म-सम्मानी जे. (ज) 1/2 स
= जिन्होंने वियड्ढसंमाणा [(वियड्ढ) वि-(संमाण) 1/2] = विद्वानों में सम्मान दालिद्द . (दालिद्द) 8/1
= निर्धनता अव्यय वियक्खण (वियक्खण) 8/1 वि
= निपुण 1. नमो' के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। 2.
कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग द्वितीया विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -2
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________________
ताण
(त) 4/2 स
= उनके लिए (तुम्ह) 1/1 स
- तुम [(स+अणुराओ) (स-अणुराअ) 1/1 वि] :- अनुराग सहित (अस) व 2/1 अक
= होती हो
-साणुराओ सि
11.
दीसंति जोयसिद्धा अंजणसिद्धा
(दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि [(जोय)-(सिद्ध) भूकृ 1/2 अनि] [(अंजण)-(सिद्ध) भूकृ 1/2 अनि] अव्यय (क) 1/2 स
= देखे जाते हैं -योग-सिद्ध = अंजण-सिद्ध = भी.. = कितने
के
अव्यय
दीसंति दारिद्दजोयसिद्धं
= देखे जाते हैं = दारिद्र-योग-सिद्ध को
'F TEE
(दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि (दारिद्द)-(जोय)-(सिद्ध) भूक 2/1 अनि (अम्ह) 2/1 स (त) 1/2 स (लोय) 1/2 अव्यय (पेच्छ) व 3/2 सक
लोया
= मनुष्य = नहीं = देखते हैं
पेच्छंति
12.
संकुयइ संकुयंते
वियसइ
= सिकुड़ जाता है = अस्त होते हुए = फैल जाता है = उदय होते हुए = सूर्य में
वियसंतयम्मि
(संकुय) व 3/1 अक (संकुय) वकृ7/1 (वियस) व 3/1 अक (वियस) वकृ 'य' स्वार्थिक 7/1 (सूर) 7/1 (सिसिर) 7/1 [(रोर) वि-(कुडुंब) 1/1] [(पंकय)-(लीला) 2/1] (समुव्वह) व 3/1 सक
सूरम्मि
= सर्दी में
सिसिरे रोरकुडंबं पंकयलीलं समुव्वहइ
= गरीब कुटुम्ब = कमल की लीला को = धारण करता है
80
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
13.
= अनुलग्न = हो
सि
= धर्म में = रहो
= अब
नरिंद
ओलग्गिओ (ओलग्ग) भूकृ 1/1
(अस) व 2/1 अक धम्मम्मि (धम्म) 7/1 होज्ज (हो) विधि 2/1 अक एण्हिं
अव्यय
(नरिंद) 8/1 वच्चामो (वच्च) व 1/2 सक आलिहियकुंजरस्स [(आलिहिय) भूकृ-(कुंजर) 6/1]
अव्यय (तुम्ह) 6/1 स (पहु) 8/1 (दाण) 1/1
= हे राजा = जाते हैं = चित्रित हाथी के
= तुम्हारी
.4
= हे प्रभो
= उदारता
अव्यय
= कभी
अव्यय
. 4
= नहीं = देखी गई
(दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
.
(भग्ग) भूक 7/1 अनि
'भग्गे वि:
अव्यय
ब
= खण्डित होने पर = भी = युद्ध शक्ति के = घिरे हुए होने पर
वलिए'.
= भी
वि साहणे' सामिए' निरुच्छाहे'
(बल) 7/1 - (वल) भूक 7/1 अव्यय (साहण) 7/1 (सामिअ) 7/1 (निरुच्छाह) 7/1 वि
= सेना के = स्वामी के = उत्साहरहित होने पर
1. यदि एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया हो तो पहली क्रिया में कृदन्त का प्रयोग होता है और यदि कर्तृवाच्य है तो कर्ता और कृदन्त में सप्तमी विभक्ति होगी, यदि कर्मवाच्य है तो कर्म और कृदन्त में सप्तमी विभक्ति होगी, कर्ता में तृतीया।
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________________
नियभुयविक्कमसारा थक्कंति
[(निय) वि-(भुय)(विक्कम)-(सार) 5/1] (थक्क) व 3/2 अक [(कुल)+(उग्गया)] [(कुल)-(उग्गय) 1/2 वि] (सुहड) 1/2
= निज भुजाओं के
पराक्रम बल से = स्थिर रहते हैं = उच्च कुलों में
उत्पन्न = योद्धा
कुलुग्गया
.
सुहडा.
15.
= क्षीण होता है
वियलइ धणं
(वियल) व 3/1 अक (धण) 1/1
.
..
- धन = नहीं
अव्यय
:
माणं झिज्ज अंग
आत्म-सम्मान = क्षीण होता है = शरीर
न
= नहीं
(माण) 1/1 (झिज्ज) व 3/1 अक (अंग) 1/1 अव्यय (झिज्ज) व 3/1 अक (पयाव) 1/1 (रूव) 1/1 (चल) व 3/1 अक
= क्षीण होता है
झिज्जइ पयावो
= प्रताप
रूवं
चलइ
अव्यय
= रूप = नष्ट होता है = नहीं = स्फूर्ति = स्वप्न में
फुरणं सिविणे
(फुरण) 1/1 (सिविण) 7/1
अव्यय
मणंसिसत्थाणं
[(मणंसि) वि-(सत्थ) 6/2]
दृढ़ संकल्प वाले दल का
16.
हंसो .
(हंस) 1/1 (अस) व 2/1 अक [(महासर)- (मंडण) 1/1] (अस) व 2/1 अक
महासरमंडणो
महासागर के आभूषण
धवलो
(धवल) 1/1
.
= विशुद्ध
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________________
सि
धवल
कि
(अस) व 2/1 अक (धवल) 8/1 (किं) 1/1 सवि (तुम्ह) 6/1 स [(खल) वि-(वायस) 6/2] (मज्झ) 7/1 अव्यय (हंस) 8/1 'य' स्वार्थिक
= हे धवल = क्या = तुम्हारा = दुष्ट कौओं के = मध्य में
खलवायसाण मज्झे
ता
हे हंस
हंसय
कत्थ
अव्यय
= कैसे
पडिओ
= फंसे हुए
(पड) भूकृ 1/1 (अस) व 2/1 अक
है
17.
हसो
- हंस
(हंस) 1/1 [(मसाण)-(मज्झ) 7/1] “(काअ) 1/1
मसाणमज्झे काओ
= मसाण के मध्य में
= कौआ
अव्यय
= यदि
वसई पंकयवणम्मि तह वि
(वस) व 3/1 अक [(पंकय)- (वण) 7/1]
= रहता है = कमल-समूह में = तो भी = निश्चय ही
अव्यय
अव्यय
हंसो
.
(हंस) 1/1 (हंस) 1/1 (काअ) 1/1 (काअ) 1/1
काओ
- कौआ
काओ
= कौआ
नि
अव्यय
चराओ
(वराअ) 1/1 वि
= बेचारा
___ अकर्मक क्रियाओं से बना भूकृ कर्तृवाच्य में भी प्रयुक्त होता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
18.
.
= दोनों
सपक्खा
तह
(बे) 1/2 वि अव्यय (सपक्ख) 1/2 वि अव्यय (बे) 1/2 वि अव्यय (धवल) 1/2 'य' स्वार्थिक वि (वे) 1/2 वि अव्यय [(सरवर)-(णिवास) 1/2] • अव्यय
= ही = पंखसहित = उसी तरह = दोनों = ही = धवल.
धवलया,
= दोनों. . . .
सरवरणिवासा तह वि
अव्यय
= तालाब में निवास = तो भी = निश्चय ही = हंस और बतख का = समझा जाता है = भेद
हंसबयाणं जाणिज्जइ अंतरं गरुयं
[(हंस)-(बय) 6/2] (जाण) व कर्म 3/1 सक (अंतर) 1/1 (गरुय) 1/1 वि
= महान
19.
एक्केण
= एक (के द्वारा)
पासपरिट्ठिएण हंसेण
= किनारे पर स्थित = हंस के द्वारा = होती है
होइ
(एक्क) 3/1 वि अव्यय [(पास)-(परिट्ठिअ) 3/1 वि] (हंस) 3/1 (हो) व 3/1 अक (जा) 1/1 सवि (सोहा) 1/1 (ता) 2/1 स (सरवर) 1/1 अव्यय (पाव) व 3/1 सक
= जो
सोहा
= शोभा = उसे
सरवरो
= तालाब
= नहीं = प्राप्त करता है
पाव
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--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुएहि
(बहुअ) 3/2 वि
अव्यय
= बहुत = भी = पक्षी-समूहों द्वारा
लिंकसत्थेहिं
[(ढिंक)-(सत्थ) 3/2]
20.
= मानसरोवर के बिना
माणससररहियाणं [(माणससर)-(रह) भूक 4/2]
अव्यय
= जैसे = नहीं
अव्यय
होइ
(सुह) 1/1 (हो) व 3/1 अक (रायहंस) 4/2
सुख - होता
रायहंसाणं
= राजहंसों के लिए = वैसे ही
अव्यय
तस्स
- उसके
वि
उनके
बिना = तट प्रदेश
(त) 6/1 स
अव्यय तेहि
(त) 3/2 स विणा
• अव्यय तीरुच्छंगा [(तीर) + (उच्छंगा)]
[(तीर) -(उच्छंग) 1/2]
अव्यय सोहंति (सोह) व 3/2 अक 21. वच्चिहिसि . (वच्च) भवि 2/1 सक
= नहीं
= शोभते हैं
'तुमं
(तुम्ह) 1/1स
= जाओगे = तुम = पाओगे
.
- उत्तम तालाब
पाविहिसि सरवरं . रायहंस किं चोज्जं .
(पाव) भवि 2/1 सक [(सर)-(वर) 2/1 वि] (रायहंस) 8/1 (किं) 1/1 सवि (चोज्ज) 1/1
= हे राजहंस
= क्या
= आश्चर्य
-
1.
'बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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________________
माणससरसारिक्खं
पुहवं'
भमंतो
न
पाविहिसि
22.
सव्वायरेण
रक्खह
तं
पुरिसं
जत्थ
जयसिरी
वसई
अत्थमिय'
चंदबिंबे
ताराहि
न
क
जोहा
23.
जइ
चंदो
किं
1.
2.
86
[ ( माणससर) - (सारिक्ख) 1 / 1 वि]
(पुहवि) 2/1
(भम) वकृ 1 / 1
अव्यय
(पाव) भवि 2/1 सक
[(सव्व)+(आयरेण)] [(सव्व) वि- (आयरेण) क्रिविअ = आदरपूर्वक ]
( रक्ख) विधि 2 / 2 सक
(त) 2 / 1 सवि
(पुरिस) 2/1
अव्यय
( जयसिरि) 1/1
(वस) व 3 / 1 अक
(अत्थम) भूक 7/1
[(चंद) - (बिंब) 7/1]
(तारा) 3/2
अव्यय
(कीरए) व कर्म 3 / 1 सक अनि
( जोहा ) 1 / 1
अव्यय
(चंद) 1/1
(किं) 1/1 सवि
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
= मानसरोवर के समान
=
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=
= पृथ्वी पर
= भ्रमण करते हुए
= नहीं
=
=
पाओगे
=
= रक्षा करो
= उस
पूर्ण आदर से
पुरुष की
= जहाँ
=
=
- जयलक्ष्मी
= रहती है
= अस्त होने पर
= चन्द्र बिम्ब के
= तारों द्वारा
= नहीं
किया जाता है
'गति' अर्थ के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
मूल शब्द (किसी भी कारक के लिए मूल शब्द काम में लाया जा सकता है : वज्जालगं पृष्ठ 459 गाथा 264 ) ।
= प्रकाश
= यदि
= चन्द्रमा
= क्या
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________________
बहुतारएहि बहुएहि
[(बहु)-(तारअ) 3/2] (बहुअ) 3/2 (किं) 1/1 सवि
= असंख्य तारों से = असंख्य
क्या और
अव्यय
तेण
= उसके
विणा'
= बिना = जिसका
(त) 3/1 स अव्यय (ज) 6/1 स (पयास) 1/1 (लोअ) 7/1 (धवल) व 3/1 सक [(महा) वि-(महीवट्ठ) 2/1]
पयासो लोए धवलेइ महामहीवटुं 24.
= प्रकाश
= लोक में = सफेद करता है = विस्तृत भूमितल को
॥
॥
चंदस्स
= चन्द्रमा का
खओ
(चंद) 6/1 (खअ) 1/1 अव्यय
= क्षय
= नहीं
अव्यय
= किन्तु
तारयाण
(तारय) 6/2 (रिद्धि) 1/1
तारों का = वृद्धि
रिद्धी
.वि
अव्यय
= भी
. (त) 6/1 स
= उसकी
अव्यय
= नहीं = किन्तु
ताणं . .
गरुयाण
अव्यय (त) 6/2 स (गरुय) 6/2 वि [(चडण)-(पडण) 1/1] (इयर) 1/2 वि अव्यय
चडणपडणं
= उनकी = महान का = चढ़ना, गिरना = दूसरे = परन्तु
इयरा
उण
1.
'बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
निच्चपडिया
[(निच्च) अ = हमेशा(पड) भृकृ 1/2] अव्यय
' = हमेशा, गिरे हुए = ही ...
अव्यय
= नहीं
अव्यय
= पादपूर्ति किसी के लिए
+ :
देंति
(क) 4/1 सवि अव्यय (दा) व 3/2 सक (धण) 2/1 (अन्न) 2/1 वि (दा) वकृ2/1
धणं
अन्नं
= देते हैं = धन = दूसरे को = देते हुए = भी । = तथा = रोकते हैं =रुपये-पैसे
...
अव्यय
निवारंति
अत्था
किं
= क्या
अव्यय (निवार) व 3/2 सक (अत्थ) 1/2 अव्यय [(किविण) वि-(त्थ) 1/2 वि] [(सत्थ)+ (अवत्था)] [(स-त्थ) वि-(अवत्था)] 1/1] (सुय) व 3/2 अक
किविणत्था
सत्थावत्था
= कृपण-स्थित =अपने आप में स्थित दशा = सोते हैं = की तरह
सुयंति
अव्यय
26.
निहणंति धणं
धरणीयलम्मि
(निहण) व 3/2 सक (धण) 2/1 (धरणीयल) 7/1 अव्यय (जाण) संकृ [(किविण) वि-(जण) 1/2]
= गाड़ते हैं = धन को = भूमितल में = इस तरह = सोचकर = कृपण लोग
इय जाणिऊण किविणजणा
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________________
पायाले
गंतव्वं
ता
गच्छउ
अग्गठाणं
पि
27.
करिणो
हरिणहरविया -
रियस्स
दीसंति
मोत्तिया
कुंभे
किविणाण
नवरि
मरणे
पयड
च्चिय
हुति
भंडारा
28.
म
न
कस्स
do
वि
जंप
उद्दारजणस्स
विविहरयणाई
( पायाल) 7/1
(गंतव्व) विधि 1 / 1 अनि
अव्यय
(गच्छ) विधि 3 / 1 सक
[ ( अग्ग ) - ( ठाण) 2 / 1 ]
अव्यय
(करि) 6/1
[(हरि) - (णहर) - (वियार ) भूकृ 6 / 1]
(दीसंति) व कर्म 3 / 2 सक अनि
(मोत्तिय) 1/2
(कुंभ) 7/1
(किविण) 6/2 वि
अव्यय
( मरण) 7/1
(पयड) 1/2 वि आगे संयुक्त अक्षर (च्चिय) आने से दीर्घ स्वर ह्रस्व स्वर हुआ है।
अव्यय
(हु) व 3 /2 अक
(भंडार) 1/2
(दा) व 1 / 1 सक
अव्यय
(क) 4/1 सवि
अव्यय
(जंप ) व 3 / 1 सक
[ ( उद्दार) वि - ( जण) 4/1] [(विविह) वि-(रयण) 2/2]
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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= पाताल में
पहुँचे जाने की सम्भावना
=
= उस (इस) कारण से
= जावे (जाना चाहिए)
= आगे स्थान को
= भी
= हाथी के
=
=
= मोती
= गण्डस्थल पर
कृपणों
= केवल = मरने पर
सिंह के नखों द्वारा
चीरे हुए
देखे जाते हैं
—
= प्रकट
= ही
= होते हैं
= भण्डार
-
= देता हूँ
- नहीं
= किसी के लिए
=
= भी
= कहता है
= श्रेष्ठजन के लिए
= विविध रत्नों को
89
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________________
चाएण'
(चाअ) 3/1
.
त्याग के बिना
विणा
अव्यय
अव्यय
नरो
(नर) 1/1
अव्यय
पुणो वि लच्छीइ पम्मुक्को
= मनुष्य
फिर भी = लक्ष्मी के द्वारा = परित्यक्त
(लच्छी ) 3/1 (पम्मुक्क) भूकृ 1/1 अनि
29.
जीयं
जलबिंदुसमं उप्पज्जइ जोव्वणं सह
(जीय) 1/1 [(जल)-(बिंदु)-(सम) 1/1 वि] (उप्पज्ज) व 3/1 अक (जोव्वण) 1/1.
= जीवन = जल-बिन्दु के समान = उत्पन्न होता है = यौवन
अव्यय
= साथ
बुढ़ापे के
जराए
= दिवस
दियहा दियहेहि
(जरा) 3/1 (दियह) 1/2 (दियह) 3/2 (सम) 1/2 वि अव्यय (हु) व 3/2 अक
समा
= दिवसों के = समान = नहीं
होते हैं = क्यों
हंति
॥
अव्यय
= निष्ठुर
॥
(निठुर) 1/1 वि (लोअ) 1/1
= मनुष्य
॥
निळुरो लोओ 30. विहडंति
सुया
(विहड) व 3/2 अक (सुय) 1/2 (विहड) व 3/2 अक
= अलग होते हैं = पुत्र = अलग होते हैं
विहडंति
1.
'बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है। 'सह', 'सम' के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
2.
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________________
बंधवा विहडेइ संचिओ
(बंधव) 1/2 (विहड) व 3/1 अक (संचिअ) भूकृ 1/1 अनि (अत्थ) 1/1 (एक्क) 1/1 वि
अत्थो एक्कं नवरि
FEEEEE AL
= बन्धु = अलग होता है = संचित = अर्थ = एक = केवल = नहीं = अलग होता है = मनुष्य का
अव्यय
विहडइ
नरस्स
अव्यय (विहड) व 3/1 अक (नर) 6/1 [(पुव्व) क्रिविअ = पूर्व में-(क्कय) भूक 1/1 अनि] (कम्म) 1/1
पुव्वक्कयं
= पूर्व में, किया हुआ = कर्म
कम्म
31.
रायंगणम्मि
परिसंठियस्स
जह
[(राय)+(अंगणम्मि)]. [(राय)-(अंगण) 7/1] (परिसंठिय) भूकृ 6/1 अनि अव्यय (कुंजर) 6/1 (माहप्प) 1/1 [(विंझ)-(सिहर) 7/1]
कुंजरस्स
माहप्पं
विंझसिहरम्मि
= राजा के आँगन में = स्थित = जिस तरह = हाथी की = महिमा = विंद्य पर्वत के शिखर पर = नहीं = उसी तरह = स्थानों पर . = गुण = खिलते हैं
अव्यय
अव्यय
तहा . ठाणेसु . . . गुणा विसमुति
(ठाण) 7/2 (गुण) 1/2 (विसट्ट) व 3/1 अक
32.
ठाणं
(ठाण) 2/1
अव्यय (मुय) व 3/1 सक
= स्थान को = नहीं = छोड़ता है
मुय
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
धीरो . ठक्कुरसंघस्स दुट्ठवग्गस्स
अव्यय
(धीर) 1/1
= धीर पुरुष [(ठक्कुर)-(संघ) 6/1] . = मुखियाओं के समूह का [(दुट्ठ) वि-(वग्ग) 6/1] __ = दुष्ट समूह का (ठा) वकृ 2/1 ‘ठा' के आगे संयुक्त अक्षर = स्थिर रहता हुआ (न्त) के आने से दीर्घ स्वर हस्व स्वर हुआ है।
= किन्तु (दा) व 3/1 सक
= करता है (जुज्झ) 2/1
= विरोध . (ठाण) 7/1
= स्थान पर (ठाण) 7/1
= स्थान पर (जस) 2/1
= यश को . (लह) व 3/1 सक
= प्राप्त करता है
ठाणे
जसं
लहइ
जड़
अव्यय
नत्थि
अव्यय
गुणा
(गुण) 1/2 वि
열
의
월
कुलेण गुणिणो
अव्यय (किं) 1/1 सवि (कुल) 3/1 (गुणी) 4/1 वि (कुल) 3/1
= उच्च कुल से = गुणी के लिए
कुलेण
= उच्च कुल से
अव्यय
अव्यय
= प्रयोजन
कज्जं कुलमकलंक'
(कज्ज) 1/1 [(कुलं)+ (अकलंक)] कुलं' (कुल) 2/1 अकलंक' (अकलंक) 2/1 वि
= कुल पर , कलंक रहित
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[(गुण)-(वज्ज) भूक 6/2] (गरुय) 1/1 वि
गुणवज्जियाण' गरुयं चिय कलंक
= गुणहीन के कारण = बड़ा = निश्चय ही = कलंक
अव्यय
(कलंक) 1/1
34.
गुणहीणा
- गुणहीन
-जो
पुरिसा
कुलेण
= पुरुष = कुल के कारण = गर्व = धारण करते हैं
गव्वं वहंति
वे
[(गुण)-(हीण) भूकृ 1/2 अनि] (ज) 1/2 सवि (पुरिस) 1/2 (कुल) 3/1 (गव्व) 2/1. (वह) व 3/2 सक (त) 1/2 सवि (मूढ) 1/2 वि [(वंस)+ (उप्पन्नो)] [(वंस)-(उप्पन्न) भूकृ 1/1 अनि] अव्यय (धणु) 1/1 [(गुण)-(रह) भूकृ 7/1] अव्यय (टंकार) 1/1
= मूढ़ = बांस से उत्पन्न
वंसुप्पन्नो
= यद्यपि = धनुष = रस्सीरहित होने के कारण
= नहीं ।
धणू गुणरहिए नत्थि . टंकारो 35. जम्मतरं
= टंकार
= जन्म-संयोग
[(जम्म)+ (अंतर)] [(जम्म) (अंतर) 1/1] अव्यय (गरुय) 1/1 वि
न
..
.
= नहीं
गरुयं
= महान
1.
कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135)
2.
-
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गरुयं पुरिसस्स' गुणगणारुहणं
= महान = पुरुष के द्वारा
(गरुय) 1/1 वि (पुरिस) 6/1 [(गुण) + (गण)+ (आरुहणं)] [(गुण)-(गण)-(आरुहण)) 1/1] (मुत्ताहल) 1/1 अव्यय (गरुय) 1/1 वि
गुण-समूह का ग्रहण
मुत्ताहलं
गरुयं
अव्यय
अव्यय
गरुयं सिप्पिसंपुडयं
(गरुय) 1/1 वि [(सिप्पि)-(संपुड) 1/1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय]
.
-सीप का खोल ..
.
36. खरफरुसं सिप्पिउडं
= रूखा और कठोर = सीप का खोल
रयणं
, - रत्न
= वह
[(खर) वि-(फरुस) 1/1 वि] [(सिप्पि)-(उड) 1/1] (रयण) 1/1 (त) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक (ज) 1/1 सवि (अणग्धेय) 1/1 वि (जाइ) 3/1 (किं) 1/1 सवि
= होता है = जो
अणग्धेयं जाईइ किं ।
= बहुमूल्य = जन्म से
=क्या
अव्यय
॥
किज्जइ
॥
= बतलाइए तो = किया जाता है = गुणों से
(कि) व कर्म 3/1 सक (गुण) 3/2 (दोस) 1/2
गुणेहि
दोसा
= दोष
1.
कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134)
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________________
फुसिज्जंति
(फुस) व कर्म 3/2 सक
.
= पोंछ दिए जाते हैं
जाणइ
भण
= जिस (बात) को = समझता है = कहता है = मनुष्य = गुणों का = वैभवों का
जणो
गुणाण विहवाण अंतरं गरुयं
. (ज)2/1 सवि (जाण) व 3/1 सक (भण) व 3/1 सक (जण) 1/1 (गुण) 6/2 (विहव) 6/2 (अंतर) 1/1 (गरुय) 1/1 वि (लब्भइ) व कर्म 3/1 सक अनि (गुण) 3/2 (विहव) 1/1 (विहव) 3/2 (गुण) 1/2
अन्तर
लब्भइ गुणेहि विहवो "विहवेहि गुणा
= बड़ा = प्राप्त किया जाता है = गुणों से = वैभव = वैभवों से = गुण = नहीं = प्राप्त किये जाते हैं
अव्यय
1
घेप्पंति .
(घेप्पंति) व कर्म 3/2 सक अनि
38.
अव्यय
पासपरिसंठिओ [(पास)-(परिसंठिअ) भूकृ 1/1 अनि] = पास में स्थित
= भी अव्यय
= पादपूर्ति गुणहीणे
[(गुण)-(हीण) भूक 7/1 अनि] = गुणहीन में (किं) 1/1 स
= क्या करेइ' . (कर) व 3/1 सक
= करेगा गुणवंतो (गुणवंत) 1/1 वि
= गुणवान जायंधयस्स
[(जाय)+(अंधयस्स)]
[(जाय) भूकृ-(अंधय) 4/1 वि] = जन्मे हुए, अन्धे के लिए 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में
होता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दीवो हत्थकओ निप्फलो
(दीव) 1/1 [(हत्थ)-(कअ) भूकृ 1/1 अनि] (निप्फल) 1/1 वि
= दीपक . = हाथ में पकड़ा हुआ = निष्फल
च्चेय
ही
अव्यय
39. परलोयगयाणं
[(परलोय)-(गय) भूकृ 6/2 अनि] अव्यय
= परलोक में गये हुए
पि
अव्यय
= निश्चय ही.. .
..
पच्छत्ताओ
(पच्छत्ताअ) 1/1
= पश्चाताप .
अव्यय
= नहीं
पुरुषों के
जिनके
= गुणों के उत्साह से
जीते हैं वंश में
• = उत्पन्न
ताण
(त) 6/2 सवि पुरिसाणं
(पुंरिस) 6/2 जाण
(ज) 6/2 सवि गुणुच्छाहेणं
[(गुण)+ (उच्छाहेणं)]
[(गुण)-(उच्छाह) 3/1] जियंति (जिय) व 3/2 अक वंसे
(वंस) 7/1 समुप्पन्ना (समुप्पन्न) भूकृ 1/2 अनि 40. सज्जणसलाहणिज्जे [(सज्जण)-(सलाह)
विधि कृ. 7/1] (पय) 7/1 (अप्प) 1/1
अव्यय ठाविओ (ठाव) भूकृ 1/1 जेहिं
(ज) 3/2 स (सुसमत्थ) 1/2 वि (ज) 1/2 स
पयम्मि
अप्पा
= सज्जनों के द्वारा प्रशंसा किए जाने योग्य = मार्ग पर = आत्मा = नहीं = स्थापित की गई (है) = जिनके द्वारा
सुसमत्था
सुसमर्थ
156
अव्यय
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________________
परोवयारिणो
(परोवयारि) 1/2 वि (त) 3/2 स
= दूसरों का उपकार करनेवाले = उनके द्वारा
अव्यय
अव्यय
-नहीं
अव्यय
= कुछ
41. सुसिएण निहसिएण
(सुस) भूकृ 3/1 (निहस) भूकृ 3/1
= सूखे हुए = घिसे हुए
अव्यय
अव्यय
= तथा
कह वि
अव्यय
con
= किसी न किसी प्रकार ... = निश्चय ही = चन्दन के द्वारा = गन्ध फैली हुई
चंदणेण महमहियं
सरसा
= सरस
वि
।
अव्यय . (चंदण) 3/1 (महमह) भूकृ 1/1 (सरस) 1/1 वि अव्यय [(कुसुम)-(माला) 1/1]
अव्यय (जा) भूकृ 1/1 [(परिमल)-(विलक्खा) 1/1 वि]
कुसुममाला
जह.
= भी = फूलों की माला = जिससे कि
= अस्तित्व में आई हुई ___ - सुगन्ध से लज्जित
जाया
परिमल
विलक्खा
42.
. . .
- एक
एक्को. चिय दोसो
(एक्क) 1/1 वि अव्यय (दोस) 1/1 (तारिस) 6/1 वि [(चंदण)-(दुम) 6/1] (विहि)-(घड) भूक 1/1]
= ही = दोष = उस जैसे
तारिसस्स
चंदणदुमस्स . विहिघडिओ
= चन्दन के वृक्ष का - विधि के द्वारा घड़े हुए
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
.
जीसे' दुट्ठभुयंगा खणं
(जी) 6/1 स [(दुट्ठ)-(भुयंग) 1/2]
= जिसके = दुष्ट सर्प = क्षण के लिए
अव्यय
अव्यय
=भी
पासं
(पास) 2/1
= पास को
अव्यय
- नहीं
मेल्लन्ति
(मेल्ल) व 3/2 सक
= छोड़ते हैं
43.
बहुतरुवराण मज्झे चंदणविडवो भुयंगदोसेण छिज्झइ निरावराहो साहु
[(बहु) वि-(तरु)-(वर) 6/2 वि] (मज्झ) 7/1 [(चंदण)-(विडव) 1/1] [(भुयंग)-(दोस) 3/1] (छिज्झइ) व कर्म 3/1 सक अनि (निरावराह) 1/1 वि (साहु) 1/1 आगे संयुक्त अक्षर (व्व) के आने से दीर्घ स्वर हस्व स्वर हुआ है।
= बहुत बड़े वृक्षों के .. = बीच में = चन्दन की शाखा = सर्प दोष के कारण = काट दी जाती है = अपराधरहित
= भद्र पुरुष
अव्यय
= जैसे
दुष्ट संग के कारण
[(असाहु)-(संग) 3/1]
असाहुसंगण 44. रयणायरेण रयणं परिमुक्कं जइ वि अमुणियगुणेण तह वि
(रयणायर) 3/1 (रयण) 1/1 (परिमुक्क) भूकृ 1/1 अनि अव्यय [(अमुणिय) भूक-(गुण) 3/1]
= समुद्र के द्वारा = रत्न = परित्याग किया गया = यद्यपि = नहीं जाने हुए, गुणों के कारण = तो भी
अव्यय
अव्यय
मरगयखंड
[(मरगय)-(खंड) 1/1]
= पन्ने का टुकड़ा = जहाँ
जत्थ
अव्यय
I
1.
यहाँ ‘जीसे' (स्त्रीलिंग) का प्रयोग विचारणीय है। पुल्लिंग का प्रयोग अपेक्षित है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
(गय) भूकृ 1/1 अनि
= गया
अव्यय
= वहाँ
अव्यय
= ही
महग्धं
(महग्घ) 1/1 वि
= मूल्यवान
अव्यय
= मत
(दोस) 2/1
= दोष को
चिय
अव्यय
गेण्हह
= ग्रहण करो
= विरल
विरले वि
(गेण्ह) विधि 2/2 सक (विरल) 2/2 वि अव्यय (गुण) 2/2 (पसंस) विधि 2/2 सक (जण) 6/1 (अक्ख)-(पउर) 1/1 वि]
पसंसह
जणस्स
अक्खपउरो
= भी = गुणों की (को) = प्रशंसा करो = मनुष्य के = बहुत अधिक रुद्राक्ष = भी = समुद्र = कहा जाता है = रत्नाकर = लोक में
अव्यय
उवही
भण्णइ .
(उवहि) 1/1 (भण्णइ) व कर्म 3/1 सक अनि (रयणायर) 1/1 (लोअ) 7/1
रयणायरो
.
= लक्ष्मी
के
लोए "46. . • लच्छीइ विणा' रयणायरस्स गंभीरिमा
= बिना
(लच्छी) 31 अव्यय (रयणायर) 6/1 (गंभीरिमा) 1/1
.
= रत्नाकर की
= गम्भीरता
तह
अव्यय
- उसी तरह
चेव
अव्यय
1.
'बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है। .
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
सा
लच्छी
तेण
विणा
भण
कस्स
न
मंदिरं
पत्ता
14
47.
वडवाणलेण
गहिओ
महिओ
य
सुरासुरेहि
सयलेहिं
लच्छीड़
उवहि
मुक्को
पेच्छह
गंभीरमा '
तस्स
48.
रयणेहि
निरंतरपूरिएहि
1.
2.
100
(ता) 1 / 1 सवि
(लच्छी) 1/1
(त) 3/1 स
अव्यय
(भण) विधि 2/1 सक
(क) 6/1 सवि
अव्यय
(मंदिर) 2/1
( पत्त > पत्ता) भूकृ 1 / 1 अनि
(वडवाणल) 3/1
(ग) भूक 1/1
(मह) भूकृ 1 / 1
अव्यय
[(सुर) + (असुरेहि)]
[(सुर) - (असुर) 3/2]
(सयल) 3 / 2 वि
( लच्छी) 3/1
( उवहि) 1/1 मूलशब्द
(मुक्क) भूकं 1 / 1 अनि
(पेच्छ) विधि 2/2 सक
(गंभीरिमा) 2/1 मूलशब्द
(त) 6/1 स
( रयण) 3/2
[ (निरंतर) अ = निरंतर - (पूर) भूक 3/2]
= वह
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
=
=
=
लक्ष्मी
"
कहो
= किसके
: नहीं
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उसके
=
बिना
= घर
= पहुँची
= वडवानल के द्वारा
= ग्रसा हुआ
= मथा गया
= और
=
- सुर-असुरों द्वारा
= सकल
· = लक्ष्मी के द्वारा
= समुद्र
= त्यागा गया
देखो
=
=
गम्भीरता को
'बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है।
किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जाता है। (पिशल : प्राकृत
भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 )
= उसकी
= रत्नों से
= निरन्तर भरे हुए
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--------------------------------------------------------------------------
________________
रयणायरस्स
. (रयणायर) 6/1
= रत्नाकर के
अव्यय
- नहीं
fo
अव्यय
- गर्व
गव्वो करिणो मुत्ताहलसंसए
-
(गव्व) 1/1 (करि) 6/1 [(मुत्ताहल)-(संसअ) 7/1] अव्यय [(मय)-(विन्भला) 1/1 वि] (दिट्ठि) 1/1
= हाथी की = मोती के संशय में = भी = मद में तल्लीन
..........!!
मयविन्भला दिट्ठी
= दृष्टि
49.
रयणायरस्स
(रयणायर) 6/1
= समुद्र के - नहीं
अव्यय
अव्यय
श्री
होइ तुच्छिमा निग्गएहि रयणेहिं
(हो) व 3/1 अक (तुच्छिमा) 1/1 (निग्गअ) भूक 3/2 अनि (रयण) 3/2
तह वि
अव्यय
..
= होती है = तुच्छता = बाहर निकले हुए = रत्नों के कारण = तो भी (फिर भी) = किन्तु = चन्द्रमा के समान = थोड़े = समुद्र में . = रत्न
!!
चंदसरिच्छा विरला रयणायरे . . रयणा . 50. जइ वि
अव्यय [(चंद)-(सरिच्छ) 1/2 वि] (विरल) 1/2 वि (रयणायर) 7/1 (रयण) 1/2
अव्यय
= यद्यपि
अव्यय
= विधि के वश से
कालवसेणं ससी
[(काल)-(वस) 3/1] (ससि) 1/1
= चन्द्रमा
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
समुद्दाउ कह वि विच्छुडिओ तह वि
(समुद्द) 5/1 अव्यय (विच्छुडिअ) 1/1 वि अव्यय
= समुद्र से = किसी तरह = बिछुड़ा हुआ - तो भी
अव्यय
तस्स
= उसका
= प्रकाश
पयासो आणंद
(त) 6/1 स (पयास) 1/1 (आणंद) 2/1 (कुण) व 3/1 सक
कुणइ
= आनन्द = करता है. = दूर होने पर = भी
अव्यय
वि
अव्यय
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
पाठ-2 गउडवहो
-
अव्यय
= इस लोक में = वे = जीतते हैं = कवि
जअंति कइणो जअमिणमो
= जगत्
जाण
सअल-परिणामं वाआसु ठिअं दीसइ . आमोअ-घणं
(त) 1/2 सवि (जअ) व 3/2 अक (कइ) 1/2 [(जअं)+ (इणमो)] जअं (जअ) 1/1 इणमो (इम) 1/1 सवि (ज) 6/2 सवि [(सअल) वि-(परिणाम) 1/1] (वाआ) 7/2 (ठिअ) भूकृ 1/1 अनि (दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(आमोअ)-(घण) 1/1 वि] अव्यय (तुच्छ) 1/1 अव्यय
= वह = जिनकी = सकल अभिव्यक्ति = वाणियों में = विद्यमान = देखा जाता है हर्ष से पूर्ण
तुच्छं ।
तिरस्कार
-
या
(णिअअ-णिअआ) 3/1 वि
अव्यय
2. णिअआए . च्चिअ . . . वाआए : अत्तणो गारवं णिवेसंता
(वाआ) 3/1 (अत्त) 6/1 (गारव) 2/1 (णिवेस) वकृ 1/2 (ज) 1/2 सवि (ए) व 3/2 सक
= स्वकीय = ही . = वाणी के द्वारा = निज के = गौरव को = स्थापित करते हुए = जो = प्राप्त करते हैं
एंति
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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Page #111
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________________
(पसंसा) 2/1
पसंसं च्चिअ जअंति
अव्यय
= प्रशंसा = निश्चय ही = जीतते हैं = इस लोक में
(जअ) व 3/2 अक
इह
अव्यय
(त) 1/2 सवि [(महा) वि-(कइ) 1/2]
महा-कइणो
= महाकवि
वि
= निर्धनता में = भी .. = सुख = उनके लिए = वैभव में
दोग्गच्चम्मि (दोग्गच्च) 7/1
अव्यय सोक्खाइँ (सोक्ख) 1/2 ताण
(त) 4/2 सवि विहवे (विहव) 7/1
अव्यय होति (हो) व 3/2 अक दुक्खाई (दुक्ख) 1/2 कव्व-परमत्थ- . [(कव्व)-(परमत्थ)रसिआइँ (रसिअ) 1/2 वि]. जाण
(ज) 6/2 सवि जाअंति (जाअ) व 3/2 अक हिअआइँ (हिअअ) 1/2
= होते हैं = दुःख
...
= काव्य-तत्त्व के रसिक = जिनके = होते हैं
= हृदय
4.
सोहेइ सुहावेड़
अ
(सोह) व 3/1 अक (सुहाव) व 3/1 सक अव्यय (उवहुज्जत) कर्म वकृ 1/1 अनि (लव) 1/1
अव्यय (लच्छी ) 6/1 (देवी) 1/1
= शोभती है = सुखी करती है = तथा = उपभोग की जाती हुई थोड़ी मात्रा
उवहुज्जंतो लवो
लच्छीए
= भी लक्ष्मी की
देवी
= देवी
104
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
सरस्सई
(सरस्सई) 1/.1 अव्यय
उण
(अ-समग्ग-अ-समगा) 1/1 वि .
असम-गा किंपि विणडेइ
= सरस्वती = किन्तु = अपूर्ण = किंचित् = उपहास करती है
अव्यय
(विणड) व 3/1 सक
5.
लग्गिहिइ
(लग्ग) भवि 3/1 सक
अव्यय
वा
अव्यय
सुअणे. वयणिज्जं दुज्जणेहिँ . भण्णंतं
= लगेगी = नहीं = अथवा = सज्जनों को = निन्दा = दुर्जनों द्वारा = कही हुई = उनके = किन्तु = वह = सज्जनों की निन्दा-दोष
के कारण = घटित हो जाती है
(सुअण) 2/2 (वयणिज्ज) 1/1 (दुज्जण) 3/2 (भण्णंत) कर्म वकृ 1/1 अनि (त) 6/2 सवि अव्यय (त) 1/1 सवि [(सुअण)+(अववाअ)+ (दोसेण)] [(सुअण)-(अववाअ)-(दोस) 3/1] (संघड) व 3/1 अक
ताण
पुण
• सुअणाववाअदोसेण संघडइ .
6.
जाण (ज) 4/2 स
असमेहिँ . . (असम) 3/2 वि 'विहिआ . . . (विहिअ) भूकृ 1/1 अनि जाअइ. (जाअ) व 3/1 अक
(णिंदा) 1/1 समा
(समा). 1/1 वि सलाहा
(सलाहा) 1/1
अव्यय ____1. समा = के समान (सम-संमा)
= जिनके लिए = असमान के द्वारा = की गई = होती है = निन्दा = के समान = प्रशंसा = भी.
जिंदा
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
105
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
. जिंदा
40
= निन्दा = भी = उनके द्वारा
विहिआ
= की गई
(णिंदा) 1/1 अव्यय (त)-3/2 सवि (विहिअ) भूक 1/1 अनि अव्यय (त) 6/2 स (मण्ण) 7/1 (किलाम) व 3/1 सक
= नहीं
ताण
= उनके = मन को
मण्णे' किलामेइ
= खिन्न करती है
(हर) व 3/1 सक (अणु) 1/1 वि
= प्रसन्न करता है - छोटा
अव्यय
= भी
..
पर-गुणो गरुअम्मि
= दूसरे का गुण = बड़े (गुण) में
वि
णिअ-गुणे
ण
संतोसो
[(पर) वि-(गुण) 1/1] (गरुअ) 7/1 वि अव्यय [(णिअ) वि-(गुण) 7/1]
अव्यय (संतोस) 1/1 (सील) 6/1 (विवेअ) 6/1 अव्यय [(सारं) + (इणं)] सारं (सार) 1/1 इणं (इम) 1/1 सवि (एत्तिअ) 1/1 वि
= अपने गुण में = नहीं = सन्तोष = शील का = विवेक का
सीलस्स
विवेअस्स
अ
=
और
सारमिणं
= सार
= यह
एत्तिअं
= इतना
चेअ
अव्यय
fic
1.
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135)
106
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
णिव्वाडंताण सिवं
(णिव्वाड) प्रे वकृ 4/2 (सिव) 2/1 (सअल) 1/1 वि
= सिद्ध करते हुए के लिए = कल्याण को
सअलं
= समग्र
अव्यय
= ही
चिअ सिवअरं
(सिवअर) 1/1 तुवि
= अधिक कल्याणकारी
तहा
अव्यय
- इस प्रकार
ताण
Lavallérrall
(त) 4/2 स (णिव्वड) व 3/1 अक
= उनके लिए = सिद्ध होता है
णिव्वडइ
किं पि
अव्यय
= कुछ = जिससे
अव्यय
(त) 1/2 स
अव्यय
अव्यय
= स्वयं
अप्पणा विम्हअमुवेंति
[(विम्हअं)+ (उवेंति)] विम्हअं (विम्हअ) 2/1 उति (उवे) व 3/2 सक
= आश्चर्य को = प्राप्त करते है
तं
(त) 1/1 सवि
= वह
अव्यय
= वास्तव में
= लक्ष्मी की
सिरीएँ रहस्सं
(सिरी) 6/1 (रहस्स) 1/1
= रहस्य = कि
अव्यय
सुचरिअमग्गणेक्कहिअओ वि .
[(सुचरिअ)+ (मग्गण)+ (एक्क)+ (हिअओ)] [(सुचरिअ) वि-(मग्गण)- (एक्क) वि-(हिअअ) 1/1]
= सुचरित्र की खोज में
स्थिर हृदय = यद्यपि
अव्यय
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
107
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्पाणमोसरंतं
= निजको = फिसलते हुए
गुणेहि लोओ
[(अप्पाणं)+ (ओसरंत)] अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 ओसरंतं (ओसर) वकृ 2/1 (गुण) 3/2 (लोअ) 1/1 अव्यय (लक्ख) व 3/1 सक
= गुणों से
= मनुष्य
ण
= नहीं
लक्खेइ
= देखता है ।
10. एक्के
लहुअ-सहावा गुणेहि लहिउँ महंति धण-रिद्धिं अण्णे विसुद्ध-चरिआ विहवाहि'
(एक्क) 1/2 सवि [(लहुअ) वि-(सहाव) 1/2] (गुण) 3/2 (लह) हेक (मह) व 3/2 सक . [(धण)-(रिद्धि) 2/1] (अण्ण) 1/2 सवि [(विसुद्ध) वि-(चरिअ) 1/2] (विहव) 3/2 (गुण) 2/2 (विमग्ग) व 3/2 सक
= कुछ (व्यक्ति) = तुच्छ, स्वभाव = गुणों के द्वारा = प्राप्त करने के लिए (की) = इच्छा करते हैं = धन वैभव को = दूसरे = विशुद्ध, चरित्र = वैभव के द्वारा
= गुणों को
विमग्गंति
= चाहते हैं
11.
दूमिज्जंता (दूम) कर्म वकृ 1/2
= पीड़ा दिये जाते हुए हिअएण' (हिअअ) 3/1
= हृदय में किंपि अव्यय
= कुछ चिंतेंति (चिंत) व 3/2 सक
= विचारते हैं कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) 'इच्छा' अर्थ की क्रियाओं के साथ हेत्वर्थक कृदन्त का प्रयोग होता है। अपभ्रंश का प्रत्यय है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137)
108
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
For Personal & Private Use Only
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________________
जइ
ण
जाणामि
किरिया
पुण
अहंति
सज्जणा
णावरद्धे
da
वि
12.
महिमं
दोसाण
गुणा
दोसा
do
वि
हु
hco
दैति
• गुण - णिहाअस्स
दोसाण
15
गुणा
ते
गुणा
जइ
ता
णमो
ताण
अव्यय
अव्यय
(जाण) व 1 / 1 सक
(किरिया) 7/2
अव्यय
(पअट्ट) व 3 / 2 अक
(सज्जण) 1/2
[(ण) + (अवरद्धे ) ]
ण (अव्यय)
अवरद्धे (अवरद्ध) 7/1
अव्यय
(महिमा) 2 / 1
(दोस) 4/2
( गुण) 1/2
(दोस) 1/2
अव्यय
अव्यय
(दा) व 3 / 2 सक
[ ( गुण) - (णिहाअ) 4/1]
(दोस) 6/2
(ज) 1 / 2 सवि
( गुण) 1 / 2
(त) 1/2 स
.(गुण) 6/2
अव्यय
अव्यय
अव्यय
(त) 4 / 2 स
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
= यदि
= नहीं
= जानता हूँ
= सावद्य क्रियाओं में
: किन्तु
= प्रवृत्ति करते हैं
= सज्जन
=
= नहीं
= अपराध में
= भी
= महिमा
= दोषों के लिए
= गुण
= दोष
= तथा
= भी
= प्रदान करते हैं
= गुण-समूह के लिए
= दोषों के
= जो
= गुण
= वे
=
= गुणों के
=
- यदि
=
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तो
= नमस्कार
: उनके लिए
=
109
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--------------------------------------------------------------------------
________________
13. संसेविऊण दोसे
अप्पा
= खूब भोग करके = दोषों को = आत्मा = समर्थ होती है = गुणों को अवस्थित = करने के लिए
तीरइ
गुण-ट्रिओ काउं णिव्वडिअ
(सं-सेव) संकृ (दोस) 2/2 (अप्प) 1/1 (तीर) व 3/1 अक [(गुण)-(ट्ठिअ) भूकृ 1/1 अनि] (काउं) हेकृ अनि [(णिव्वडिअ) वि- (गुण) 6/2] अव्यय (दोस) 7/2 (मइ) 1/1 अव्यय (संठा) व 3/1 अक
गुणाण
= सिद्ध होने पर, गुणों के
पुणो
= किन्तु
दोसेसु
= दोषों में = मति
मई
.
- नहीं
संठाइ
= रहती
14.
जह
अव्यय
जह
अव्यय
णग्छति
[(ण) + (अग्घंति)] (ण) अव्यय अग्घति' (अग्घ) व 3/2 अक (गुण) 1/2
शोभायमान होंगे
E
अव्यय
# न
अव्यय
(दोस) 1/2
अव्यय
र
संपइ
अव्यय
= इस समय __ = फलेंगे
फलंति
(फल) व 3/2 अक
1.
कभी-कभी वर्तमानकाल तात्कालिक भविष्यत् काल का बोध कराता है।
110
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
For Personal & Private Use Only
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________________
अगुणाअरेण
तह
तह
गुण-सु
होहि
जअं
पि
15.
अच्चंत - विएएण
वि
गरुआण
ण
णिव्वडंति
संकप्पा
विज्जुज्जोओ
बहलत्तणेण
मोहे
अच्छीइं
16.
जआ
ण
हु
अरणीभूअ
णवर
1.
[(अगुण) + (आअरेण)
(अगुण) - (आअर) 3 / 1]
अव्यय
'अव्यय
[ ( गुण) - (सुण्ण) 1 / 1]
(हो) भवि 3 / 1 अक
(जअ ) 1 / 1
अव्यय
[ (अच्चंत ) वि - (विएअ) 3 / 1 वि]
अव्यय
(गरुअ ) 6 / 2 वि
अव्यय
( णिव्वड) व 3 / 2 अक
(संकप्प) 1/2
[(विज्जु) + (उज्जोओ) ] [(विज्जु)-(उज्जोअ) 1/1]
( बहलत्तण) 3 / 1
(मोह) व 3 / 1 सक
(अच्छि ) 2/2
[ ( उवअरणी) वि- (भूअ )
भूकृ- (जअ)' 2/2]
अव्यय
अव्यय
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -
2
=
अगुणों के आदर से
: वैसे
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=
=
=
=
वैसे
= जगत
= भी
=
गुण- शून्य
= अत्यन्त ओजस्वी होने
के कारण
हो जाएगा
= ही
= महान के
= नहीं
= सम्पन्न होते हैं
= - संकल्प
=
= बिजली का प्रकाश
= पुष्कलता के कारण
= अस्त-व्यस्त कर देता है
=
- नहीं
= आश्चर्य
अव्यय
= केवल
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137) तथा 'जअ ' 'मानव जाति' अर्थ में बहुवचन में प्रयुक्त होता है।
आँखों को
= उपकार करने वाले, हुए, मानव जाति के अन्दर
111
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
= नहीं
पाविआ . पहु-ट्ठाणं उवअरणं
(पाव) भूकृ 1/2 [(पहु) वि-(ट्ठाण) 2/1] (उवअरण) 2/1
= पहुँचे = उच्च स्थान को
साधन
अव्यय
अव्यय
= नहीं
जाआ
(जा) भूकृ 1/2 [(गुण)-(गुरु) 1/2] [(काल)-(दोस) 3/1]
= पाया = गुणों में महान
गुण-गुरुणो काल-दोसेण
= काल-दोष से
17.
= प्रवेश करता है
च्चे
सरहसं
= उत्सुकता से = जिन (घरों) में = क्या = उनसे
विसइ (विस) व 3/1 अक
अव्यय क्रिविअ 2/1 (ज) 7/2 सवि (किं) 1/1 स
(त) 3/2 सवि खंडिआसेहिं
[(खंडिअ)+ (आसेहिं)]
[(खंडिअ)-(आस) 3/2] णिक्खमइ (णिक्खम) व 3/1 अक
(ज) 7/2 सवि परिओस- [(परिओस)-(णिब्भर) णिभरो 1/1 वि] ताइँ
(त) 1/2 सवि गेहाई (गेह) 1/2 18. साहीण-सज्जणा [(साहीण) वि-(सज्जण) 1/2]
= छिन्न आशाओं से = बाहर निकलता है = जिनमें
= पूर्ण सन्तोष
= निकट, सज्जन
अव्यय
= ही
= आश्चर्य
अव्यय (णीअ) वि-(पसंग) 7/1]
णीअ-पसंगे
नीच संगति में
112
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मंति
काउरिसा
सा
इर
लीला
·15
काअ-धारणं
सुलह-रअणाण
19.
किविणाण
अण्ण
दाण-गुणे
- विसए
अहिसलाहमाणाण
णिअ-चाए
उच्छाहो
ण
णाम
कह
वा
ण
लज्जा
वि
20.
सइ
जादर
चिंताअड्ढिअं
(रम) व 3 / 2 अक
( काउरिस) 1/2
(ता) 1 / 1 स
अव्यय
(लीला) 1 / 1
अव्यय
[ ( काअ ) - (धारण) 1 / 1]
[(yme) fa-(13101)' 6/2]
(fanfaur) 6/2
[ ( अण्ण) वि - (विसअ ) 7/1]
[(दाण) - (गुण) 2/2]
(अहिसलाह) वकृ 6/2
[(fo137) fa-(137) 7/1]
( उच्छाह) 1 / 1
अव्यय
अव्यय
अव्यय
अव्यय
अव्यय
(लज्जा) 1 / 1
अव्यय
अव्यय
[(जाढर) वि- (चिंता) - (अड्ढिअ)
1/1 fa]
अव्यय
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
= प्रसन्न होते हैं
- दुष्ट पुरुष
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=
= वह
= निश्चय ही
= स्वेच्छाचारिता
=
= काँच ग्रहण
= सुलभ होने पर, रत्नों के
कि
= कृपण के
= दूसरों के विषय में
= दान-गुण को : सराहते हुए
=
=
=
निज त्याग में
= उत्साह
नहीं
= आश्चर्य
= कैसे
= और
= नहीं
= लज्जा
= भी
कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134)
= सदा
पेट से सम्बन्धित चिन्ता से
=
खिचा हुआ
= तथा
113
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--------------------------------------------------------------------------
________________
= हृदय
हिअअं अहो
= नीचे = मुख
(हिअअ) 1/1 अव्यय (मुह) 1/1 (ज) 6/2 सवि [(उधुर) वि-(चित्त) 1/2] अव्यय
जाण
उधुर-चित्ता
= जिनका = ऊँचे उद्देश्य = कैसे = सम्भव
कह
अव्यय
णाम होंतु .
.
(हो) विधि 3/2 अक. (त) 7/2 सवि [(सुण्ण) वि-(ववसाय) 5/1]
= वे ....
- प्रयत्न से विहीन
सुण्ण-ववसाया 21. अघडिअपरावलंबा
[(अघडिअ)+ (पर)+(अवलंबा)] [(अघडिअ) भूकृ- (पर) वि-(अवलंब) 1/2] अव्यय
= नहीं बनाए गए दूसरे
सहारे = जैसे
जह
जह
अव्यय
गरुअत्तणेण विहडंति
(गरुअत्तण) 3/1 . (विहड) व 3/2 अक
तह
अव्यय
तह
अव्यय
= सम्मान से = अलग होते हैं = वैसे = वैसे = महापुरुषों के द्वारा = होती है = जड़ पकड़े हुए
गरुआण' हवंति बद्ध-मूलाओ कित्तीओ
(गरुअ) 6/2 वि (हव) व 3/2 अक (बद्धमूल >बद्धमूला) 1/2 वि (कित्ति) 1/2
= कीर्ति
22.
तण्हा
(तण्हा) 1/1
= तृष्णा
1.
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
114
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
अखंडिअ
= नहीं मिटाई गई
च्चिअ..
विहवे
(अखंडिअ) 1/1 वि आगे संयुक्त अक्षर (च्चिअ) के आने से दीर्घ स्वर हस्व स्वर हुआ है। अव्यय (विहव) 7/1 (अच्चुण्णअ) 2/2 वि अव्यय (लह) संकृ (सेल) 2/1
अच्चुण्णए
= भी . . = सम्पत्ति में = बहुत ऊँची को = आश्चर्य = प्राप्त करके = पर्वत पर
लहिऊण सेलं
अव्यय
= भी
(समारुह) संकृ
= चढ़कर
अव्यय
-क्या
समारुहिऊण' किंव गअणस्स आरूढं
= गगन पर
(गअण) 611 (आरूढ) 1/1
= चढ़ना
1. 2.
गति अर्थ के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
115
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________________
पाठ - 3 दशवैकालिक
समाए
= राग-द्वेष से रहित
(सम-समा) 7/1 वि (पेहा) 7/1 (परिव्वय) वकृ 1/1
अव्यय
पेहाए परिव्वयंतो सिया . मणो निस्सरई बहिद्धा
= चिन्तन में = भ्रमण करता हुआ = कभी .... = मन = निकल जाता है ।
.
(मण) 1/1 (निस्सर) व 3/1 अक
अव्यय
॥
= बाहर
न
॥
• अव्यय (ता) 1/1 सवि (अम्ह) 6/1 स
॥
॥
अव्यय
॥
निश्चय ही
॥
अव्यय (अम्ह) 1/1 स अव्यय (ती) 6/1 स
= उसका
इच्चेव
अव्यय
%D इस प्रकार
= उससे
ताओ विणएज्ज
(ता) 5/1 स (वि-णी-वि–णएज्ज) विधि 3/1 सक अनि (राग) 2/1
= हटावे
रागं
= आसक्ति को
1.
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है।
116
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
2.
आयावयाही'
चय
सोगुमल्ल
क
कमाही '
कमियं
खु
दुखं
छिंदाहि '
दोसं
विज्ज
रागं
एवं
सुही
होहिसि
संपराए
3.
सव्वभूयऽ
प्पभूयस्स
1.
2.
3.
4.
5.
( आयावय) प्रे' अनि विधि 2 / 1 सक
(चय) विधि 2/1 सक
(सोगुमल्ल) 2/1
(काम) 2/2
(कम) विधि 2/1 सक
( कम ) भूक 1 / 1
अव्यय
( दुक्ख ) 1/1
(छिंद) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
(सुहि) 1/1 वि
(हो) भवि 2/1 अक
(संपराअ) 7/1
[(सव्व) + (भूय) + (अप्प ) + (भूयस्स ) ] [ ( सव्व ) - (भूय ) ' - ( अप्प ) - (भूय) * 6/1s वि]
= तपा
= छोड़
= अति कोमलता को
इच्छाओं को
(दोस) 2/1
(वि- णी - विणएज्ज) विधि 2 / 1 सक अनि = हटा
(राग) 2/1
= राग को
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
=
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= वश में कर
= पार किये गए
= निश्चय ही
=दुःख
= नष्ट कर
= द्वेष को
= इस प्रकार
सुखी
होगा
=
=
=
यहाँ रूप बनना चाहिए— आयावयहि, पर कभी-कभी विधि में अन्त्यस्थ अ (य) के स्थान पर आ (या) हो जाता है। इसी प्रकार "कमाही', 'छिंदाहि' में है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-158) । यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'हि' को 'ही' किया गया है।
आतप् (अय) आतापय- आयावय ।
भूय = प्राणी
भूय (वि) = समान
कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया या पंचमी के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
संसार में
= सब प्राणियों का, अपने
समान के कारण
117
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________________
अव्यय
सम्मं . भूयाई पासओ पिहियासवस्स
(भूय) 2/2 (पासअ) 1/1 वि [(पिहिय)+ (आसवस्स)] [(पिहिय) भूक अनि-(आसव) 6/1] (दंत) भूकृ 6/1 अनि
= अच्छी तरह से = प्राणियों में = दर्शन करनेवाला = रोके हुए आश्रव के कारण
दंतस्स .
पावं
(पाव) 2/1 वि (कम्म) 2/1
= आत्म-नियन्त्रित होने के
कारण = अशुभ. . = कर्म को = नहीं बाँधता है
कम्म
अव्यय
(बंध) व 3/1 सक
अव्यय
= सर्वप्रथम
नाणं
(नाण) 2/1
= ज्ञान = बाद में
तओ
अव्यय
दया
(दया) 1/1
= करुणा
अव्यय
= इस प्रकार
चिट्ठइ
= आचरण करता है = प्रत्येक संयत
सव्वसंजए अन्नाणी
= अज्ञानी
(चिट्ठ) व 3/1 अक [(सव्व)-(संजअ) 1/1 वि] (अन्नाणी) 1/1 वि (किं) 2/1 वि (काही) भवि 3/1 सक अव्यय
Tra
= क्या
काही किंवा
= करेगा = कैसे
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया या पंचमी के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) पूरी या आधी गाथा के अन्त में आनेवाली 'इ' का क्रियाओं में 'ई' हो जाता है। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138) पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 771 (अर्धमागधी में 'काही' भी होता है।)
4.
118
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
नाहिइ
छेय
(ना) भवि 3/1 सक (छेय) मूल शब्द 2/1 (पावग) 2/1
= जानेगा = हित को = अहित को
पावगं
सोच्चा
जाणइ कल्लाणं
= सुनकर = समझता है = मंगलप्रद को
सोच्चा
जाणइ
= सुनकर = समझता है = अनिष्टकर को = दोनों को
पावगं उभयं
(सोच्चा) संकृ अनि (जाण) व 3/1 सक (कल्लाण) 2/1 वि (सोच्चा) संकृ अनि (जाण) व 3/1 सक (पावग) 2/1 वि (उभय) 2/1 वि अव्यय (जाण) वं 3/1 सक (सोच्चा) संकृ अनि (ज) 1/1 सवि (छेय) 1/1 वि (त) 2/1 सवि (समायर) विधि 3/1 सक
= समझता है
जाणई सोच्चा
= सुनकर
छेयं तं.
= मंगलप्रद = उसको (उसका) = आचरण करे
समायरे 6...
तत्थिमं
...
पढम
[(तत्थ)+ (इम)] (तत्थ) अव्यय
= वहाँ पर इमं (इम) 1/1 सवि
= यह (पढम) 1/1 वि
= सर्वप्रथम ठाणं (ठाण) 1/1
= स्थान महावीरेण (महावीर) 3/1
= महावीर के द्वारा किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा-शब्द काम में लाया जा सकता है। (प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 17)
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। 3. पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 683
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
= उपदिष्ट,
॥
देसियं . अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूएसु
॥
(देस) भूकृ 1/1 (अहिंसा) 1/1 क्रिविअ (दिट्ठ-दिट्ठा) भूकृ 1/1 अनि [(सव्व)-(भूअ) 7/2] (संजम) 1/1
= अहिंसा = सूक्ष्म रूप से = जानी गई है = सब प्राणियों के प्रति
॥
॥
संजमो'
- करुणाभाव
अव्यय
.
बाहिरं
= नहीं ... = बाह्य को (का) = तिरस्कार करे = अपने को
(बाहिर) 2/1 वि (परिभव) विधि 3/1 सक (अत्ताण) 2/1
परिभवे
अत्ताणं
अव्यय
= नहीं
समुक्कसे सुयलाभे
(समुक्कस) विधि 3/1 सक [(सुय)-(लाभ) 7/1]
= ऊँचा दिखाए = ज्ञान का लाभ होने पर ..
अव्यय
= नहीं
मज्जेज्जा
जच्चा
(मज्ज) विधि 3/1 अक (जच्चा) 6/1 अनि (तवसि) मूल शब्द 6/1 वि (बुद्धि) 6/1
गर्व करे = जाति का तपस्वी का बुद्धि का
तवसि
बुद्धिए
अव्यय
धम्मस्स विणओ
(धम्म) 6/1 (विणअ) 1/1
= इसी प्रकार = धर्म का = विनय
2.
संजम=संयम करुणा की भावना, दयाभाव (आप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोष) किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द (विशेषण भी) काम में लाया जा सकता है। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) अपभ्रंश में षष्ठी में भी मूल शब्द ही काम में लाया जाता है। विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ-स्वर बहुधा कविता में हस्व हो जाते हैं। (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 182)
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
= मूल
अन्तिम
परमो
(मूल) 1/1 (परम) 1/1 वि (त) 6/1 स (मोक्ख) 1/1
२
= उसका
मोक्खो
= परमशान्ति
जेण
अव्यय
जिससे
= कीर्ति
कित्तिं सुयं सग्धं
= ज्ञान = प्रशंसनीय
निस्सेसं
(कित्ति) 2/1 (सुय) 2/1 (सग्घ) 2/1 वि (निस्सेस) 2/1 वि [(च)+(अभिगच्छई)] (च) अव्यय अभिगच्छई' (अभिगच्छ) व 3/1 सक
= समस्त
चाभिगच्छई
= और = प्राप्त करता है
अव्यय
= उसी प्रकार
तहेव अविणीयप्पा
[(अविणीय)+ (अप्पा)] [(अविणीय) वि-(अप्प) 1/2] (उववज्झ) 1/2 वि
: उववज्झा
= अविनीत, मनुष्य = राजकीय वाहन के रूप में
काम आनेवाले = घोड़े
- हाथी
हया गया दीसंति दुहमेहंता
(हय) 1/2 (गय) 1/2 (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि . [(दुहं)+ (एहंता)] दुहं (दुह) 2/1 एहंता (एह) वकृ 1/2
= देखे जाते हैं
= दुःख में, बढ़ते हुए
पूरी या आधी गाथा के अन्त में आने वाली 'इ' का क्रियापदों में बहुधा 'ई' हो जाता है। (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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________________
आभिओगमुवट्ठिया
[(आभिओग)+ (उवट्ठिया)]
आभिओग' (आभिओग) 2/10 उवट्ठिया (उवट्टिय) भूकृ 1/2 अनि
= प्रयास में, लगे हुए
10. तहेव सुविणीयप्पा .
अव्यय
= उसी प्रकार
[(सुविणीय)+ (अप्पा)]
[(सुविणीय) वि-(अप्प) 1/2] .. (उववज्झ) 1/2 वि
उववज्झा
= विनीत, मनुष्यों ने = राजकीय वाहन के रूप में काम आनेवाले
हया
= घोड़े = हाथी
गया
= देखे जाते हैं
दीसंति सुहमेहता
(हय) 1/2 (गय) 1/2 (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि [(सुहं)+ (एहंता)] सुहं' (सुह) 2/1 एहंता (एह) वकृ 1/2 (इड्ढि ) 2/1 (पत्त) भूकृ 1/2 अनि [(महा)-(यस) 5/1]
= सुख में, बढ़ते हुए
इडिंढ
पत्ता
= वैभव = प्राप्त किया = महान यश के कारण
महायसा
11.
अव्यय
= उसी प्रकार
तहेव सुविणीयप्पा
लोगंसि नर-नारिओ दीसंति
[(सुविणीय)+ (अप्पा)] [(सुविणीय) वि-(अप्प) 1/2] (लोग) 7/1 [(नर)-(नारी) 1/2] (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि
= विनीत, मनुष्यों ने = लोक में = नर-नारियाँ = देखी जाती हैं
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137) ‘कारण' अर्थ में तृतीया या पंचमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। नारीओ-नारिओ, विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में हस्व हो जाते हैं। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 182)
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
सुहमेहंता
= सुख में, बढ़ती-हुई
इडिंढ
[(सुह)+ (एहता)] सुह' (सुह) 2/1 एहंता (एह) वकृ 1/2 (इड्ढि) 2/1 (पत्त) भूकृ 1/2 अनि [(महा)-(यस) 5/1]
पत्ता
= वैभव = प्राप्त किया = महान यश के कारण
महायसा
12.
अप्पणट्ठा
= निज के लिए
[(अप्पण)+ (अट्ठा)] [(अप्पण)-(अट्ठा) 1/1] [(पर)+ (अट्ठा)] [(पर)-(अट्ठा) 1/1]
परट्ठा
= दूसरे के लिए
अव्यय
(कोह) 5/1
= क्रोध से
अव्यय
3या
जइवा
अव्यय
= भले ही
भया
(भय) 5/1 (हिंसग) 2/1 वि
= भय से = पीड़ाकारक
हिंसगं
अव्यय
= असत्य
(मुसा) 2/1 (बूया) विधि 3/1 सक अनि
= बोले
नो
अव्यय
T
वि
. अव्यय
कल
अन्नं
(अन्न) 2/1
= दूसरे से
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 'कारण' अर्थ में तृतीया या पंचमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 685 नियम से प्रेरणार्थक धातुओं के साथ मूल धातु के कर्ता में तृतीया होती है, किन्तु बोलना, जाना, जानना आदि अर्थों वाली धातुओं के प्रेरणार्थक रूप के साथ मूल धातु के कर्ता में तृतीया न होकर द्वितीया होती है। इसलिए यहाँ अन्नं' में द्वितीया है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
वयावए
13.
अप्पत्तियं
जेण
सिया'
आसु
कुप्पेज्ज
वा
परो
सव्वसो
तं
21.
न
भासेज्जा
भासं
अहियगामिण
14.
सज्झाय
सज्झाणरयस्स
ताइणो
अपावभावस्स
तवे
रयस्स
विज्झाई
जं
15 2
से
मलं
1.
2.
3.
124
( वय - वयाव ) प्रे विधि 3 / 1 सक
( अप्पत्तिय) 1 / 1
अव्यय
(सिया) विधि 3 / 1 अक अनि
अव्यय
(कुप्प ) विधि 3 / 1 अक
अव्यय
(पर) 1 / 1
अव्यय
(त) 2 / 1 सवि
अव्यय
( भास) विधि 3 / 1 सक
( भासा ) 2/1
[(अहिय) - (गामिणी) 2 / 1 वि]
[ ( सज्झाय) - (सज्झाण) - ( रय) 6/1 वि]
(ताइ) 6 / 1 वि
=
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बुलवाए
= मानसिक पीड़ा
जिससे
=
= हो
= शीघ्र
= क्रोध करने लगे
= और
= दूसरा
-
: सर्वथा / बिल्कुल
= उस
= न
= बोले
= भाषा को
[ ( अपाव) - (भाव) 6 / 1]
(तव) 7 / 1
(य) 6/1 वि
(विसुज्झ ) व 3 / 1 अक
(ज) 1 / 1 सवि
अव्यय
(मल) 1 / 1
पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 685 छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है।
वाक्य की शोभा (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 624)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
अहित करनेवाली
= स्वाध्याय और सद्-ध्यान
में लीन का
= उपकारी का
= निष्पाप मन का
= ताप में
= लीन (व्यक्ति) का
= शुद्ध हो जाता है
= जो
= वाक्य की शोभा
= दोष
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________________
.
समीरियं रुप्पमलं
(पुरेकड) 1/1 वि (समीर) भूकृ 1/1 [(रुप्प)-(मल) 1/1]
= पूर्व में किया हुआ = झकझोरे हुए = सोने का मैल . = जैसे कि = अग्नि के द्वारा
अव्यय
जोइणा
(जोइ) 3/1
.15.
विणयं
= विनय में
पि
= जो
उवाएण चोइओ कुप्पई
(विणय) 2/1 अव्यय (ज) 1/1 सवि (उवाअ) 3/1 (चोअ) भूकृ 1/1 (कुप्प) व 3/1 अक (नर) 1/1 (दिव्व) 2/1 वि (त) 1/1 सवि [(सिरिं)+ (एज्जंति)] सिरिं (सिरी) 2/1 एज्जतिं (ए-एज्ज-एज्जंत-एज्जंती) वकृ 2/1 (दंड) 3/1 (पडिसेह) व 3/1 सक
= युक्ति के द्वारा = प्रेरित = क्रोध करता है = मनुष्य = दिव्य
नरो दिव्वं
= वह
सो सिरिमेज्जतिं
दंडेण
= सम्पत्ति को, आती हुई = डण्डे से = रोक देता है
पडिसेहए 16. दुग्गओ ..
वा
(दुग्गअ) 1/1 अव्यय (पओअ) 3/1 (चोअ) भूकृ 1/1
= दुष्ट हाथी = जैसे = अंकुश के द्वारा = प्रेरित
पओएणं . चोइओ
1.
2.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -2
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वहई'. रहं
(वह) व 3/1 सक (रह) 2/1
अव्यय
दुब्बुद्धि
= आगे चलाता है. = रथ को = इसी प्रकार = दुर्बुद्धि = कर्तव्यों को . = कहा हुआ = कहा हुआ = करता है।
किच्चाणं'
(दुब्बुद्धि) मूल शब्द 1/1 (किच्च) 6/2 (वुत्त) भूकृ 1/1 अनि (वुत्त) भूकृ 1/1 अनि (पकुव्व) व 3/1 सक
वुत्तो
पकुव्वई' 17.
मुहत्तदुक्खा
[(मुहुत्त)-(दुक्ख) 1/2 वि]
= थोड़ी देर के लिए, दुःख = ही
अव्यय
हवंति
= होते हैं
कंटया अओमया
(हव) व 3/2 अक (कंटय) 1/2 (अओमय) 1/2 वि (त) 1/2 सवि अव्यय
= काँटे = लोहे से बने हुए
वि
तथा
अव्यय
तओ सुउद्धरा
(सुउद्धर) 1/2 वि
= बाद में = आसानी से निकाले जा सकने वाले = वाणी के द्वारा, दुर्वचन = कठिनाई से निकाले जा सकने वाले
वायादुरुत्ताणि
(वाया)-(दुरुत्त) 1/2] (दुरुद्धर) 1/2 वि
दुरुद्धराणि
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) पूरी या आधी गाथा के अन्त में आने वाली 'इ' का क्रियापदों में बहुधा 'ई' हो जाता है। (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138)
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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वेराणुबंधीणि
[(वेर)+ (अणुबंधीणि)] [(वेर)-(अणुबंधि) 1/2 वि] (महब्भय) 1/2 वि
= वैर को बाँधनेवाले = महा भय पैदा करनेवाले
महन्भयाणि 18. गुणेहि साहू अगुणेहऽसाहू
= सुगुणों के कारण = साधु
= दुर्गुण समूह के कारण = ही
गेहाहि साहूगुण मुंचऽसाहू
(गुण) 3/2 (साहु) 1/1 [(अगुणे)+ (ह)+(असाहू)] अगुणे (अगुण) 7/1 (ह) अव्यय असाहू (असाहु) 1/1 (गेण्ह) आज्ञा 2/1 सक [(साहू')-(गुण) मूल शब्द 2/2] [(मुंच)+ (असाहू)] मुंच' (मुंच) आज्ञा 2/1 सक असाहू (असाहु) 1/1 (वियाण) संकृ [(अप्पगं)+(अप्पएणं)] अप्पगं (अप्प) 'ग' स्वार्थिक 2/1 अप्पएणं (अप्प) 'अ' स्वार्थिक 3/1 (ज) 1/1 सवि
= असाधु =3D ग्रहण करो = साधु के लिए, सुगुणों को
= छोड़ो, असाधु = जानकर
वियाणिया
अप्पगमप्पएणं
= आत्मा को, आत्मा के द्वारा = जो
जो
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) कभी-कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) तथा वर्ग विशेष का बोध कराने के लिए एकवचन तथा बहुवचन का प्रयोग किया जा सकता है। पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 689 समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाते हैं, (यहाँ साहु-साहू हुआ है) (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-4) पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 689 पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 834, 837, 838 .
5. .
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________________
.
राग-दोसेहिं' समो
= राग-द्वेष में = समान
[(राग)-(दोस) 3/2] (सम) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (पुज्ज) 1/1 वि
=-वह
पुज्जो
19.
विविहगुणतवोरए [(विविह)-(गुण)-(तवोरअ)
1/1]
अव्यय
..
य निच्चं
= अनेक प्रकार के शुभ
परिणामों को, तप में लीन = तथा . = सदा.. = होता है = आशा से शून्य
अव्यय
॥
भवइ
॥
निरासए
॥
निज्जरट्टिए.
॥
तवसा
॥
(भव) व 3/1 अक (निरासअ) 'अ' स्वार्थिक 1/1 वि . [(निज्जरा)+ (अट्ठिए)] [(निज्जरा)-(अट्ठिअ) 1/1 वि] (तव) 3/1 अनि (धुण) व 3/1 सक [(पुराण)-(पावग) 2/1] (जुत्त) 1/1 वि अव्यय [(तव)-(समाहि) 7/1]
= कर्म-क्षय का इच्छुक = तप के द्वारा = नष्ट कर देता है = पुराने पापों को = संलग्न
॥
॥
॥
धुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए 20.
= सदा
= तप-साधना में
जया
अव्यय
= जब
अव्यय
= सर्वथा = छोड़ देता है
चयई
(चय) व 3/1 सक
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) समाहीए-समाहिए, विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में हस्व कर दिये जाते हैं। (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 182) पूरी या आधी गाथा के अन्त में आनेवाली 'इ' का क्रियापदों में बहुधा 'ई' हो जाता है। (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138)
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धम्म अणज्जो
= धर्म को = अज्ञानी = भोग के प्रयोजन से
भोगकारणा
= वह
तत्थ
मुच्छिए बाले आयई नावबुज्झई
(धम्म) 2/1 (अणज्ज) 1/1 वि [(भोग)-(कारण) 5/1] (त) 1/1 सवि (त) 7/1 स (मुच्छिअ) 1/1 वि (बाल) 1/1 वि (आयइ) 2/1 [(न) + (अवबुज्झई)] न (अव्यय). अवबुज्झई' (अवबुज्झ) व 3/1 सक
= उसमें = मूर्च्छित = अज्ञानी = भविष्य को
= नहीं = समझता है
जत्थेव
= जहाँ
[(जत्थ)+(एव)] (जत्थ) अव्यय (एव) अव्यय (पास) विधि 3/1 सक
पासे
= देखे = कहीं
अव्यय
'कई • दुप्पउत्तं
काएण
= खराब किया हुआ
काया से = वचन से
वाया
= या
अदु माणसेणं
(दुप्पउत्त) भूकृ 2/1 अनि (काअ) 3/1
(काया) 3/1 अनि . अव्यय
(माणस) 3/1 [(तत्थ) + (एव)] (तत्थ) अव्यय (एव) अव्यय (धीर) 1/1 वि
= मन से
तत्थेव
ही
. 1..
2.
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु इ' को 'ई' किया गया है। वाच-वाचा-वाया।
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पडिसाहरेज्जा आइण्णो खिप्पमिव
= पीछे खींचे = कुलीन घोड़ा
(पडिसाहर) विधि 3/1 सक (आइण्ण) 1/1 [(खिप्पं) + (इव)] (खिप्पं) अव्यय (इव) अव्यय (क्खलीण) 2/1
= तुरन्त = जैसे
क्खलीणं
= लगाम को
22.
अप्पा .
(अप्प) 1/1
.
= आत्मा . . = निस्सन्देह .
अव्यय
= सदा
खलु सययं रखियव्वो सविदिएहिं
= सुरक्षित की जानी चाहिए।
सुसमाहिएहिं अरक्खिओ जाइपहं
अव्यय (रक्ख) विधि-कृ 1/1 ' [(सव्व)+ (इंदिएहि)]
[(सव्व) वि-(इंदिअ) 3/2] (सु-समाहिअ) 3/2 वि (अ-रक्खिअ) 1/1 वि [(जाइ)-(पह) 2/1] (उवे) व 3/1 सक. (सुरक्खिअ) 1/1 वि [(सव्व)-(दुह) 6/2] (मुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि
= सभी इन्द्रियों द्वारा = पूरी तरह से उपशमित = अरक्षित = जन्म-मार्ग की ओर = जाती है = सुरक्षित = सब दुःखों से = छुटकारा पाती है
उवेई
सुरक्खिओ सव्वदुहाण
मुच्चइ
1. 2.
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'ई' को 'ई' किया जाता है। कभी-कभी तृतीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134)
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पाठ-4 आचारांग
अहासुतं
वदिस्सामि
अव्यय (वद) भवि 1/1 सक अव्यय
जहा
= जैसाकि सुना है = कहूँगा = प्रत्यक्ष उक्ति के आरम्भ
करते समय प्रयुक्त = वे (वह)
से
समणे
= श्रमण
भगवं
= भगवान
= त्यागकर
= जानकर
उहाय संखाए तंसि हेमंते अहुणा पव्वइए रीइत्था
(त) 1/1 सवि (समण) 1/1 (भगवन्त-भगवन्तो-भगवं) 1/1 (उ8) संकृ (संख) संक (त) 7/1 सवि (हेमंत) 7/1 अव्यय (पव्वइअ) भूकृ 1/1 अनि (री) भू 3/1 सक
= उस (में) = हेमन्त में = इस समय = दीक्षित हुए = विहार कर गए
अव्यय
- अब
पोरिसिं
(पोरिसी) 2/1
= प्रहर तक (तीन घण्टे की अवधि) = तिरछी भीत पर .
तिरियभित्ति' ... [(तिरिय)-(भित्ति) 2/1]
अर्धमागधी में ‘वाला' अर्थ में ‘मन्त' प्रत्यय जोड़ा जाता है। 'म' का विकल्प से 'व' होता है। विकल्प से त' का लोप और 'न्' का अनुस्वार हो जाता है। (अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 427) कालवाचक शब्दों के योग में द्वितीया होती है।
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम • प्राकृत व्याकरण, 3-137)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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चक्खुसासज्ज
[(चक्खं) + (आसज्ज)]
चक्खु (चक्खु) 2/1 (आसज्ज) अव्यय
अव्यय
अंतसो झाति'
= आँखों को = रखकर या लगाकर ... = आन्तरिक रूप से = ध्यान करते हैं-ध्यान करते थे
।
(झा) व 3/1 सक
अह
= तब
चक्खुभीतसहिया
अव्यय [(चक्खु)-(भीत)-(सहिय) 1/2] (त) 1/2 स
= आँखों के डर से युक्त
हंता'
अव्यय
हंता'
अव्यय
= यहाँ आओ = देखो = बहुत लोगों को .. = पुकारते थे .
बहवे कंदिसु
(बहव) 2/2 वि (कंद) भू 3/2 सक
= पादपूर्ति
पहाय
स
अव्यय केयिमे [(के)+(य)+ (इमे)]
के (क) 2/2 वि य (अ) = और = किन्हीं
इमे (इम) 1/1 स अगारत्था (अगारत्थ) 2/2 वि
= घर में रहने वालों के
स्थानों पर मीसीभावं (मीसीभाव) 2/1
= मेलजोल के विचार को (पहा) संकृ
= छोड़कर (त) 1/1 स
= वे (वह) (झा) व 3/1 सक
= ध्यान करते हैं-ध्यान
करते थे 1. भूतकाल की घटनाओं का वर्णन करने में वर्तमानकाल का प्रयोग किया जा सकता है।
भीत= डर यहाँ भीत' नपुंसकलिंग संज्ञा है (विभिन्न कोश देखें) ___ हता' शब्द अव्यय है (विभिन्न कोश देखें) 5. 'कंद' का कर्म के साथ अर्थ होगा, 'पुकारना'। 6. सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग। 132
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
झाति'
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________________
(पुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
= पूछी गई
अव्यय
णाभिभासिंसु
[(ण) + (अभिभासिंसु)] ण (अव्यय) अभिभासिंसु (अभिभास) भू 3/1 सक (गच्छ) व 3/1 सक
= नहीं = बोलते थे = चले जाते हैं-चले जाते
गच्छति
णाइवत्तती
[(ण)+(अइवत्तती)] ण (अव्यय) अइवत्तती' (अइवत्त) व 3/1 सक (अंजु) 1/1 वि
= नहीं = उपेक्षा करते थे = संयम में तत्पर
अंजू
फरिसाई
(फरिस) 2/2 दुत्तितिक्खाइं (दुत्तितिक्ख) 2/2 वि अतिअच्च . (अतिअच्च) संकृ अनि मुणी (मुणि) 1/1 परक्कममाणे
(परक्कम) वकृ 1/1 आघात-णट्ट- [(आघात)-(णट्ट)गीताई (गीत) 2/2] दंडजुद्धाइं . [(दंड)-(जुद्ध) 2/2]
= कटु वचनों की = दुस्सह = अवहेलना करके = मुनि = पुरुषार्थ करते हुए
कथा, नाच, गान को= कथा, नाच, गान में
लाठी युद्ध को= लाठी-युद्ध में
मूठी युद्ध को= मूठी-युद्ध में
मुट्ठिजुद्धाई
[मुट्ठि-(जुद्ध) 2/2]
5. .
गढिए
(गढिअ) 2/2 वि
= आसक्त को
छन्द-मात्रा की पूर्ति हेतु यहाँ ह्रस्व स्वर दीर्घ हुआ है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 137-138) . कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मिहु
अव्यय
= परस्पर = कथाओं में
कहासु
= इशारों में
arint.
समयम्मि णातसुते विसोगे
अदक्खु एताई
(कहा) 7/2 (समय) 7/1 (णातसुत) 1/1 (विसोग) 1/1 वि (अदक्खु) भू आर्ष 3/1 सक (एत) 2/2 सवि (त) 1/1 सवि (उराल) 2/2 (गच्छ) व 3/1 सक (णायपुत्त) 1/1 (असरण) 4/1
= ज्ञातपुत्र = शोकरहित = देखते थे = इन = वे (वह) = मनोहर को = करते हैं-करते थे
से .
उरालाई गच्छति णायपुत्ते असरणाए' .
3ज्ञातपुत्र
= स्मरण नहीं
6.
पुढविं
= पृथ्वीकाय को
, - और
आउकायं
(पुढवी) 2/1 अव्यय (आउकाय) 2/1
अव्यय (तेउकाय) 2/1
तेउकायं
अव्यय
वायुकायं
(वायुकाय) 2/1
अव्यय
= जलकाय को = और = अग्निकाय को = और = वायुकाय को = और = शैवाल को = बीज, हरी वनस्पति = त्रसकाय को = और = पूर्णतया
पणगाई बीयहरियाई तसकायं
(पणग) 2/2 [(बीय)-(हरिय) 2/2 वि] (तसकाय) 2/1
अव्यय
सव्वसो
अव्यय
णच्चा
(णच्चा) संकृ अनि
= जानकर
1.
मार्ग भिन्न गत्यर्थक क्रियाओं के कर्म में द्वितीया या चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है।
134
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
कर
FF .
एताइ संति पडिलेहे चित्तमंताई
देखते हैं-देखा
(एत) 1/2 सवि (अस) व 3/2 अक
पडिलेह) व 3/1 सक (चित्तमंत) 1/2 वि (त) 1/1 सवि (अभिण्णा) संकृ (परिवज्ज) संकृ (विहर) भू 3/1 सक
अभिण्णाय परिवज्जियाण विहरित्था
= चेतनवान = उसने (उन्होंने) = समझकर = परित्याग करके = विहार करते थे
इति
अव्यय
इस प्रकार
संखाए
= जानकर
(संखा) संकृ (त) 1/1 स (महावीर) 1/1
महावीरे
.
= वह (वे) = महावीर
8.
मातण्णे
= मात्रा को समझनेवाले = खाने-पीने की
असणपाणस्स
णाणुगिद्धे
नहीं
(मातण्ण) 1/1 वि [(असण)-(पाण) 6/1] [(ण)+ (अणुगिद्धे)] ण (अव्यय) अणुगिद्धे (अणुगिद्ध) 1/1 वि (रस)7/2 (अपडिण्ण) 1/1 वि (अच्छि ) 2/1
.
रसेसु अपडिण्णे अच्छि
= लालायित = रसो में = निश्चय नहीं = आँख को
अव्यय
= भी
अव्यय
= नहीं
...
णो . . पमज्जिया
(पमज्ज) संकृ
।
पोंछकर = नहीं
अव्यय
नि
अव्यय
= भी
1.
भूतकाल की घटनाओं का वर्णन करने में वर्तमानकाल का प्रयोग किया जा सकता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
-
और
य कंडुयए
(कंडुय) व 3/1 सक
= खुजलाते हैं
खुजलाते थे = मुनि = शरीर को
(मुणि) 1/1 (गात) 2/1
= नहीं -
अव्यय (तिरिय) 2/1 (पेह) संकृ
अव्यय
तिरियं पेहाए अप्पं पिट्ठओ उप्पेहाए अप्पं
अव्यय (उप्पेह) संकृ
अव्यय (बुइअ) भूकृ 7/1 अनि
बुइए
= तिरछे = देखकर . = नहीं = पीछे की ओर ... = देखकर = नहीं = संबोधित किए गए होने
पर '- उत्तर देनेवाले = मार्ग को देखनेवाले = गमन करते हैं
गमन करते थे = सावधानी बरतते हुए
पडिभाणी पथपेही चरे
(पडिभाणि) 1/1 वि [(पथ)-(पेहि) 1/1 वि] (चर) व 3/1 सक
जतमाणे
(जत) वकृ 1/1
10.
आवेसण-सभा
पवासु
[(आवेसण)-(सभा)(पवा) 7/2] (पणियसाल) 7/2
= शून्य घरों में, . सभा भवनों में = दुकानों में = कभी
पणियसालासु
एगदा
अव्यय
(वास) 1/1
= रहना
अव्यय
= अथवा
वासो अदुवा पलियट्ठाणेसु पलालपुजेसु
(पलियट्ठाण) 7/2 [(पलाल)-(पुंज) 7/2]
= कर्म-स्थानों में = घास-समूह में
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
एगदा
वासो
11.
आगंतारे
आरामागारे
नगरे
वि
एगदा
वासो
सुसाणे
सुरे
वा
रुक्खमूले
क
एगदा
वासो
12.
एतेहिं'
मुणी
सयणेहिं'
समणे
आसि
. अव्यय
(वास) 1 / 1
(आगंतार) 7/1
[ ( आराम) + (आगार ) ]
[ ( आराम ) - (आगार) 7 / 1]
(नगर) 7/1
अव्यय
अव्यय
(वास) 1/1
(सुसाण) 7/1
[(सुण्ण) + (अगारे)]
[ ( सुण्ण ) - ( अगार) 7/1]
अव्यय
[ (रुख) - (मूल) 7/1]
अव्यय
अव्यय
(वास) 1 / 1
( एत) 3 / 2 सवि
( मुणि) 1/1
(सयण) 3/2
(स-मण) 1 / 1 वि
(अस) भू 3 / 1 अक
= कभी
= ठहरना
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मुसाफिर खाने में
: बगीचे में (बने हुए)
=
स्थान में
=
= नगर में
= भी
= कभी
= रहना
= मसाण में
सूने घर में
=
= तथा
=
= पेड़ के नीचे के भाग में
= भी
= कभी
= रहना
= इनमें
=
= मुनि
= स्थानों में
= समता युक्त मनवाले
= रहे
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम
प्राकृत व्याकरण: 3-137)
आसी अथवा आसि, सभी - पुरुषों और वचनों में भूतकाल में काम में आता है ।
(पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 749)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
=
137
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पतेलस' वासे राइंदिवं
पि
(पतेलस) मूलशब्द 7/1 वि (वास) 7/1 क्रिविअ
अव्यय (जय) वकृ 1/1 (अप्पमत्त) 7/1 वि (समाहित) 7/1 वि (झा) व 3/1 सक
जयमाणे अप्पमत्ते समाहिते
= तेरहवें = वर्ष में = रात-दिन = ही = सावधानी बरतते हुए = अप्रमादयुक्त = एकाग्र (अवस्था) में = ध्यान करते हैं__ध्यान करते थे ..
झाती
..
पगामाए
(णिद्दा) 2/1
= नींद को (का) अव्यय
= कभी भी अव्यय
= नहीं
. (पगाम) 4/1
= आनन्द के लिए : सेवइ (सेव) व 3/1 सक
= उपभोग करते हैं
उपभोग करते थे या-जा-जाव अव्यय
= ठीक उसी समय भगवं
(भगवन्त-भगवन्तो-भगवं) 1/1 = भगवान उट्ठाए (उ8) संकृ
= खड़ा करके जग्गावतीय [(जग्गावति)+ (इय)]
= जगा लेते हैं(जग्ग-जग्गाव) प्रेव 3/1 सक. जगा लेते थे इय (अव्यय)
= और अप्पाणं. (अप्पाण) 2/1
= अपने को किसी भी कारक के लिए मूलशब्द (संज्ञा) काम में लाया जाता है। (मेरे विचार से यह नियम विशेषण पर भी लागू किया जा सकता है) (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) राइंदिवं-यह नपुंसकलिंग है। (Eng. Dictionary, Monier Williams) इससे क्रियाविशेषण अव्यय बनाया जा सकता है। (राइंदिवं) छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'ति' को 'ती' किया गया है। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 137-138)
12
॥
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
अव्यय
= थोड़ा सा
साई
(साइ) 1/1 वि
अव्यय
= सोनेवाले = बिल्कुल = इच्छारहित
अपडिण्णे
(अपडिण्ण) 1/1 वि
14.
= पूर्णत: जागते हुए = फिर = बैठ जाते थे
संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उट्ठाए णिक्खम्म
(संबुज्झ) वकृ 1/1 अव्यय
(आस) भू 3/1 अक .. (भगवं) 1/1
(उ8) संकृ (णिक्खम्म) संकृ अनि अव्यय
- भगवान
= सक्रिय होकर = बाहर निकलकर = कभी-कभी = रात में
एगया
राओ
अव्यय
अव्यय
= बाहर
= इधर-उधर घूमकर
(चक्कम) संकृ (मुहुत्ताग) 2/1
= कुछ समय तक
चक्कमिया' मुहत्तागं 15. सयणेहि तस्सुवसग्गा
= स्थानों में
(सयण) 3/2 [(तस्स)+ (उवसग्गा)] तस्स (त)4/1 स. उवसग्गा (उवसग्ग) 1/2 (भीम) 1/2 वि (अस) भू 3/2 अक
भीमा . . आसी' ...
= उनके लिये, कष्ट = भयानक = (वर्तमान) थे
1. . .
पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 834 समयबोधक शब्दों में द्वितीया होती है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 'आसी' अथवा 'आसि' सभी पुरुषों और वचनों में भूतकाल में काम आता है। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृष्ठ 749)
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________________
अणेगरूवा
(अणेगरूव) 1/2 वि
= नाना प्रकार के = भी
अव्यय (संसप्पग)12 वि
संसप्पा
= चलने-फिरने वाले .. = भी
अव्यय
15
ज
(ज) 1/2 सवि (पाण) 1/2
पाणा
= जीव
अव्यय
= और
अदुवा पक्खिणो उवचरंति
(पक्खि ) 1/2 (उवचर) व 3/2 सक
= पंखयुक्त = उपद्रव करते हैं· उपद्रव करते थे .
16.
इहलोइयाई परलोइयाई भीमाई अणेगरूवाई अवि सुन्भिदुब्भिगंधाई सद्दाई अणेगरूवाई
(इहलोइय) 2/2 वि (परलोइय) 2/2 वि (भीम) 2/2 वि (अणेगरूव) 2/2 वि अव्यय [(सुन्भि) वि-(दुन्भि) वि-(गंध) 2/2] (सद्द) 2/2 (अणेगरूव) 2/2 वि
= इस लोक सम्बन्धी = परलोक सम्बन्धी . = भयानक को = नाना प्रकार के = और = रुचिकर और अरुचिकर.
गन्धों में = शब्दों में = नाना प्रकार के
17. अधियासए
(अधियास) व 3/1 सक
= झेलता है-झेला
सया
अव्यय
-सदा
॥
॥
समिते (समित) 1/1 वि
= समतायुक्त फासाई (फास) 2/2
कष्टों को विरूवरूवाई (विरूवरूव) 2/2 वि
= अनेक प्रकार के अरर्ति (अरति) 2/1 वि
= शोक को 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम
प्राकृत व्याकरण : 3-137)
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
= हर्ष को
रीयति'
अह
(रति) 2/1 वि अभिभूय (अभि-भू) संकृ
= विजय प्राप्त करके (री) व 3/1 सक
= गमन करते हैं
गमन करते रहे माहणे (माहण) 1/1 वि
= अहिंसक अबहुवादी
[(अ-बहु) वि-(वादि) 1/1 वि] = बहुत न बोलनेवाले 18. लादेहि (लाढ) 3/2
= लाढ़ देश में तस्सुवसग्गा [(तस्स)+ (उवसग्गा)] तस्स (त) 4/1 स उवसग्गा (उवसग्ग) 2/2
= उनके लिए, कष्ट बहवे (बहव) 2/2 वि
= बहुत जाणवया (जाणवय) 1/2
= रहनेवाले लोगों ने लूसिंसु (लूस) भू 3/2 सक
= हैरान किया अव्यय
= उसी तरह लूहदेसिए [(लूह)-(देसिअ) 1/1 वि] = रूखे, निवासी भत्ते (भत्त) भूकृ 1/1 अनि
= पकाया हुआ भोजन कुक्कुरा (कुक्कुर) 1/2
= कुत्ते तत्थ . अव्यय
= वहाँ पर (हिंस) भू 3/2 सक
= सन्ताप देते थे (णिवत) भू 3/1 सक 19. . अप्पे.. (अप्प) 1/1 वि
= कुछ (जण) 1/1
= लोग णिवारेति (णिवार) व 3/1 सक
= दूर हटाते हैं
दूर हटाते थे लूसणए ... (लूसणअ) 2/2 वि 'अ' स्वार्थिक = हैरान करनेवाले को. 1. अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से 'अ' या 'य' जोड़ने के
पश्चात् विभक्ति चिह्न जोड़ा जाता है। 1.2. देशों के नाम प्राय: बहुवचन में होते हैं। कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का
प्रयोग होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
हिंसिंसु णिवतिंसु
= टूट पड़ते थे
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________________
सुणए डसमाणे
(सुणअ) 2/2 (डसमाण) 2/2 (छुच्छुकर) व 3/2 सक
छुच्छुकरेंति
= कुत्तों को = काटते हुए = छु-छु की आवाज करते हैं-छु-छु की आवाज करते थे
आहंसु
- बुला लेते थे
(आह) भू 3/2 सक (समण) 2/1
समणं' कुक्कुरा दसंतु
(कुक्कुर) 2/2
= महावीर के (पीछे). = कुत्तों को = थक जाएँ = जिससे
(दस) विधि 3/2 अक
अव्यय
20.
(हतपुव्व) 1/1 वि
हतपुव्वो तत्थ डंडेण
= पहले प्रहार किया गया = वहाँ ...
अव्यय
(डंड) 3/1
= लाठी से
अव्यय
= अथवा
अदुवा मुट्ठिणा
= मुक्के से
अदु
(मुट्ठि) 3/1 अव्यय (फल) 3/1
= अथवा
फलेणं
= चाकू, तलवार, भाला
आदि से
अव्यय
= अथवा
अदु लेलुणा
(लेलु) 3/1
(कवाल) 3/1 अव्यय
कवालेणं हंता हंता बहवे
= ईंट, पत्थर आदि के
टुकड़े से = ठीकरे से = आओ = देखो
अव्यय
(बहव) 2/2 वि
= बहुतों को
'पीछे के योग में द्वितीया होती है। GH = (To become exhausted (English Dictionary by Monier Will iams, P.473 Col. I) सम्मान प्रदर्शित करने में बहुवचन का प्रयोग हुआ है।
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________________
कंदि
21.
सूरो
संगामसीसे
वा
संडे
तत्थ
파
महावीरे
डिसेवमाण
फरुसाई
अचले
भगवं
यत्था
22.
अवि
साहिए'
दुवे
मासे'
छप्पि
मासे'..
अदुवा
अपिवित्था
1.
2.
(कंद) भू 3 / 2 सक
(सूर) 1/1 वि
[(संगम) - (सीस) 7/1]
अव्यय
(संवुड) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
(त) 1 / 1 सवि
(महावीर ) 1/1
(पडिसेव) वकृ 1/1
(फरुस) 2 / 2 वि
(अचल) 1 / 1 वि
(भगवन्त भगवन्तो+भगवं) 1 / 1
(री) ' भू 3 / 1 सक
->
अव्यय
(साहिअ ) 2 / 2 वि
(दुव) 2/2 वि
(मास) 2/2
[(छ) + (अप्पि)] छ (छ) 2/2
अपि (अव्यय)
(मास) 2/2
अव्यय
(अपिव) भू 3 / 1 सक
=
= पुकारते थे
: योद्धा
= संग्राम के मोर्चे पर
=
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=
= ढका हुआ
: वहाँ
=
जैसे
= वे
=
=
=
=
=
महावीर
सहते हुए
कठोर को
अस्थिरता-रहित
= भगवान
विहार करते थे
= और
= अधिक
दो
= मास तक
= छ:, भी
= मास तक
= अथवा
= नहीं पीते थे
अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से 'अ' या 'य' जोड़ने के पश्चात् विभक्ति चिह्न जोड़ा जाता है।
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137) और समय बोधक शब्दों में सप्तमी होती है।
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________________
राओवरातं
= रात में, दिन को..
दिन में = राग-द्वेष-रहित
अपडिण्णे अण्णगिला
[(राअ) + (उवरात)] [(राअ)-(उवरात) 2/1] (अपडिण्ण) 1/1 वि [(अण्ण) + (गिलायं)+ (एगता)] [(अण्ण)-(गिलाय) 2/1] एगता (अव्यय) (भुंज) व 3/1 सक
यमेगता
= भोजन, बासी को = कभी-कभी = खाता है-खाया
23.
छट्टैण'
(छट्ठ) 3/1
एगया
अव्यय
= दो दिन के उपवास के
बाद में = कभी = भोजन करते हैं, .. भोजन करते थे
भुंजे
(भुंज) व 3/1 सक
= अथवा
अदुवा अट्ठमेण
अव्यय (अट्ठम) 3/1
दसमेण
(दसम) 3/1
दुवालसमेण'
(दुवालसम) 3/1
एगदा
अव्यय (भुंज) व 3/1 सक
= तीन दिन के उपवास के
ब्राद में = चार दिन के उपवास के
बाद में = पाँच दिन के उपवास के
बाद में = कभी = भोजन करते हैं
भोजन करते थे = देखते हुए = समाधि को = निष्काम
पेहमाणे
समाहिं
(पेह) वकृ 1/1 (समाहि) 2/1 (अपडिण्ण) 1/1 वि
अपडिण्णे
॥
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) यहाँ 'बाद में' अर्थ लुप्त है, तथा 'बाद में' अर्थ के योग में पंचमी होती है।
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________________
24.
णच्चाण'
= जानकर
(णा) संकृ (त) 1/1 सवि (महावीर) 1/1
महावीरे
= महावीर
अव्यय
= नहीं
5
अव्यय
- भी
अव्यय
= बिल्कुल = पाप (को)
पावगं सयमकासी
(पावग) 2/1 [(सयं)+(अकासी)] सयं (अव्यय) अकासी (अकासी) भू आर्ष 3/1 सक । (अण्ण) 3/2 वि
अण्णेहिं
अव्यय
= स्वयं = करते थे = दूसरों से = भी = नहीं = करवाते थे = किए जाते हुए = भी
अव्यय
कारित्था
कीरतं
(कर-कार) प्रे भू 3/1 सक. (कीरंत) वकृ कर्म 2/1 अनि अव्यय [(ण)+ (अणुजाणित्था)] ण (अव्यय) अणुजाणित्था (अणुजाण) भू 3/1 सक
णाणुजाणिस्था
= नहीं अनुमोदन करते थे
पविस्स . णगरं . . .
. (गाम) 2/1
(पविस्स) संकृ अनि (णगर) 2/1
= गाँव = प्रवेश करके = नगरे को- में
वा
अव्यय .
=या
1. . पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ, 830 2. 'गमन' अर्थ के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
घासमेसे
-
कडं
= आहार को, भिक्षा ग्रहण
करता है- करते थे । = बने हुए .. = दूसरे के लिए
परट्ठाए
सुविसुद्धमेसिया
[(घास) + (एसे)] घासं (घास) 2/1 एसे (एस) व 3/1 सक (कड) भूक 2/-1 अनि (परट्ठ) 4/1 [(सुविसुद्ध)+ (एसिया)] सुविसुद्धं (सुविसुद्ध) 2/1 वि एसिया' (एस) संकृ (भगवं) 1/1 [(आयत) वि-(जोगता) 3/1] (सेव) भू 3/1 सक
= सुविशुद्ध,
भिक्षा ग्रहण करके = भगवान = संयत, योगत्व से = उपयोग में लाते थे
भगवं आयतजोगताए सेवित्था 26. अकसायी विगतगेही
सद्दरूवेसुऽमुच्छिते
(अकसायि) 1/1 वि [(विगत) भूकृ अनि-(गेहि) 1/1] अव्यय [(सद्द) + (रूवेसु)+ (अमुच्छिते)] [(सद्द)-(रूव) 7/2] अमुच्छिते (अमुच्छित) 1/1 वि (झा) व 3/1 सक
झाती'
= कषाय-रहित = लोलुपता नष्ट कर दी गई
= और . = शब्दों, रूपों में
अनासक्त = ध्यान करते हैं
ध्यान करते थे = असर्वज्ञ = भी = साहस के साथ करते हुए = नहीं = प्रमाद (को) = एकबार = भी
छउमत्थे
वि
(छउमत्थ) 1/1 वि अव्यय (विप्परक्कम) वकृ 1/1
विप्परक्कममाणे
ण
अव्यय
पमायं
(पमाय)2/1
अव्यय
अव्यय
1. 2.
पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण : पृष्ठ, 834 छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'ति' को 'ती' किया गया है।
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________________
कुव्वित्था
27.
सयमेव
अभिसमागम्म
आयतजोगमाय
सोही
अभिव्वुिडे
अमाइल्ले
आवकह
भगवं
समितासी
1.
2.
(कुव्व) भू 3 / 1 सक
[(सयं) + (एव)]
सयं (अव्यय)
एव (अव्यय)
(अभिसमागम्म) संकृ अनि
[(आयत) + (जोगं) + (आय) +
(सोहीए)]
[(आयत) वि - (जोग) 2 / 1]
[(आय) - (सोहि ) 3/1] (अभिणिव्वुड) 1/1 वि
(अमाइल्ल) 1 / 1 वि
अव्यय
( भगवं) 1 / 1
[(समित) + (आसी)]
मित' (समित) मूल शब्द 1 / 1
आसी' (अस) भू 3 / 1 अक
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
= स्वयं
ही
= प्राप्त करके
=
किया
: संयत, प्रवृत्ति को,
= आत्म-शुद्धि के द्वारा
= शान्त
= सरल
=
: जीवनपर्यन्त
= भगवान
किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ, 517 ) मेरे विचार से यह नियम विशेषण पर भी लागू किया जा सकता है।
आसी अथवा आसि सभी पुरुषों और वचनों में भूतकाल में काम आता है। (देखें गाथा
12)
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= समतायुक्त
= रहे
147
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ -5. प्रवचनसार
1.
= चारित्र = निश्चय ही = धर्म = धर्म. .
धम्मो
FFEE+ :
चारित्तं
(चारित्त) 1/1 खलु
अव्यय (धम्म) 1/1 (धम्म) 1/1 (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि
(सम) 1/1 त्ति . अव्यय णिद्दिवो (णिद्दि8) भूकृ 1/1 अनि मोहक्खोहविहीणो [(मोह)-(क्खोह)-(विहीण)
भूकृ 1/1 अनि] परिणामो (परिणाम) 1/1
(अप्प) 6/1
= समता
= कहा गया है
= मूर्छा और व्याकुलतारहित = भाव = आत्मा का
अप्पणो
अव्यय
समो
(सम) 1/1
-समता
= श्रेष्ठ = आत्मा से उत्पन्न = इन्द्रिय-विषयों से परे
अइसयमादसमुत्थं [(अइसयं)+ (आद)+ (समुत्थं)]
(अइसय) 1/1 वि
[(आद)-(समुत्थ)] 1/1 वि विसयातीदं [(विसय)+(अतीदं)]
[(विसय)-(अतीद) 1/1 वि] अणोवममणंतं [(अणोवम) + (अणंत)]
(अणोवम) 1/1 वि
(अणंत) 1/1 वि अव्वुच्छिण्णं (अव्वुच्छिण्ण) 1/1 वि
अव्यय
= अनुपम = अनन्त
= सतत
= और
148
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
सुहं सुधुवओगप्प- सिद्धाणं
(सुह) 1/1
. सुख [(सुद्ध)+ (उवओग) + (प्पसिद्धाणं)] = शुद्धोपयोग से विभूषित [(सुद्ध) वि-(उवओग)-(प्पसिद्ध) 6/2 वि] (जीवों) का
3.
सोक्खं
(सोक्ख) 1/1
= सुख
अव्यय
= तथा
पुण
अव्यय
दुक्खं
(दुक्ख) 1/1 (केवलणाणि) 6/1
केवलणाणिस्स णस्थि देहगदं
अव्यय
= पादपूर्ति = दुःख = केवलज्ञानी के = नहीं है = देह विषयक = चूँकि = अतींद्रियता = उत्पन्न हुई है = इसलिये = ही
[(देह)-(गद) भूकृ 1/1 अनि] अव्यय (अदिदियत्त) 1/1 (जाद्र) भूकृ 1/1 अनि
जम्हा
अदिदियत्तं जादं
तम्हा
अव्यय
अव्यय
-वह
(त) सीव (णेय) विधि कृ 1/1 अनि
= समझने योग्य
-ज्ञान
= आत्मा
= इस प्रकार
• (णाण) 1/1 .. (अप्प-अप्पा) 1/1
अव्यय (मद) भूकृ 1/1 अनि (वट्ट) व 3/1 अक (णाण) 1/1
= कहा गया (है) = रहता है
= ज्ञान
णाणं विणा
- बिना
अव्यय
= नहीं
अव्यय
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -2
149
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्पांणं'
(अप्पाण)2/1
= आत्मा के = इसलिये
तम्हा
णाणं
= ज्ञान
अप्पा
अव्यय (णाण) 1/1 (अप्प) 1/1 (अप्प) 1/1 (णाण) 1/1
= आत्मा
अप्पा
= आत्मा
णाणं
= ज्ञान ।
व
अव्यय
अण्णं
(अण्ण) 1/1 वि
वा
अव्यय
M
= खड़ा होना, बैठना और गमन
य
ठाणणिसेज्जविहारा [(ठाण)-(णिसेज्ज)-(विहार) 1/2] धम्मुवदेसो [(धम्म)+(उवदेसो)]
[(धम्म)-(उवदेस) 1/1]
अव्यय णियदयो (णियद) भूक 1/1 अनि य. स्वार्थिक तेसिं
(त) 6/2 सवि अरहताणं (अरहंत) 6/2 काले (काल) 7/1 मायाचारो
(मायाचार) 1/1
= धर्म का उपदेश (धर्मोपदेश) = और = स्थिर = उनका = अरिहन्तों के = (उस) समय में = मातारूप आचरण - की तरह = स्त्रियों के
व्व
अव्यय
इत्थीणं
(इत्थी) 6/2
6.
तिमिरहरा
जइ
दिट्ठी
[(तिमिर)-(हर (स्त्री)-हरा) 1/1]
अव्यय (दिट्ठि) 1/1 (जण) 6/1 (दीव) 3/1
= अन्धकार को हरनेवाली = यदि = आँख = मनुष्य की = दीपक के द्वारा
जणस्स दीवेण
1.
'बिना' के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
150
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
णत्थि
.अव्यय
कायव्वं
= नहीं = करने योग्य = उसी प्रकार
तह
सोक्खं
-सुख
सयमादा
(कायव्व) विधि 1/1 अनि अव्यय (सोक्ख) 1/1 [(सयं)+(आदा)] सय (अव्यय) आदा (आद) 1/1 (विसय) 1/2 (क) 1/1 सवि अव्यय (कुव्व) व 3/2 सक
= स्वयं (आप) = आत्मा = इन्द्रिय-विषय ..
विसया
कि
= क्या
तत्थ कुव्वंति
= वहाँ = उत्पन्न करते हैं
7.
सयमेव
= स्वयं
जहादिच्चो
= जिस प्रकार = सूर्य
= प्रकाशरूप
तेजो उण्हो
[(सयं)+ (एव)] सयं (अव्यय)
एव (अव्यय) • [(जह)+(आदिच्चो)]
जह (अव्यय) आदिच्चो (आदिच्च) 1/1 (तेज) 1/1 (उण्ह) 1/1 · अव्यय . (देवदा) 1/1 (णभसि) 7/1 अनि (सिद्ध) 1/1 अव्यय
= ऊष्णरूप
य
देवदा • णभसि सिद्धो वि .
= और = दिव्यरूप = आकाश में = सिद्ध = भी
- तहा
अव्यय
= उसी प्रकार
= ज्ञानरूप
(णाण) 1/1 (सुह) 1/1
= सुखरूप = और
अव्यय
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
लोगे .
(लोग) 7/1
तहा
अव्यय
= लोक में (इस जगत में) · = वैसे ही = दिव्यरूप
देवो
(देव) 1/1 वि
देवदजदिगुरुपूजासु [(देवद)-(जदि)-(गुरु)-(पूजा) 7/2]
अव्यय
.
.
(दाण) 7/1
चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु उववासादिसु
.
अव्यय
= देव, संन्यासी और गुरु
की आराधना में = और = दान में .. = तथा = व्रतों में = उपवासादि में = अनुरक्त = शुभ उपयोगस्वभाववाला -व्यक्ति
रत्तो
.
(सुसील) 7/2 (उववासादि) 7/2 (रत्त) भूक 1/1 अनि [(सुह)-(उवओगप्पग) 1/1 वि] (अप्प) 1/1
सुहोवओगप्पगो
अप्पा
.
9.
सपरं
॥
= सहित = दूसरे (की अपेक्षा) = बाधायुक्त = नाशवान = कर्मबन्ध का कारण
बाधासहियं विछिण्णं बंधकारणं विसमं
॥
= असमान
॥
[(स) अ-(परं)] (स) अव्यय परं-(पर) 1/1 वि [(बाधा)-(सहिय) 1/1 वि] (विछिण्ण) भूकृ 1/1 वि [(बंध)-(कारण) 1/1] (विसम) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि (इंदिय) 3/2 (लद्ध) भूकृ 1/1 अनि (त) 1/1 सवि (सोक्ख) 1/1 [(दुक्खं)+(एव)] दुक्खं (दुक्ख) 1/1 एव (अव्यय)
-जो
॥
इन्द्रियों से
॥
इंदियेहिं लद्धं
= प्राप्त
3D वह
= सुख
॥
सोक्खं दुक्खमेव
= दु:ख
152
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
तहा
अव्यय
-तथा
10.
आदा
कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे
(आद) 1/1 [(कम्म)-(मलिमस) 1/1 वि] (धर) व 3/1 सक (पाण) 2/2
अव्यय
(अण्ण) 2/2 वि
= आत्मा = कर्म से मलिन = धारण करता है = जीवन को = बार-बार = दूसरे = नहीं = छोड़ता है = जब तक = ममत्व = देह मूलवाले = विषयों में
ण
अव्यय
चयदि
(चय) व 3/1 सक
जाव
ममत्तं
अव्यय (ममत्त) 2/1 [(देह)-(पधाण) 7/2 वि] (विसय)7/2
देहपधाणेसु विसयेसु
11.
•जो
जाणादि जिणिंदे
पेच्छदि
सिद्धे तहेव . • अणगारे ..
जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो
(ज) 1/1 सवि (जाण) व 3/1 सक (जिणिंद) 2/2 (पेच्छ) व 3/1 सक (सिद्ध)2/2 अव्यय (अणगार) 2/2 (जीव) 7/2 [(स)-(अणुकंप) 1/1] (उवओग) 1/1 (त) 1/1 सवि (सुह) 1/1 वि (त) 6/1 स
= जानता है = जितेन्द्रियों को = समझता है = सिद्धों को = उसी प्रकार = साधुओं को = जीवों में = अनुकम्पा (करुणा) सहित = उपयोग
= वह
= शुभ
तस्स
- उसका
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
12. रत्तो
(रत्त) भूकृ 1/1 अनि बंधदि (बंध) व 3/1 सक कम्म
(कम्म) 2/1 मुच्चदि (मुच्चदि) व कर्म 3/1 सक अनि कम्मेहिं (कम्म) 3/2 रागरहिदप्पा
[(रागरहिद) + (अप्पा)]
[(रागरहिद)-(अप्प) 1/1] एसो (एस) 1/1 सवि बंधसमासो [(बंध)-(समास) 1/1] जीवाणं (जीव) 6/2 जाण . (जाण) विधि 2/1 सक णिच्छयदो क्रिविअ
= रागी = बाँधता है = कर्म को = छुटकारा पाता है = कर्मों में = रागरहित
आत्मा .. = यह = बन्ध का संक्षेप = जीवों के = जानो = निश्चय से
.
।
13. देहा
(देह) 1/2
= शरीर (देह)
वा
अव्यय
=या
दविणा
-सम्पत्ति
वा
-या
= सुख-दुःख
सुहदुक्खा वाध
सत्तुमित्तजणा
(दविण) 1/2 अव्यय [(सुह)-(दुक्ख) 1/2] [(वा)+(अध)] (वा) अव्यय (अध) अव्यय [(सत्तु)-(मित्त)-(जण) 1/2] (जीव) 4/1 अव्यय (अस) व 3/2 अक (धुव) 1/2 वि [(धुव)+(उवओग)+(अप्पगो)] [(धुव)-(उवओग)-(अप्पग) 1/1]
% या = इसी प्रकार = शत्रुजन, मित्रजन (व्यक्ति) = आत्मा के लिये = नहीं
जीवस्स
है
संति धुवा धुवोवओगप्पगो
= स्थायी
= स्थायी और
ज्ञानस्वरूप
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________________
अप्पा
(अप्प) 1/1
= आत्मा
14.
= जो
एव
= इस प्रकार
जाणित्ता
= जानकर
पर
= ध्यान करता है = सर्वोत्तम = आत्मा को
(ज) 1/1 सवि अव्यय
(जाण) संकृ झादि (झा) व 3/1 सक
(पर) 2/1 वि अप्पगं . (अप्पग) 2/1 विसुद्धप्पा [(विसुद्ध) वि- (अप्प) 1/1] सागारोऽणागारो [(सागारो)+ (अणागारो)]
(सागार) 1/1
(अणागार) 1/1 खवेदि (खव) व 3/1 सक
(त) 1/1 सवि मोहदुग्गंठिं . [(मोह)- (दुग्गंठि) 2/1]
= शुद्ध आत्मा
= गृहस्थ तथा
मुनि
= नष्ट कर देता है = वह = आसक्ति की गाँठ को
15.
= जो
जो
(ज) 1/1 सवि खविदमोहकलुसो [(खविद) भूकृ-(मोह)-(कलुस) 1/1]
= नष्ट कर दिया गया है, • आसक्ति रूपी, मैल = विषयों से विरक्त
= मन
विसयविरत्तो . [(विसय)-(विरत्त) भूकृ 1/1] मणो
(मण) 1/1 णिरुंभित्ता
(णिरुंभ) संकृ समवविदो
(समवट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि सहावे (सहाव) 7/1
(त) 1/1 सवि अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 हवदि (हव) व 3/1 अक झादा (झाउ-झाता-झादा) 1/1 वि
= रोककर = भली प्रकार से अवस्थित = स्वभाव में = वह = निज को = होता है = ध्यान करनेवाला
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________________
. पाठ - 6 भगवती अराधना
दुज्जणसंसग्गीए पजहदि णियगं
[(दुज्जण) वि-(संसग्ग-संसग्गी) 3/1] (पजह) व 3/1 सक (णियग) 2/1 वि
= दुर्जन के संसर्ग से . = त्याग देता है = अपने.. = गुण को = निश्चित रूप से, .
गुण
.
(गुण) 2/1
अव्यय
सुजणो
(सुजण) 1/1
= सज्जन
अव्यय
= भी
शीतल स्वभाव को
[(सीयल) वि- (भाव) 2/1] (उदय) 1/1
सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण
= पानी = जैसे
अव्यय
(पजह) व 3/1 सक - [(अग्गि)-(जोअ) 3/1]
= त्याग देता है = अग्नि के योग से
2.
णाणुज्जोवो
= ज्ञान रूपी प्रकाश = प्रकाश (है)
जोवो णाणुज्जोवस्स
= ज्ञान रूपी प्रकाश का = नहीं
णत्थि
[(णाण)+(उज्जोवो)] [(णाण)-(उज्जोव) 1/1] (जोव) 1/1 [(णाण)+(उज्जोवस्स)] . [(णाण)-(उज्जोव) 6/1] [(ण)+(अत्थि)] ण (अव्यय)
अत्थि (अस) व 3/1 अक (पडिघाद) 1/1 (दीव) व 3/1 सक [(खेत्तं)+ (अप्पं)] खेत्तं (खेत्त) 2/1 अप्पं (अप्प) 2/1 वि (सूर) 1/1 .
P4
पडिघादो दीवेइ खेत्तमप्पं
= विनाश = प्रकाशित करता है = क्षेत्र को = अल्प = सूर्य
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________________
णाण
जगमसेसं
(णाण) 1/1 [(जग)+(असेस)] जगं (जग) 2/1 असेसं (असेस) 2/1 वि
= ज्ञान = विश्व को = समस्त
3.
विज्जा.
भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि
(विज्जा) 1/1
= विद्या. अव्यय
= भी (भत्तिवंत) 6/1
= भक्तिवान की [(सिद्धिं) + (उवयादि)] सिद्धिं (सिद्धि) 2/1 = सिद्धि को, उवयादि (उवया) व 3/1 सक
= प्राप्त होती है (हो) व 3/1 अक
= होती है (सफला) 1/1 वि
= सफल अव्यय
= और
होदि
सफला
किह
अव्यय
- कैसे
पुण
णिव्वुदिबीजं सिज्झहिदि अभत्तिमंतस्स
अव्यय [(णिव्वुदि)-(बीज) 1/1] · (सिज्झ) भ 3/1 अक (अभत्तिमंत) 4/1
= फिर = मोक्ष रूपी बीज = सिद्ध होगा = अभक्तिवान के लिए
णाणुज्जोएण' (णाण) + (उज्जोएण)]
[(णाण)-(उज्जोय) 3/1] विणा - अव्यय ।
(ज) 1/1 स ‘इच्छदि. (इच्छ) व 3/1 सक मोक्खमग्गमुवगन्तुं [(मोक्ख)+ (मग्गं) + (उवगन्तुं)]
[(मोक्ख)-(मग्ग) 2/1] (उवगन्तुं) हेकृ अनि (गन्तुं) हेकृ अनि .
= ज्ञान रूपी प्रकाश के = बिना = जो (व्यक्ति) = इच्छा करता है
= मोक्ष-मार्ग को = जाने के लिए = जाने के लिए
1.
बिना के योग में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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________________
कडिल्लमिच्छदि [(कडिल्लं)+ (इच्छदि)]
कडिल्लं (कडिल्ल) 2/1
इच्छदि (इच्छ) व 3/1 सक अंधलओ (अंधलअ) 'अ' स्वार्थिक 1/1 वि अंधयारम्मि (अंधयार) 7/1
- जंगल को, = इच्छा करता है
= अन्धा
= अन्धकार में
अव्यय
= जैसे .. = तुम्हारे लिए
= नहीं
पियं
= प्रिय
दुक्ख
= दुःख
तहेव
= उसी प्रकार (का भाव)
-उन
..
.
.
= भी
जाण
(तुम्ह) 4/1 स अव्यय (पिय) 1/1 वि (दुक्ख) 1/1 अव्यय (त) 4/2 सवि अव्यय (जाण) विधि 2/1 सक (जीव) 4/2 अव्यय (णच्चा) संकृ अनि [(अप्प)+(उवमिवो)] [(अप्प)-(उवमिव) 1/1 वि] (जीव) 7/2 (हो) व 3/1 अक
= जान
जीवाणं
' = जीवों के लिए
एवं
= इस प्रकार
णच्चा
= जानकर
अप्पोवमिवो
जीवेसु
= आत्म-सदृश = जीवों के प्रति = होता है
सदा
अव्यय
= सदा
6.
सव्वेसिमासमाणं [(सव्वेसिं)+(आसमाणं)]
सव्वेसिं (सव्व) 6/2 स
आसमाणं (आसम) 6/2 हिदयं (हिदय) 1/1 गब्भो (गब्भ) 1/1
= समस्त = आश्रमों का
= हृदय
= गर्भ
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________________
अव्यय
सव्वसत्थाणं
सव्वेसिं वदगुणाणं
विंडो
[(सव्व) वि-(सत्थ) 6/2] (सव्व) 6/2 स [(वद)-(गुण) 6/2] (पिंड) 1/1 (सार) 1/1 (अहिंसा) 1/1
= और = समस्त शास्त्रों का = समस्त = व्रत व गुणों का = पिण्डरूप = सार = अहिंसा = निश्चित रूप से
सारो अहिंसा
हु
अव्यय
होइ
दया
।
दया
जीववहो (जीववह) 1/1
= जीव-वध अप्पवहो (अप्पवह) 1/1
= आत्म-वध जीवदया (जीवदया).1/1
= जीव-दया (हो) व 3/1 अक
= होता है अप्पणो (अप्पण) 1/1 वि
= आत्म अव्यय
= निश्चित रूप से (दया) 1/1 विसकंटओ (विसकंटअ) 1/1
= विषकंटक व्य . अव्यय
= की तरह (हिंसा) 1/1
= हिंसा परिहरियव्वा (परिहर) विधिकृ 1/1
= त्यागी जानी चाहिए तदो. अव्यय
= इसलिए होदि. .(हो) व 3/1 अक
= होती है 8. जावइयाई (जावइय) 1/2 वि .
= जितने दुक्खाई (दुक्ख) 1/2
= दुःख होंति (हो) व 3/2 अक लोयम्मि (लोय) 7/1
= लोक में चदुगदिगदाइं . [(चदु) वि-(गदि)-(गद) भूकृ 2/2 अनि] = चारों गतियों में व्याप्त
हिंसा
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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सव्वाणि
(सव्व) 2/2 सवि (त) 2/2 सवि [(हिंसा)-(फल) 2/2] (जीव) 6/1 (जाण) विधि 2/1 सक
- सभी को = उनको = हिंसा के फल
ताणि हिंसाफलाणि जीवस्स जाणाहि
= जीव की
= जानो
9.
कक्कस्सवयणं . णिट्ठरवयणं पेसुण्णहासवयणं
[(कक्कस्स) वि-(वयण) 1/1] = कर्कश वचन [(णिठर) वि-(वयण) 1/1] = कठोर वचन [(पेसुण्ण) वि-(हास) वि- (वयण) 1/1] = चुगली व हास्य वचन अव्यय अव्यय
= जो अव्यय
= कुछ भी .. (विप्पलाव) 1/1
= निरर्थक वचन [(गरहिद) वि-(वयण) 1/1] = निन्दित वचन (है) (समास) क्रिविअ 3/1
संक्षेप से
किंचि
विप्पलावं गरहिदवयणं समासेण
10.
परुसं
= कठोर
कडुयं
= कड़वा
वयण
(परुस) 1/1 वि (कडुय) 1/1 वि (वयण) 1/1 (वेर) 2/1 (कलह) 2/1
3वचन
= बैर को = कलह को
ला
अव्यय
= तथा
= जो
भयं कुणई उत्तासणं
(ज) 1/1 स (भय) 2/1 (कुण) व 3/1 सक (उत्तासण) 2/1
= भय को = उत्पन्न करता है = त्रास को = और
च
अव्यय
1.
पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 745
160
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________________
1
हीलणमप्पियवयणं [(हीलणं)+ (अप्पियवयणं)]
हीलणं (हीलण) 2/1 [(अप्पिय) वि-(वयण) 1/1] (समास) क्रिविअ 3/1
= तिरस्कार को = अप्रिय वचन (है) = संक्षेप से
समासेण
11.
जलचन्दणस- [(जल)-(चंदन)-(ससि)-(मुत्ता)सिमुत्ताचन्दमणी (चन्दमणि) 1/2] तह
अव्यय
(णर) 4/1 णिव्वाणं (णिव्वाण) 2/1
णरस्स
ण
अव्यय
= जल, चंदन, चन्द्रमा,
मोती एवं चन्द्रकान्तमणी = उस प्रकार = मनुष्य के लिए = तृप्ति/सुख = नहीं = करते हैं = करता है = जैसी = अर्थयुक्त = हितकारी, मधुर एवं परिमित वचन
करन्ति (कर) व 3/2 सक कुणइ (कर) व 3/1 सक जह
अव्यय अत्थज्जुयं . [(अत्थ)-(ज्जयु) 1/1 वि] हिदमधुरमिदवयणं [(हिद) वि- (मधुर) वि
(मिद)-(वयण) 1/1]
12, . .
.1.91.11 1.1111:11
सच्चम्मि तवो
= सत्य में
= तप
(सच्च) 7/1 . (तव) 1/1 (सच्च) 7/1 (संजम) 1/1
= सत्य में
सच्चम्मि संजमो
= संयम
अव्यय
वसे
.
(वस) व 3/1 अक (सय) 1/2 वि
= तथा = रहता है (रहते हैं) = सैकड़ों = ही
अव्यय
गुणा
गुण
(गुण) 1/2 (सच्च) 1/1 (णिबंधण) 1/1
सच्चं णिबंधणं
सत्य
.
= आधार
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
161
For Personal & Private Use Only
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
...
अव्यय
= निश्चित रूप से = हेतुसूचक अव्यय
अव्यय
.
गुणाणमुदधीव
[(गुणाणं)+ (उदधी) + (इव)] गुणाणं (गुण) 6/2 उदधी (उदधि) 1/1। इव (अव्यय) (मच्छ) 6/2
= गुणों का = समुद्र = जैसे = मछलियों का
मच्छाणं
13.
माया व होइ . विस्सस्सणिज्जो पुज्जो गुरुव्व'
लोगस्स पुरिसो
(माया) 1/1
= माता. अव्यय
= की तरह (हो) व 3/1 अक
होता है (विस्सस्स) विकृ 1/1
= विश्वासयोग्य (पुज्ज) 1/1
= पूज्य [(गुरु)+(व्व)] (गुरु) 1/1 व्व (अ) = की तरह = गुरु, की तरह (लोग) 4/1
= लोग (लोगों) के लिए (पुरिस) 1/1
= व्यक्ति अव्यय
= निश्चित रूप से (सच्चवाइ) 1/1 वि
= सत्यवादी (हो) व 3/1 अक
= होता है अव्यय
= पादपूरक [(स) वि -(णियल्ल) 1/1 'अ' स्वार्थिक] = अपने आत्मीय अव्यय
= की तरह (पिअ) 1/1 वि
= प्रिय
सच्चवाई होदि
सणियल्लओ
पिओ
14.
अव्यय
= जैसे
= बन्दर
थादो
मक्कडओ (मक्कड) 'अ' स्वार्थिक 1/1
(धा) भूकृ 1/1 1. आगे संयुक्ताक्षर होने के कारण गुरू का गुरु हो गया है।
= तृप्त हुआ
162
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
= ही
फलं दळूण लोहिदं
(फल) 2/1 (दट्ठण) संकृ अनि (लोहिद) 2/1 वि (त) 4/1 स (दूरत्थ) 4/1 वि अव्यय (डेव) व 3/1 अक
= फल को = देखकर = लाल (पके हुए) = उसके लिए = दूरस्थित = भी = कूदता है = यद्यपि
दूरत्थस्स
डेवदि
जइ
अव्यय
चित्तूण छंडेदि
अव्यय (घित्तूण) संकृ अनि (छंड) व 3/1 सक
= ग्रहणकरके = छोड़ देता है
॥
डा.
डा.
.
.
पस्सदि
.
दव्वं अहिलसदि पावि,
अव्यय (ज) 2/1 सवि (ज) 2/1 सवि (पस्स) व 3/1 सक (दव्व) 2/1 (अहिलस) व 3/1 सक (पाव) हेक (त) 2/1 स (त) 2/1 स [(सव्व) स- (जग) 3/1] अव्यय (जीव) 1/1 [(लोभ)+(आइटो)] [(लोभ)-(आइ8) 1/1 वि] अव्यय (तिप्प) व 3/1 अक
= इस प्रकार = जिसको = जिसको = देखता है = द्रव्य को = इच्छा करता है = पाने के लिए = उसको उसको समस्त जग से
सव्वजगेण
वि
= जीव
जीवो लोभाइट्ठो
= लोभ के आश्रित = नहीं = सन्तुष्ट होता है .
तिप्पेदि
.
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
163
For Personal & Private Use Only
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
16:
जह
अव्यय
= जैसे
मारुओ
पवढ्इ
(मारुअ) 1/1 (पवड) व 3/1 अंक क्रिवि (वित्थर) व 3/1 अक (अब्भ) 'य' स्वार्थिक 1/1
= हवा = बढ़ती है = क्षणभर में = फैल जाता है
खणेण
वित्थरइ अब्भयं
अव्यय
जहा
अव्यय
-तर
जीवस्स
= जीव का
तहा
= उसी तरह
लोभ ...
लोभो
.
(जीव) 6/1 अव्यय (लोभ) 1/1 (मंद) 1/1 वि अव्यय (खण) क्रिविअ 3/1 (वित्थर) व 3/1 अक
= मन्द
= क्षणभर में
खणेण वित्थरइ
= बढ़ जाता है
17.
लोभे
(लोभ) 7/1
अव्यय
य वहिदे
= लोभ = वाक्यालंकार = बढ़ा हुआ होने पर = फिर
पुण
कज्जाकज्जं
णरो
(वड्ढ) भूकृ7/1
अव्यय [(कज्ज)+ (अकज्ज)] [(कज्ज)-(अकज्ज) 2/1] (णर) 1/1 अव्यय (चिंत) व 3/1 सक अव्यय (अप्पण) 1/1 वि
= कार्य-अकार्य को = मनुष्य = नहीं = विचारता है
चिंतेदि
- फिर
अप्पणो
अपनी
अव्यय
-भी
164
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मरणं
अगणितो
साहसं
कुदि
18.
सव्वो
वहिदबुद्धी
पुरिसो
अत्थे
हिदे
य
सव्वो
fa
सत्तिप्पहारविद्धो
व
होदि
हिययंमि
अदु
19.
अत्थम्मि
हिदे
• पुरिसो
उम्मत्तो
विगयचेयणो
होदि
दि
व
हक्कारकिदो
( मरण) 2 / 1
( अगणि) वकृ 1 / 1
(साहस) 2 / 1
(कुण) व 3 / 1 सक
(सव्व) 1 / 1 स
[(उवहिद) वि- (बुद्धि) 1/1]
(पुरिस) 1/1
(अत्थ) 7/1
(हिद) 7/1 वि
अव्यय
(सव्व) 1 / 1 स
अव्यय
[( सत्ति) - ( प्पहार) - (विद्ध) 1 / 1 वि]
अव्यय
(हो) व 3/1 अक
(हियय) 7/1
[(31fa) fa- (gfea) 1/1 fa]
( अत्थ) 7/1
(हिद) 7/1 वि
( पुरिस) 1/1
(उम्मत्त) 1 / 1 वि
[ ( विगय) भूक अनि - (चेयण) 1 / 1 वि]
(हो) व 3 / 1 अंक
(मर) व 3 / 1 अक
अव्यय
[ ( हक्कार) - (किद) भूकृ 1 / 1 अनि ]
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
= मृत्यु को
= न गिनता (मानता) हुआ
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=
= करता है
=
=
= माया से प्रछन्न बुद्धिवाले
व्यक्ति
= धन
= छिन जाने पर
= और
सभी
=
कोई भी घोर अपराध
= सब
= ही
=
=
शक्ति प्रहार से घायल
होता है (होते हैं)
=
की तरह
= हृदय में
= अत्यन्त दुःखी
= धन
= हरे जाने पर
: व्यक्ति
=
= पागल
=
: चेतनारहित
= हो जाता है
= मर जाता है
: और
= हाहाकार करता हुआ
165
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
अत्थो
= धन
जीवं
(अत्थ) 11 (जीव) 1/1
= प्राण
अव्यय
= निश्चित रूप से = व्यक्ति का
पुरिसस्स
(पुरिस) 6/1
20. गन्थच्चाओ इन्दियणिवारणे
[(गन्थ)-(च्चाअ) 1/1] [(इंदिय)-(णिवारण) 7/1]
अंकुसो
(अंकुस) 1/1
= परिग्रह-त्याग = इन्द्रियों को (विषयों से)
दूर रखने में = अंकुश (हाथी को वश में
करने वाला हथियार) = जैसे = हाथी के लिए = नगर के लिए
अव्यय
हत्थिस्स
णयरस्स
(हत्थि ) 4/1 (णयर) 4/1 (खाइया) 1/1
खाइया
-खाई
अव्यय
ही
इन्दियगुत्ती असंगतं
अव्यय [(इंदिय)-(गुत्ति) 1/1] (असंगत्त) 1/1
= और = इन्द्रिय संयम = असंगता
21.
पेच्छदि
अववददि
गुणे
अव्यय (गुण) 2/2 (पेच्छ) व 3/1 सक (अववद) व 3/1 सक (गुण) 2/2 (जंप) व 3/1 सक (अजप) विधिकृ 1/1 अव्यय (रोस) 3/1
= नहीं = गुणों को = देखता है = निन्दा करता है = गुणों (की) को = कहता है = नहीं कहने योग्य = और - क्रोध के कारण
जंपदि अजंपिदव्वं
रोसेण
166
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
रुद्दहिदओ णारगसीलो
[(रुद्द) वि- (हिदअ) 1/1] (णारगसील) 1/1 वि (णर) 1/1 (हो) व 3/1 अक
= रौद्र हृदयवाला = नारकी = मनुष्य = होता है
णरो
होदि
माणी विस्सो
सव्वस्स
(माणि) 1/1 (विस्स) 1/1 वि (सव्व) 4/1 स (हो) व 3/1 अक [(कलह)-(भय)-(वेर)(दुक्ख) 2/2] (पाव) व 3/1 सक (माणि) 1/1
= अभिमानी = द्वेष करने योग्य = सभी के लिए = होता है = कलह, भय, वैर,
होदि कलहभयवेरदुक्खाणि पावदि
दुःखों को
माणी
= पाता है = अभिमानी = नियम से = इस (लोक) में
णियदं
अव्यय
18:11 tel111.1.1. laulei !
इह
-अव्यय
परलोए
(परलोअ) 7/1
= पर लोक में
य
अव्यय
-तथा
अवमाणं .
(अवमाण) 2/1
= अपमान को
23.
सयणस्स
= स्वजन का
जणस्स
पिओ ...
णरों
अमाणी
(सयण) 6/1 वि (जण) 6/1 (पिअ) 1/1 वि (णर) 1/1 (अमाणि) 1/1 वि अव्यय (हव) व 3/1 अक (लोअ) 7/1 (णाण) 2/1
= (पर) जन का = प्रिय = व्यक्ति = मान रहित. = सदा = होता है = लोक में
सदा
हवदि
लोए
णाणं
= ज्ञान
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
167
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
जसं
(जस)2/1
॥
अव्यय
॥
अत्थं
॥
लभदि
(अत्थ) 2/1 (लभ) व 3/1 सक (सकज्ज) 2/1 अव्यय
= धन को
करता है अपने कार्य को
॥
सकज्ज
॥
और
॥
साहेदि
(साह) व 3/1 सक
= सिद्ध करता है
॥
24. तेलोक्केण
= तीनों लोक से = भी
वि.
= मन की
चित्तस्स णिव्वुदी णत्थि
= तृप्ति (सन्तुष्टि) .. = नहीं
(तेलोक्क) 3/1
अव्यय (चित्त) 6/1 (णिव्वुदि) 1/1 [(ण)+(अत्थि)] ण (अव्यय) अत्थि (अस) व 3/1 अक [(लोभ)-(घत्थ) 6/1] (संतुट्ठ) 1/1 वि अव्यय (अलोभ) 1/1 वि (लभ) व 3/1 सक (दरिद्द) 1/1 वि
लोभघत्थस्स संतुट्ठो
अलोभो
= लोभ से ग्रस्त (व्यक्ति) के = सन्तुष्ट = किन्तु = निर्लोभी = प्राप्त करता है = दरिद्र = भी = निर्वाण को
लभदि दरिद्दो
अव्यय
(णिव्वाण) 2/1
णिव्वाणं 25. विज्जू
व
चंचलाई दिट्ठपणट्ठाई सव्वसोक्खाई
(विज्जु) 1/1
= बिजली अव्यय
= की तरह (चंचल) 1/2 वि
= चंचल [(दिट्ठ) भूकृ अनि-(पणट्ठ) भूकृ 1/2 अनि] = देखे गये हैं, नष्ट होते [(सव्व) सवि-(सोक्ख) 1/2] = समस्त सुख
168
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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--------------------------------------------------------------------------
________________
जलबुब्बुदो
व्व
अधुवाणि
हंति
सव्वाणि
ठाणाणि
26.
एगम्मि
दु
उणणं
पिण्डणं
to
व
संजोगो
परिवेसो
व
अणिच्चो.
इस्सरियाणा
धाणारोगं
27..
. इन्दियसामग्गी
वि.
- अणिच्चा
संझा
व
होइ
जीवाणं
[ (जल) - (बुब्बुद) 1 / 1]
अव्यय
(अधुव) 1 / 2 वि
(हु) व 3/2 अक
(सव्व) 1/2 वि
(ठाण) 1/2
(रत्ति) 2/1
(एग ) 7/1 वि
(दुम) 7/1
(सउण) 6/2
( पिण्डण ) 1 / 1
अव्यय
( संजोग ) 1 / 1
• (परिवेस) 1/1
अव्यय
( अणिच्च) 1 / 1
[(इस्सरिय) + (आणा)+ (धाण) + ( आरोग्गं ) ] [(इस्सरिय)-(आणा)-(धाण ) - ( आरोग्ग) 1 / 1
]
[(इन्दिय) - (सामग्गी) 1/1]
अव्यय
(अणिच्च) 1/1 वि
( संझा ) 1 / 1
अव्यय
(हो) व 3/1 अक
(जीव) 6/2
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
= जल के बुलबुले
= की तरह
= अस्थिर
: होते हैं
= समस्त
= स्थान
=
= रात को
= एक
= : वृक्ष पर
= पक्षियों के
= समूह
= की तरह
= संयोग
=
: बादलों से सूर्य चन्द्र को
ढकने की प्रक्रिया
= की तरह
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=
अनित्य
= ऐश्वर्य,
आज्ञा,
धनधान्य व आरोग्य
= इन्द्रिय सामग्री
= भी
= अनित्य
= संध्या
= की तरह
= होती है
= जीवों की
169
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
व
= दोपहर = की तरह = मनुष्यों का
मज्झण्हं. (मज्झण्ह) 1/1
अव्यय णराणं
(णर) 6/2 जोव्वणमणवट्ठिदं [(जोव्वणं)+ (अणवह्रिद)]
जोव्वणं (जोव्वण) 1/1 अणवट्ठिदं (अणवठ्ठ) भूकृ 1/1 (लोअ) 7/1
= यौवन = अस्थिर (चंचल) = संसार में ..
= चन्द्रमा
(चंद) 1/1 (हीण) 1/1 वि
हीणो
= घटता ।
अव्यय
WE
अव्यय
= और = फिर = बढ़ता है = आती है
(वड्ढ) व 3/1 अक (ए) व 3/1 सक
य
अव्यय
= और
ऋतु
(उदु) 1/1 (अदीद) भूकृ 1/1 अनि
अदीदो
= बीती हुई
वि
अव्यय
णदु
= किन्तु
जोव्वणं णियत्तइ णदीजलगदछिदं
[(ण) + (दु)] ण (अव्यय) दु (अव्यय) (जोव्वण) 1/1 (णियत्त) व 3/1 अक [(नदी)+ (जल)+ (गद)+(छिद्द')2/1] [(नदी)-(जल)-(गद)-(छिद्द) 2/1]
= यौवन = लौटता है = नदी के जल (प्रवाह में)
गई हुई छोटी मछली = की तरह
अव्यय
1.
कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137 की कृति)
170
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
29.
धावदि
गिरिणदिसोदं
व
आउगं
(37137) 1/1 सव्वजीवलोगम्मि [ ( सव्व) स- (जीव ) - (लोग) 7 / 1]
सुकुमालदा
(सुकुमालदा ) 1/1
वि
अव्यय
(हाय) व 3 / 1 सक
(लोग) 7/1
[ ( पुव्वण्ह) - (छाही ) 1/1]
अव्यय
यदि
लोगे
पुव्वछाही
30.
हिमणिचओ
&
वि
गिहसयणा
भंडाणि
M
अधुवाणि
जसकित्ती
कल
अणिच्चा
लो संज्झब्भरागो
व्व
(धाव) व 3 / 1 सक
[(गिरि) - (दि) - (सोद - सोअ) 1 / 1]
अव्यय
[(हिम)-(णिचअ) 1/1]
अव्यय
अव्यय
[(गिह) + (सयण) + (आसण) + (भंडाणि) ] [(गिह) - (सयण) - (आसण ) - ( भंड) 1 / 2]
(हो) व 3/2 अक
(अधुव) 1/2 वि
[(जस) - (कित्ति) 1 / 1]
अव्यय
( अणिच्च, स्त्री अणिच्चा ) 1 / 1
(लोअ) 7/1
]
[(संज्झ ) + (अब्भ) + (रागो ) [(संज्झ ) - (अब्भ) - (राग) 1 / 1 ]
अव्यय
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
= दौड़ती है
=
= पहाड़ी नदी के प्रवाह
= की तरह
=
= आयु
= सर्व जीवलोक में
= सुकुमारता
= भी
= कम होती है
= लोक में
=
=
=
पूर्वार्ध की छाया
निश्चय ही
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बर्फ के समूह
= भी
= की तरह
= घर, शय्या,
आसन, भांड
- होते हैं
=
= अध्रुव
= यश और कीर्ति
= भी
= अनित्य
= लोक में
= संध्या के आकाश की
लालिमा
की तरह
171
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
. 31.
.
= इन्द्रिय रूपी दुर्दम घोड़े = नियन्त्रित किए जाते हैं = दमनरूपी ज्ञानकी लगाम से = कुमार्ग गामी = वंश में किये जाते हैं . = निश्चित रूप से = लगाम द्वारा' . = जैसे .
. - घोड़े . .
जह
तुरया
झाणं
इन्दियदुद्दन्तस्सा [(इन्दिय) + (दुद्दन्त) + (अस्सा)]
[(इन्दिय)-(दुद्दन्त)-(अस्स) 1/2] णिग्घिप्पन्ति (णिग्धिप्प) व कर्म 3/2 सक अनि दमणाणखलिणेहिं [(दम)-(णाण)-(खलिण) 3/2] उप्पहगामी
(उप्पहगामी) 1/2 णिग्धिप्पन्ति (णिग्घिप्प) व कर्म 3/2 सक अनि
अव्यय खलिणेहिं (खलिण) 3/2
अव्यय (तुरय) 1/2
. . 32. .
(झाण) 1/1 कसायरोगेसु [(कसाय)-(रोग) 7/2] होदि
(हो) व 3/1 अक वेज्जो (वेज्ज) 1/1 तिगिछदे (तिगिछ) व 3/1 सक
(कुसल) 1/1 वि
(रोग) 7/2 जहा
अव्यय वेज्जो (वेज्ज) 1/1 पुरिसस्स (पुरिस) 6/1 तिगिछओ (तिगिछअ) 1/1
(कुसल) 1/1 33.
(झाण) 1/1 विसयछुहाए [(विसय)-(छुहा) 7/1]
अव्यय होइ
3/1 अक
कुसलो
= ध्यान (रूपी) = कषाय रूपी रोगों में . = होता है = वैद्य = चिकित्सा करता है = कुशल = रोगों में = जिस प्रकार = वैद्य = व्यक्ति के = चिकित्सक
रोगेसु
कुसलो
= कुशल
झाणं
= ध्यान = विषयरूपी भूख में = और = होता है
172
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
For Personal & Private Use Only
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
अण्णं
(अण्ण) 1/1
= अन्न
जहा
अव्यय
= जैसे
छुहाए
(छुहा) 7/1
अव्यय
झाणं
विसयतिसाए
(झाण) 1/1 [(विसय)-(तिसा) 7/1] (उदय) 1/1 (उदय) 1/1
= अथवा = ध्यान = विषयरूपी प्यास में = पानी = जल = जैसे
उदयं
उदयं
अव्यय
तण्हाए
(तण्हा) 7/1
= प्यास में
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
173
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
For Personal & Private Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ - 1 वज्जालग्ग
क्रम संख्या
क्रम संख्या
वज्जालग्ग गाथा संख्या
वज्जालग्ग गाथा संख्या
21.
263.1
113
22.
264
114
266
115
24.
267
116
25.
579
117
26.
580
119.1
• 27.
581
138
28.
585
139
665
140
30.
672
141
31.
678
146
32.
682
154
33.
685
163
686
164
35.
687
257
36.
688
258
689
260
691
262
39.
692
263
___705
.
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
175
For Personal & Private Use Only
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रम संख्या.
क्रम संख्या
वज्जालग्ग गाथा संख्या
वज्जालग्ग गाथा संख्या
728
750
151
731 .732
753
746
755
748
757
पाठ - 2
गउडवहो
क्रम संख्या
गउडवहो
क्रम संख्या
गउडवहो
गाथाक्रम
गाथाक्रम
885
887
902
907
911
913
917
919
860
972
866
976
884
983
176
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
For Personal & Private Use Only
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ - 3
दशवैकालिक दशवकालिक क्रम संख्या सूत्रक्रम
क्रम संख्या
दशवैकालिक
सूत्रक्रम
274
435
14.
450
15.
472
65
16.
* = * * * * * * *
487
17.
498
271 ,
418
18.
502
9
516
473
20
543
474
573
477
575
पाठ - 4 आचारांग
क्रम संख्या
क्रम संख्या
आचारांग सूत्रक्रम
आचारांग सूत्रक्रम
254
262
258
5.
*
263
200
260
265
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
177
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Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रम संख्या
क्रम संख्या
आचारांग सूत्रक्रम
आचारांग सूत्रक्रम
266
295
272
296
274
302
278
I wenta istina LE_*& # # # # # A#
+ * * * * *
11.
279
311
12.
280
313
13.
281
314
14.
282
315...
15.
283
321
16.
285
322
17.
286
पाठ-5 . प्रवचनसार
क्रम संख्या
गाथा क्रम
क्रम संख्या
गाथा क्रम
7.
8.
1/7 1/13 1/20 '1/27 1/44 1/67
si
1/68 1/69 1/76 2/58 2/65 2/87
178
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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Page #186
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________________
.. क्रम संख्या
गाथा क्रम
2/101 2/102 2/104
पाठ -6 भगवती आराधना
क्रम संख्या
गाथा क्रम
क्रम संख्या
गाथा क्रम
349
861
774
774
.
862
754
863
777
864
783
865
796
1175
800
1374
806
1385
836
1387
838
1400
841
1726
RAN
1729
846
1730 1731
860
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
179
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Page #187
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________________
क्रम संख्या
29.
30.
31.
32.
33.
क्रम संख्या
1.
2.
3.
4.
5.
180
गाथा क्रम
1732
1736
1845
1910
1911
गाथा क्रम
19/1
19/13
19/14
19/21
19/22
पाठ
7
अर्हत प्रवचन
क्रम संख्या
6.
7.
8.
9.
10.
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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गाथा क्रम
19/23
19/26
19/27
19/49
19/53
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________________
1. Apabhramśā of
Hemacandra
2. अपभ्रंश - हिन्दी कोश,
भाग 1 - 2
3. अभिनव प्राकृत व्याकरण
4. अर्हत प्रवचन
5. आचारांग चयनिका
6. आयारांगसुत्तं
7. आचारांगसूत्र
8. आयारो
9. Introduction to Ardha
Magadhi
10. कातन्त्र व्याकरण
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
:
:
:
:
:
Dr. Kantilal Baldevram Vyas
Präkṛta Text Society, Ahmedabad
डॉ. नरेशकुमार इण्डो-विजन प्रा. लि. II ए
220, नेहरू नगर, गाजियाबाद
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री तारा पब्लिकेशन, वाराणसी
सम्पादकः पण्डित चैनसुखदास न्यायतीर्थ जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, राजस्थान
सम्पादक: डॉ. कमलचन्द सोगाणी (प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर)
सम्पादकः : मुनि जम्बूविजय (श्री महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई )
सम्पादकः मधुकर मुनि
श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.)
सम्पादकः मुनि नथमल
(जैन विश्व भारती, लाडनूं)
A.M. Ghätage
School and College Book Stall
Kolhapur.
गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर, मेरठ
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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181
Page #189
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11. गउडवो
12. णायधम्मकहा
13. दशवैकालिक चयनिका
14. दशवैकालिक सूत्र (दसवेयालियसुत्तं)
15. दसवेयालियं
16. पाइअ-सद्द-महण्णवो
17. पाइयगज्जसंगहो
18. प्रवचनसार
19. प्राकृत-प्रबोध
20. प्राकृत भाषाओं का
व्याकरण
21. प्राकृत मार्गोपदेशिका.
22. प्रौढ़ रचनानुवाद कौमुदी
182
1:
:
:
:
:
:
:
:
:
वाक्पतिराज
सम्पादकः प्रो. नरहर गोविन्द
प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद
सम्पादकः शोभाचन्द्र भारिल्ल
श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.)
सम्पादक: डॉ. कमलचन्द सोगाणी.
(प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर)
सम्पादकः मुनि श्री पुण्यविजयजी एवं पण्डित अमृतलाल मोहनलाल भोजक (श्री महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई)
सम्पादकः
: मुनि नथमल
(जैन विश्व भारती, लाडनूं)
पण्डित हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ :
प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी
सम्पादक: डॉ. राजाराम जैन प्राच्य भारती प्रकाशन, आरा
श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य अनुवादक - ए. एन. उपाध्ये श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री
चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी-1 डॉ. आर. पिशल बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
पण्डित बेचरदास जीवराज दोशी मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली
डॉ. कपिलदेव द्विवेदी विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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23. भगवती आराधना
24. वज्जालग्ग
28. हेमचन्द्र प्राकृत भाग 1 - 2
25. वज्जालग्ग में जीवन मूल्य :
26. वाक्पातिराज की लोकानुभूति
27. वृहद् अनुवादचन्द्रिका
:
व्याकरण
:
:
:
श्री शिवकोटि आचार्य
प्रकाशचन्द शीलचन्द जैन जौहरी 1266, चाँदनी चौक, दिल्ली - 6
जयवल्लभ
सम्पादकः प्रो. माधव वासुदेव पटवर्धन (प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, अहमदाबाद-9) सम्पादक: डॉ. कमलचन्द सोगाणी (प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर)
सम्पादक: डॉ. कमलचन्द सोगाणी ( प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर)
चक्रधर नौटियाल 'हंस'
मोतीलाल बनारसीदास, फेज-1, दिल्ली
व्याख्याता - श्री प्यारचन्दजी महाराज श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय मेवाड़ी बाजार,
ब्यावर
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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183
Page #191
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Page #192
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