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पाठ -5 प्रवचनसार
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चारित्र निश्चय ही धर्म (है)। जो समता (है), वह ही धर्म कहा गया है। मूर्छा रहित और व्याकुलतारहित आत्मा का भाव ही समता (है)।
शुद्धोपयोग (वीतरागभाव) से विभूषित (जीवों) का सुख श्रेष्ठ, आत्मा से उत्पन्न, इन्द्रिय-विषयों से परे, अनुपम, अनन्त और सतत (होता है)।
केवलज्ञानी के देह विषयक सुख तथा दुःख नहीं है। चूँकि (उसके) अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है, इसलिए ही वह (बात) समझने योग्य (है)।
(इस प्रकार कहा गया है कि) ज्ञान आत्मा (है)। आत्मा के बिना ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए ज्ञान आत्मा (है)। (संक्षेप में) आत्मा ज्ञान (है) तथा (सुखादि) अन्य भी।
5. .
अरिहन्तों के (उस) समय में उनका खड़ा होना, बैठना, गमन और धर्मोपदेश स्त्रियों के मातारूप आचरण की तरह स्थिर (प्रकृतिदत्त) (होता) है।
6...
यदि मनुष्य की आँख अँधकार को हरनेवाली (हो जाए) (तो) दीपक के द्वारा करने योग्य (कुछ भी) नहीं (होता है)। उसी प्रकार (यदि) स्वयं आत्मा सुख है, (तो) वहाँ इन्द्रिय-विषय क्या (सुख) उत्पन्न करते हैं।
7:
जिस प्रकार आकाश में सूर्य स्वयं ही प्रकाशरूप (है), ऊष्णरूप (है) और दिव्यरूप (है), उसी प्रकार लोक में सिद्ध भी ज्ञानरूप (है), सुखरूप (है) और . वैसे ही दिव्यरूप (हैं)।
8.
(जो) व्यक्ति देव, संन्यासी और गुरु की आराधना में और दान में तथा व्रतों में तथा उपवासादि में अनुरक्त हैं (वह) शुभ उपयोगस्वभाववाला (कहा गया
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ह)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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