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रत्नों से निरन्तर भरे हुए भी रत्नाकर के गर्व नहीं है, (किन्तु) मोती के संशय में भी हाथी की मद में तल्लीन दृष्टि (होती है)।
बाहर निकले हुए रत्नों के कारण भी समुद्र के तुच्छता नहीं होती है, किन्तु फिर भी (यह कहा जा सकता है कि) समुद्र में थोड़े (ही) रत्न चन्द्रमा के समान (होते हैं) (जो समुद्र के लिए आनन्द करते हैं)।
यद्यपि विधि के वश से ही चन्द्रमा किसी तरह समुद्र से बिछुड़ा हुआ है, तो भी उसका प्रकाश दूर होने पर भी (समुद्र के लिए) आनन्द करता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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